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बोधिचित्त

बौद्ध धर्म में, बोधिचित्त वह चित्त (मन) है जो सभी सत्वों के लाभ के लिए मुक्ति, सहानुभूति, करुणा और ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है। बोधिचित्त का अर्थ "जागृत मन" या "ज्ञानोदित मन" के रूप में किया जा सकता है। 'बुद्धो भवेयं जगतो हिताय' (अर्थात् सभी प्राणियों को दुःखों से मुक्त करने के लिए मैं बुद्धत्व प्राप्त करूँगा) - ऐसी अकृत्रिम अभिलाषा 'बोधिचित्त' कहलाती है। बोधिसत्व वे होते हैं जो बोधिचित्त युक्त होते हैं, अर्थात् जिनका हृदय पूरी तरह दूसरों के प्रति और जितना अधिक हो सके दूसरों का हित करने के उद्देश्य से ज्ञानोदय प्राप्ति के लिए समर्पित होता है।

बोधिचित्त ही महायान में प्रवेश का द्वार है। बोधिचित्त के उत्पन्न होने पर व्यक्ति महायान और बोधिसत्त्व कहलाने लगता है तथा बोधिचित्त से भ्रष्ट होने पर महायान से च्युत हो जाता है। इस प्रकार महायान के अनुसार बुद्धत्व साध्य नहीं, अपितु साधनमात्र है। साध्य तो समस्त प्राणियों की दु:खों से मुक्ति ही है।

बोधिचित्त भी द्विविध होता है- प्रणिधि और प्रस्थान। ऊपर जो बुद्धत्व प्राप्ति की अकृत्रिम अभिलाषा को बोधिचित्त कहा गया है, वह 'प्रणिधि-बोधिचित्त' है। इसके उत्पन्न हो जाने पर साधक महायान-संवर ग्रहण करके ब्रह्मविहार, संग्रहवस्तु एवं पारमिता आदि की साधना में प्रवृत्त होता है, यह 'प्रस्थान-बोधिचित्त' कहलाता है। शास्त्रों में प्रणिधि-बोधिचित्त का भी विपुल फल और महती अनुशंसा वर्णित है।