भारत में मधुमक्खी पालन
भारत में मधुमक्खी पालन का प्राचीन वेद और बौद्ध ग्रंथों में उल्लेख किया गया हैं। मध्य प्रदेश में मध्यपाषाण काल की शिला चित्रकारी में मधु संग्रह गतिविधियों को दर्शाया गया हैं। हालांकि भारत में मधुमक्खी पालन की वैज्ञानिक पद्धतियां १९वीं सदी के अंत में ही शुरू हुईं, पर मधुमक्खियों को पालना और उनके युद्ध में इस्तेमाल करने के अभिलेख १९वीं शताब्दी की शुरुआत से देखे गए हैं। भारतीय स्वतंत्रता के बाद, विभिन्न ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के माध्यम से मधुमक्खी पालन को प्रोत्साहित किया गया। मधुमक्खी की पाँच प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं जो कि प्राकृतिक शहद और मोम उत्पादन के लिए व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण हैं।
इतिहास
पुरातन
मधुमक्खी, शहद और मधुमक्खी पालन का उल्लेख भारत के विभिन्न हिंदू वैदिक ग्रंथों में जैसे ऋग्वेद, अथर्व वेद, उपनिषद, भगवद गीता, मार्कण्डेय पुराण, राज निघटू, भारत संहिता, अर्थशास्त्र और अमरकोश में किया गया है। विभिन्न बौद्ध ग्रंथों जैसे विनयपिटक, अभिधम्मपिटक और जातक कहानियों में भी मधुमक्खी और शहद का उल्लेख है। वत्स्ययान के कामसूत्र में शहद का उल्लेख यौन सुख में महत्वपूर्ण कारक के रूप में किया गया हैं।[1] लोकप्रिय महाकाव्य रामायण में एक "मधुबन" (शाब्दिक अर्थ - शहद का जंगल) का वर्णन किया है जिसकी खेती सुग्रीव ने की थी। महाकाव्य महाभारत में मथुरा के निकट एक अलग मधुबन का उल्लेख किया गया है जहाँ कृष्ण और राधा मिला करते थे। भारत को "शहद और दूध की भूमि" कहा गया है। यहाँ के जंगलों का उपयोग मधुमक्खियों के पालन के लिए किया जाता था।[2]
आधुनिक इतिहास
मध्यपाषाण काल और उसके बाद के काल की विभिन्न शिला चित्रकारी मध्य प्रदेश और पचमढ़ी क्षेत्रों में पाई जाती हैं। इन चित्रों में मुख्य रूप से एपिस डोरसॅटा और एपिस मेलिफेरा प्रजातियों की मधुमक्खियों के छत्तेसे जंगल में मधु संग्रह गतिविधियों को दर्शाया गया हैं।[3]
जब ब्रिटिश ने १८४२-४९ में वर्तमान ओडिशा राज्य के पूर्वी तट पर आक्रमण किया, तो कोंध जनजाति ने उनके विरुद्ध पालतू मधुमक्खियों का प्रयोग किया था। लेकिन उनकी पालन की तकनीकों के बारे में कुछ जानकारी उपलब्ध नहीं हैं।[2] भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में मणिपुर और नागालैंड के पहाड़ी इलाकों में विभिन्न जनजातियों ने मधुमक्खी पालन के लिए लकड़ी या मिट्टी के बर्तन का प्रयोग किया जाता है। किन्तु शहद को मधुकोश से निकालने के बेढंगे तरीके प्रयोग में लाये जाते थे जिसके कारण मधु में मधुमोम की मिलावट की संभावना रहती थी और इस प्रक्रिया में कई मक्खियाँ भी मर जाती थी। कुछ मणिपुरी जनजातियों द्वारा एक खोखले बांस के अंत में कील लगाकर छत्ते से मधु संग्रह की प्रक्रिया लोकप्रिय थी। खोखले बांस से शहद को एक पीपा में बहने दिया जाता था।[4]
१८८० में पश्चिम बंगाल क्षेत्र में और १८८३-८४ के दौरान पंजाब और कुल्लू क्षेत्रों में एपिस सेराना को वैज्ञानिक तरीके से पालने के असफल प्रयास किए गए। १८८४ में भारत में पहली बार डगलस नामक डाक व तार विभाग (तत्कालीन पोस्ट एण्ड टेलीग्राफ विभाग) के एक ब्रिटिश अधिकारी द्वारा हॅण्डबुक औफ बीकिपींग पुस्तक प्रकाशित हुई थी। पहला सफल प्रयास केरल में रेवरेंड न्यूटन द्वारा किया गया था, जब उन्होंने एक विशेष रूप से बनाए गए कृत्रिम छत्ते से १९११-१७ के दौरान ग्रामीण लोगों को मधुमक्खी पालन से शहद निर्मीती का प्रशिक्षण दिया। यह छत्ता "न्यूटन हाइव" के नाम से लोकप्रिय हुआ। १९१७ में त्रवनकोर इलाकों में और १९२५ में मैसूर के क्षेत्रों में काफी मधुमक्खी पालन गतिविधियों का आयोजन किया गया। इन गतिविधियों को मद्रास क्षेत्र में १९३१ में, पंजाब में १९३३ में और उत्तर प्रदेश में १९३८ में प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। १९३८-३९ के दौरान अखिल भारतीय मधुमक्खी पालन संघ का गठन किया गया और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के द्वारा १९४५ में पंजाब में मधुमक्खी पालन अनुसंधान केंद्र स्थापित किया गया था।[5] १९३१ में कोयंबतूर कृषि महाविद्यालय (वर्तमान तमिल नाडु कृषि विश्वविद्यालय) द्वारा मधुमक्खी पालन को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया।[6]
