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भारत की शिक्षा प्रणाली

भूगोल की शिक्षा

देखें मुख्य लेख भारत में भूगोल शिक्षा भारत में भूगोल की शिक्षा भिन्न भिन्न स्तरों में दी जाती है। यहाँ के प्राय: सभी विश्वविद्यालयों में उत्तरस्नातक वर्ग की शिक्षा दी जाती है।

भारत में भूगोल का अध्ययन बीसवीं सदी में ही विशेष रूप से प्रारंभ में हुआ और आज सैकड़ों भूगोलवेत्ता इसमें लगे हूए हैं। इनमें कुछ लोगों ने अपनी विद्वत्ता के कारण विश्व में ख्याति प्राप्त की है। अनेक विश्वविद्यालयों में इसके अध्ययन का आज समुचित प्रबंध है।

अनेक संस्थाएँ भूगोल के अध्ययन और शोध के लिये स्थापित हुई है और अनेक उत्कृष्ट कोटि की पत्रपत्रिकाएँ देश के विभिन्न भागों से प्रकाशित हो रही है। भूगोल के संबंध में प्रति वर्ष विभिन्न विश्वविद्यालयों में सम्मेलन भी होते रहे हैं जिनमें उच्च कोटि के मौलिक निबंध पढ़े जाते है। भौगोलिक अनुसंधान में भारत अब अन्य देशों से पिछड़ा नहीं है। मीरा गुहा, जी0 एस0 गोशल, यू0 सिंह, पी0 के0 सरकार, इत्यादि ने अपने क्षेत्रों में अग्रिम एवं असाधारण शोध किया है।

शिक्षा अनुसंधान

विद्यालय

तकनीकी शिक्षा संस्थान

विज्ञान शिक्षा संस्थान

प्रबंधन शिक्षा संस्थान

मेडिकल शिक्षण संस्थान

विश्वविद्यालय

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भारतीय शैक्षिक प्रशासन

किसी भी देश का शैक्षिक प्रशासन बहुधा उसके राष्ट्रीय हितों के अनुरूप सुनिर्देशित प्रयोजनों से संबद्ध होता है। ब्रिटिश शासन काल में भारत की शैक्षिक नीति एवं प्रशासन विदेशी सत्ता द्वारा संचालित होने के कारण राष्ट्रीय परंपराओं संस्कृति तथा देशवासियों की आवश्यकताओं के अनुकूल न था।

भारत सरकार का शैक्षिक प्रशासन, १९१९ के अधिनियम से पूर्व पूर्णत: केंद्रीकृत था। इस अधिनियम से आंशिक प्रादेशिक स्वायता प्रदान की गई और तदुपरांत शिक्षा प्रादेशिक मंत्रालयों के अधीन एक अंतरित विषय बन गई। समुचित समन्वय के अभाव में वित्तीय कठिनाइयों के साथ ही इससे प्रादेशिकता की भावना जाग्रत हुई। महत्वपूर्ण विषयों पर सलाह देने के लिये एक केंद्रीय शिक्षा सलाहकार मंडल की स्थापना १९२१ में की गई, पर दो वर्ष उपरांत इसे भंग कर दिया गया। किंतु १९३५ में इसकी पुन: स्थापना हुई। भारतीय शैक्षिक सेवा में भर्ती १८९६ में प्रारंभ की गई थी किंतु १९२४ में इसे स्थगित कर दिया गया। भारत सरकार के १९३५ के अधिनियम ने राज्यों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की और इसके फलस्वरूप भारतीय शिक्षा मंत्री अधिक अधिकार-संपन्न हो गए। १९४५ से भारत सरकार में शिक्षा के लिए पृथक् विभाग की स्थापना की गई और १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत मौलाना अबुल कलाम अजाद के मंत्रित्व में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की स्थापना हुई।

भारतीय संविधान के निर्माण के समय सन् १९४४ से शिक्षा तथा विश्वविद्यालय राज्य सूची के अंतर्गत रखे गए। केंद्र की गतिविधियों का केंद्रीय विश्वविद्यालयों तथा राष्ट्रीय महत्व की वैज्ञानिक और प्राविधिक शिक्षण संस्थाओं के परस्पर समन्वय तथा उच्च शिक्षा अथवा अनुसंधान एवं वैज्ञानिक और प्राविधिक संस्थाओं के मानकों के संकल्प तक सीमित कर दिया गया। व्यावसायिक तथा श्रमिकों को प्राविधिक शिक्षण केंद्र तथा राज्यों की समवर्ती सूची में रखा गया।

यह अनुभव किया जाता है कि इस नवीन प्रजातंत्र में शैक्षिक प्रशासन का मुख्य कार्य शिक्षा को मानवीय रूप देना एवं जनता को प्रजातांत्रिक विधियों एवं स्थितियों में प्रशिक्षित करना है। नए शिक्षकों तथा निरीक्षण अधिकारियों को ऐसी विशिष्ट दृष्टि से संपन्न करना है, जिससे कि वे सत्ता की धाक जमाए बिना ही शिक्षार्थियों को प्रेरित कर सकें। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत देश की परिवर्तित परिस्थतियों के अनुकूल शैक्षिक प्रशासन के सुधार की ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा सका।

