भाविक अलंकार
भाविक अलंकार अलंकार चन्द्रोदय के अनुसार काव्य में प्रयुक्त एक अलंकार है। साहित्य दर्पण के अनुसार बीत चुके अथवा भविष्य में होने वाले अदभुत पदार्थ का प्रत्यक्ष के समान वर्णन करने को भाविक अलंकार कहते हैं। ("अद्भुतस्य पदार्थस्य भूतस्याथ भविष्यतः। यत्प्रत्यक्षायमाणत्वं तद्भाविकमुदाहृतम्॥९३॥")[1]
उदाहरण और व्याख्या
विश्वनाथ ने दो उदाहरण देकर इसकी व्याख्या की है :-
- "'मुनिर्जयति योगीन्द्रो महात्मा कुम्भसम्भवः। येनैकचुलुके दृ्ष्टौ दिव्यौ तौ मत्स्यकच्छपौ॥'" अर्थात मुनिरिति। योगीन्द्र महात्मा अगत्स्य मुनि उत्कर्ष के साथ रहते हैं। जिन्होंने एक अंजलि में दिव्य प्रसिद्ध मस्त्य (मत्स्यावतार) और कच्छप (कच्छपावतार) का साक्षात्कार कर लिया। यहाँ चुल्लू किए गए समुद्र में देखे गए दिव्य मत्स्य और कच्छप इन दो अदभुत पदार्थों के वर्णन विशेष से प्रत्यक्ष के समान प्रतीत होने से भाविक अलंकार है।
- "'आसीदञ्जनमत्रेति पश्यामि तव लोचने। भाविभूषणसम्भारां साक्षात्कुर्वे तवाकृतिम्॥'" अर्थात आसीदिति। हे कन्ये! तुम्हारे इन नयनों में काजल था ऐसा विचार कर तुम्हारे नयनों को देखता हूँ। पीछे होने वाले अलंकार से युक्त तुम्हारी आकृति को प्रत्यक्ष कर रहा हूँ। इस प्रसंग में पूर्वार्द्ध में लगाए गए काजल का 'पश्यामि' कहकर और उत्तरार्द्ध में पीछे होने वाले भूषण समूह का 'साक्षात्कुर्वे' प्रत्यक्ष कर रहा हूँ, कहकर वर्तमान काल के निर्देश से प्रत्यक्ष के समान आचरण करने से भाविक अलंकार हुआ है।[2]
भामह अन्य अलंकारों को वाक्योलंकार मानते हैं किन्तु भाविक को प्रबंध का गुण मानते हैं।[3]
सन्दर्भ
- ↑ कविराज, विश्वनाथ (२०१३). साहित्यदर्पणम् [साहित्यदर्पण]. वाराणसी: चौखम्बा कृष्णदास अकादमी. पृ॰ १०३२.
- ↑ कविराज, विश्वनाथ (२०१३). साहित्यदर्पणम् [साहित्यदर्पण]. वाराणसी: चौखम्बा कृष्णदास अकादमी. पृ॰ १०३३-३४.
- ↑ Bharatiya Kavyashashtra. Vani Prakashan. पपृ॰ 242–.