स्वतंत्रता के बाद
भारत में मधुमोम और प्राकृतिक शहद का वार्षिक उत्पादन (१९९३-२०१८) स्रोत: संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन[7] |
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10,000 20,000 30,000 40,000 50,000 60,000 70,000 1993 1994 1995 1996 1997 1998 1999 2000 2001 2002 2003 2004 2005 2006 2007 2008 2009 2010 2011 2012 2013 2014 2015 2016 2017 2018
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१९४७ में भारत की आजादी के बाद, मधुमक्खी पालन का महत्व जानते महात्मा गांधी ने इसे अपने ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में शामिल किया। प्रारंभ में, मधुमक्खी पालन उद्योग अखिल भारतीय खादी और ग्रामोद्योग बोर्ड (तत्कालीन) के अधीन था जिसे १९५६ में खादी विकास और ग्रामोद्योग आयोग (केवीआईसी) में परिवर्तित किया गया था, जो बदले में उद्योग मंत्रालय के अधीन था। १९६२ में केवीआईसी ने पुणे में केन्द्रीय मधुमक्खी अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान स्थापित किया। वाई एम सी ए और अन्य ईसाई मिशनरियों द्वारा केरल और तमिलनाडु के क्षेत्रों में रबड़ बागानों के साथ मधुमक्खी पालन को बढ़ावा दिया गया। कर्नाटक के कुर्ग और महाराष्ट्र के महाबलेश्वर में भी मधुमक्खी पालन का विकास हुआ। रामकृष्ण मिशन ने इसे पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों में बढ़ावा दिया। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने मधुमक्खी पालन पर अनुसंधान किया और एपिस मेलिफेरा प्रजाति को भारत में मधुमक्खी पालन हेतू बढ़ावा दिया।[8]
दशक १९९० के अन्तिम वर्षों में भारत में शहद की उपज काफी बढ़ी जिसमें ७०% शहद उत्पादन व्यावसाय के अनौपचारिक खंडों से आता है। शहद के प्रमुख निर्यातक के रूप में चीन, अर्जेंटीना, जर्मनी, हंगरी, मैक्सिको और स्पेन के पीछे भारत आता है। २००५ में, भारत के शहद निर्यात $२६॰४ मिलियन अमरीकी डॉलर के मूल्य पर पहुंच गया। ६६% निर्यात उत्तर अमेरिकी मुक्त व्यापारी देशों में होता है। यूरोपीय संघ द्वारा $६ मिलियन अमरीकी डॉलर के शहद का सेवन किया गया था जिसमें अनुमान लगाया है की जर्मनी का हिस्सा लगभग ७५% तक था। २००५ में, सऊदी अरब एकमात्र विकासशील देश था जो कि काफी हद तक ($22 लाख अमेरिकी डॉलर) भारतीय शहद का उपभोगता था। १९९६ में भारत का निर्यात काफी कम था; लगभग $१ मिलियन अमरीकी डॉलर तक।[9]
- नीली प्लास्टिक आवरण से ढंका टीअल वर्ण के काष्ठ सन्दूक। केरल के मधु-कृषकों द्वारा प्रयुक्त मधु-संग्रह सन्दूक।
- उदगमंदलम स्थित शहद एवं मक्खी संग्रहालय (हनी एण्ड बी म्यूज़ियम)
- ऊटी संग्रहालय में शहद खोजकों द्वारा प्रयोग की जाने वाली बांस की टोकरी
दक्षिणी भारत में तमिलनाडु के निलगिरी क्षेत्र में मधु संग्राहण करने वाली विभिन्न जनजातियों हैं। इसलिये, कोटागिरी स्थित कीस्टोन फाउंडेशन ने २००७ में मधुमक्खी पालन और तकनीकों को बढ़ावा देने के लिए तमिलनाडु के उदगमंदलम में शहद और मधुमक्खी संग्रहालय शुरू किया था।[10] इस समूह ने ऊटी में २०१५ में "ए प्लेस टू बी" नामक एक जलपान गृह भी खोला जो शहद से बने व्यंजनों में माहिर है।[11]
मधुमक्खियों के प्रकार
