भैषज्य कल्पना
आयुर्वेद में भैषज्य कल्पना (संस्कृत : भैषज्यकल्पना) का अर्थ है औषधि के निर्माण की डिजाइन (योजना)। [1]आयुर्वेद में रसशास्त्र का अर्थ 'औषध (भेषज) निर्माण' है और यह मुख्यतः खनिज मूल के औषधियों से सम्बन्धित है। रसशास्त्र और भैषज्यकल्पना मिलकर आयुर्वेद का महत्वपूर्ण अंग बनाते हैं।
भैषज्यकल्पना कितनी महत्वपूर्ण है, यह निम्नलिखित श्लोक से स्पष्ट है-
- यस्य कस्य तरोर्मूलं येन केनापि मिश्रितम् ।
- यस्मै कस्मै प्रदातव्यं यद्वा तद्वा भविष्यति ॥
- (जिस-तिस वृक्ष का मूल ले लिया, जिस-किस द्वारा उसका मिश्रण बना दिया गया , जिस-तिस को उसे दे दिया गया (सेवन करा दिया गया), (तो परिणाम भी) ऐसा-वैसा ही होगा।)
संस्कार
स्वाभाविक (प्रकृतिसिद्ध ) गुणों से युक्त द्रव्यों का जो संस्कार (Processing ) किया जाता है उसे 'करण' कहते है l द्रव्यों मे किन्ही विशेष गुणों का लाना संस्कार कहलाता है l हम जो द्रव्य आहार औषधि के लिए उपयोग मे लाते हैं वे अनेक संस्कारो से संस्कारित हुए रहते हैंl उसमे कुछ नैसर्गिक हैं और कुछ कृत्रिम l
- तोयसन्निकर्ष या जलसन्निकर्ष (स्वच्छ पानी से धोना)
- अग्निसन्निकर्ष (आग पर पकाना)
- शौच (शुद्ध करना (धोना ))
- मन्थन (मथना)
- देश
- काल
- वासन (सुवासित करना)
- भावन (भावना देना)
- कालप्रकर्ष (समय की प्रतीक्षा करना)
- भाजन (विशेष प्रकार के पात्रों मे रखकर उन गुणों का आधान करना)
- जलसंयोग - खाद्य पदार्थ स्वच्छ पानी से धोना l इस संस्कार से-
- (१) मिट्टी, बाल, कचरा, पत्थर, कंकड़, कीड़े, कृमि (सूक्ष्म ) आदि अलग हो जाते हैं l
- (२) आहारद्रव्य को पानी मे भिगोकर या पीसकर कोमल बनाया जाता हैl सूखापन का नाश होता है l जैसे पोहा बनाते समय पानी मे भिगोकर रखने के बाद छौंक लगाया जाता हैl दही की छाली जल में मिलाकर मट्ठा बनाकर उसे शीत और हलका किया जाता हैl तीक्ष्ण आसव, अरिष्ट या सिरका आदि मे जल मिलाकर उसे मृदु पेय बनाया जाता है l
- अग्नि संस्कार - अन्न को आग पर पकाकर उसके गुरुत्व को हटाकर हलका बना लिया जाता है l
- कुकूल कर्पर भ्राषटकन्दवाअंगारविपचितान l
- एकायोनिलघुंविद्यातपुपानुत्तरोत्तरम ॥
- कुकूल - अपाम बाष्पस्वेदः l (पानी के भाप से पकाना )
- कर्पर - ज्वालासंतप्ते कपालं l ( तवा या उसी तरह का मिट्टी का पात्र)
- भ्राष्ट्र- तदेव सछिद्रम (छिद्रयुक्त कबेलू )
- कंदु - लोहपात्र (तावा )
- अंगार - अंगारपूर्ण पात्रम l
ये संस्कार उत्तरोत्तर लघु हैंl प्रायः ये संस्कार अपूप याने आटा (जवार, गेहूं, चावल आदि ) को लाटकर या थापकर बनाये गये विविध पदार्थ, रोटी, भाकरी, घिरडे, बिट्टी, पानगा, बाटी आदि बनाने मे उपयोग मे लाया जाता हैl अंगारतप्त अपूप लघुत्तम हैl अग्निसंस्कार से चावल का भात या धान का लावा या अन्य भर्जित अन्न गुरुता छोड़ लघु हो जाते हैं।
- शौच - शोधन करके द्रव्यों के दोषों को दूर कर उन्हें निर्दोष और ग्राह्य बना लिया जाता है l
- मन्थन - दही शोथकारक है, किन्तु छाली के साथ मथ देने पर वह शोथनाशक हो जाती हैl
- देश - 'द्वितीय ब्राम्ह रसायन ' नामक औषधि को राख के ढेर के नीचे रखने का विधान बतलाया गया हैl इस प्रकार देश विशेष मे रखने से गुणाधान होता है l जैसे - अलग -अलग देशों मे रहने से गर्म, शीत और साधारण देशो के वासी जीवों के मांस के गुण मे अंतर होता हैl
- काल - जैसे एक वर्ष का पुराना चावल हलका हो जाता है और वही नया होने पर गुरु होता है। आसव-अरिष्ट जितने पुराने होते हैं उतने ही अधिक गुणकारी होते हैंl रस भस्म भी पुराने अधिक गुणशाली होते हैंl
- भावन - आंवला आदि चूर्णों का गुणोत्कर्ष करने के लिये उसी द्रव्य के काढ़े की भावना (mixing and grinding ) दी जाती हैl विष की मारकता दूर करने के लिये उसमे गोमूत्र की भावना दी जाती है और उसकी मारकता क्षीण हो जाती हैl
- कालप्रकर्ष - आसव अरिष्ट का संधान करने पर २ से ४ सप्ताह बाद ही वह तैयार हो पाता है और उसमे आसव के गुण उत्पन्न होते हैंl
- भाजन (पात्र ) - त्रिफला के कल्क को लोहपात्र पर लेप कर सूखने के पश्चात निकलकर प्रयोग करने से वह रसायन हो जाता हैl
इसी प्रकार औषधों की अनेक प्रकार की कल्पनायें करना, शोधन करना, भावना देना, अभिमंत्रित करना, धान्यराशि में, धूप में या शीत मे रखना आदि अन्य प्रक्रियाएँ भी गुणान्तरधान के लिये की जाती हैंl
सन्दर्भ
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 22 दिसंबर 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 दिसंबर 2015.
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- भैषज्य कल्पना के मूल सिद्धान्त
- A Text Book Of Bhaisjya Kalpana Vijnanam (By Dr. G. Prabhakara Rao)
- Basic Principles Of Bhaishyajya Kalpna