वर्तमान काल में राज्यों में शिक्षा की व्यवस्था राज्य के शिक्षा निदेशक की अध्यक्षता में की जाती है, जिसके अधीन अनेक उपनिदेशक एवं सहायक होते हैं। राज्य अनेक मंडलों अथवा अंचलों में विभक्त होता है, प्रत्येक मंडल के अंतर्गत अनेक जिले होते हैं। प्रत्येक मंडल एक निरीक्षक के अधीन तथा हर जिला स्कूल निरीक्षक के अधीन होता है।

इससे निम्न स्तर पर नागरिक तथा ग्रामीण क्षेत्रों में प्राय: प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था स्थानीय निकायों द्वारा की जाती है। पंचायती राज्य के प्रादुर्भाव तथा प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण के कारण इन निकायों का विशेष महत्व है।

विविध स्तरों पर शिक्षण संस्थाओं के नियंत्रण तथा प्रशासन में प्रवृत स्वैच्छिक अभिकरण भी इस प्रसंग में उल्लेखनीय हैं। सरकारी प्रशासन इन अभिकरणों को मान्यता प्रदान कर अथवा वित्तीय सहायता देकर इन पर नियंत्रण रखता है।

केंद्रीय शिक्षामंत्री राज्यों के शैक्षिक प्रशासन पर परोक्ष रूप से नियंत्रण रखता है। वह समन्वय स्थपना तथा स्तरों में सुधार के अतिरिक्त अन्य विषयों से संबंधित निर्देश नहीं देता। किंतु केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड तथा भारतीय प्राविधिक शिक्षा परिषद् तथा अन्य समानांतर निकायों के अध्यक्ष के नाते वह इन निकायों के राज्यप्रतिनिधि शिक्षा मंत्रियों को रष्ट्रीय शिक्षानीति में एकरूपता की स्थापना के लिये अवश्य प्रभावित करता है।

सर्व शिक्षा अभियान

भारत में "सर्व शिक्षा अभियान: शिक्षा के क्षेत्र में एक बहुत ही बड़ा और सराहनीय अभियान हैं। भारत सरकार का ये अभियान देश के हर एक बच्चे चाहे वो किसी भी धर्म और जाति का हो उसके शिक्षा के लिए काम करती हैं, और इस अभियान में बहुत से शिक्षा मित्रों की नियुक्ति भी की गई है जो बच्चों को शिक्षा देने में मदद करेंगे, लेकिन क्या ये अभियान आज की तारीख में पूरी तरह सफल हैं ? क्या हिन्दुस्तान का हर एक बच्चा स्कूल जाता हैं ? क्या हिन्दुस्तान के शिक्षा मित्र बच्चो को शिक्षा दिलाने का कार्य कर पा रहें हैं ? क्या उन बच्चो तक शिक्षा प्राप्ति का सामान जैसे कॉपी, किताब, पेंसिल, बैग आदि पहुँच पा रहा हैं ?

शायद नहीं क्योकि बीते 11 मार्च 2018 एवं 18 मार्च 2018 को मैं "राहुल श्रीवास्तव" औऱ मेरे कुछ साथियों ने एक सर्वे किया कि क्या सच में सर्व शिक्षा अभियान हिन्दुस्तान में काम करते हैं या सिर्फ कागजों में बंद हैं, तो हमने पाया की शिक्षा के नाम पे भी देश में भ्रस्टाचार फ़ैला हुवा हैं, अमीरों के बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा औऱ गरीबो के बच्चों के लिए अशिक्षा, बेसिक शिक्षा अधिकारी ओर उनकी टीम किसी तरह का कोई सर्वे नहीं करते की बच्चे आखिर स्कूल क्यों नहीं जा पा रहे है क्या कारण हो सकता हैं, बस अपने अपने कार्यालय में बैठे कुर्सियां तोड़ते हैं, सड़क पे भीख माँगने वाले बच्चे, बाल मजदूरी करने वाले बच्चे स्कूल बिलकुल भी नहीं जाते है क्योकि उनके माँ बाप को इस तरह के अभियान के बारे में पता तक नहीं हैं क्योकि वो खुद अशिक्षित हैं लेकिन उन्हें इन सबके बारे में बताएगा कौन ? बेसिक शिक्षा अधिकारियो का ये कर्त्तव्य बनता है की हर एक गरीब के घर, झुग्गियों में जाके बच्चों के माँ बाप को सर्व शिक्षा अभियान के बारे में अवगत कराये ताकि उनके बच्चों के भविष्य में सुधार आए, और देश के हर एक शिक्षित व्यक्ति की भी ये जिम्मेदारी बनती है की गरीबों और उनके बच्चों को उनका अधिकार दिलाने में मदद करें।

केरल का एक प्राथमिक विद्यालय

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