व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण ऐसी पाच मधुमक्खीयों की प्रजातियां भारत में हैं; एपिस डोरसॅटा (रॉक बी), एपिस सेराना इन्डिका (इंडियन हाइव बी), एपिस फ्लोरिया (ड्वार्फ बी), एपिस मेलिफेरा (यूरोपीय या इतालवी मधुमक्खी) और टेट्रागोनुला इरिडीपेनिस (डॅमर या स्टींगलेस बी)। एपिस डोरसॅटा मधुमक्खियां आक्रामक होती हैं और इनका पालन नहीं हो सकता। इसलिये जंगल से इनका शहद लिया जाता है। एपिस फ्लोरिया से शहद भी जंगल से लिया जात है क्योंकि ये घुमन्तु प्रजाति हैं और बहुत कम उपज देती हैं। समशीतोष्ण क्षेत्र की मूल निवासी एपिस सेराना और एपिस मेलिफेरा कृत्रिम मधुमक्खी बक्से में संवर्धन करने के लिए योग्य हैं। टेट्रागोनुला इरिडीपेनिस मधुमक्खियों का पालन किया जा सकता है और ये विभिन्न फसलों के परागण में महत्वपूर्ण कारक हैं लेकिन शहद की कम उपज देती हैं।[12]
मधुमक्खी | उपज |
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एपिस डोरसॅटा | 36 किलोग्राम (1,300 औंस) |
एपिस सेराना इन्डिका | 6 किलोग्राम (210 औंस) to 8 किलोग्राम (280 औंस) |
एपिस फ्लोरिया | 500 ग्राम (18 औंस) |
एपिस मेलिफेरा | 25 किलोग्राम (880 औंस) to 40 किलोग्राम (1,400 औंस) |
टेट्रागोनुला इरिडीपेनिस | 100 ग्राम (3.5 औंस) |
व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण पाच मधुमक्खीयों की प्रजातियां | ||||||||||
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सन्दर्भ
- ↑ घोश १९९४, पृ॰ xiii.
- ↑ अ आ घोश १९९४, पृ॰ ६.
- ↑ क्रेन २०१३, पृ॰प॰ ७३-७४.
- ↑ घोश १९९४, पृ॰ ५-६.
- ↑ राकेश कुमार गुप्ता; वीम रेब्रोक; जोहान वान वीन; अनूराधा गुप्ता (२०१४). Beekeeping for Poverty Alleviation and Livelihood Security: Vol. 1: Technological Aspects of Beekeeping [गरीबी उन्मूलन और आजीविका सुरक्षा के लिए मधुमक्खी पालन: खंड 1: मधुमक्खी पालन के तकनीकी पहलू] (अंग्रेज़ी में). Springer. पपृ॰ १४-१५. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9789401791991. मूल से 15 अगस्त 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 जुलाई 2017.
- ↑ घोश १९९४, पृ॰ १०.
- ↑ "Honey production: Browse data – FAOSTAT Domains /Production/Livestock Primary; Item: Honey, natural; Beeswax; Area: India; Year: as needed"". संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन, सांख्यिकी मंडल (FAOSTAT) (अंग्रेज़ी में). २०१३. मूल से 5 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ६ मई २०१६.
- ↑ घोश १९९४, पृ॰ ११-१२.
- ↑ "Trade Information Brief – Honey" [व्यापार सूचना संक्षिप्त - शहद] (PDF). SADC Trade (अंग्रेज़ी में). मूल (PDF) से 21 अप्रैल 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 6 May 2016.
- ↑ "Tourism – Honey & Bee Museum" [पर्यटन - शहद और मधुमक्खी संग्रहालय] (अंग्रेज़ी में). निलगिरी जिला प्रशासन. २५ फ़रवरी २०१५. मूल से 19 जुलाई 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ६ मई, २०१६.
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में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद) - ↑ शोनाली मुतलली (१० अक्तूबर २०१५). "A buzzworthy effort". द हिन्दू (अंग्रेज़ी में). मूल से 15 अगस्त 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ६ मई, २०१६.
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में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद) - ↑ अ आ "Types of honey bee" [मधुमक्खियों के प्रकार] (अंग्रेज़ी में). तमिल नाडु कृषि विश्वविद्यालय. मूल से 15 मई 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 May 2016.
ग्रन्थसूची
- क्रेन, इथेल (२०१३). The World History of Beekeeping and Honey Hunting [मधुमक्खी पालन और शहद की खोज का विश्व इतिहास] (अंग्रेज़ी में). रूटलेज. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9781136746697. मूल से 17 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 जुलाई 2017.
- घोश, जी॰ के॰ (१९९४). Beekeeping in India [भारत में मधुमक्खी पालन] (अंग्रेज़ी में). एपीएच प्रकाशन. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170246442. मूल से 17 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 जुलाई 2017.