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बैराठ

बैराठ राजस्थान की राजधानी जयपुर से लगभग 85 किलोमीटर दूर स्थित है। प्राचीन ग्रंथों में इसका नाम विराटनगर मिलता है। यह प्राचीन मत्स्य प्रदेश की राजधानी था।

बैराठ का क्षेत्र लगभग 8 किमी लंबाई तथा 5 किमी चौड़ाई में फैला है। यह आसपास में पहाड़ियो से घिरा है। कस्बे के चारों ओर टीले ही टीले हैं। इन टीलों में पुरातत्व की दृष्टि से बीजक की पहाड़ी, भीमजी की डूंगरी तथा महादेव जी की डूंगरी अधिक महत्वपूर्ण है। यह स्थान मौर्यकालीन तथा उसके पीछे के काल के अवशेष का प्रतीक है, किंतु खुदाई से प्राप्त सामग्री से यह अनुमान लगाया जाता है कि यह क्षेत्र सिंधु घाटी सभ्यता के प्रागैतिहासिक काल का समकालीन है।

बैराठ का उत्खनन:
  • 1936 में दयाराम साहनी द्वारा
  • 1962-63 में नीलरत्न बनर्जी और कैलाश नाथ दीक्षित द्वारा

वैसे यहां पर मौर्यकालीन अवशेषों के अलावा मध्यकालीन अवशेष भी मिले हैं। यहाँ की बीजक डूँगरी से कैप्टन बर्ट ने अशोक का ‘भाब्रू शिलालेख’ खोजा था। इनके अतिरिक्त यहाँ से बौद्ध स्तूप, बौद्ध मंदिर (गोल मंदिर) और अशोक स्तंभ के साक्ष्य मिले हैं। ये सभी अवशेष मौर्ययुगीन हैं। ऐसा माना जाता है कि हूण आक्रान्ता मिहिरकुल ने बैराठ का विध्वंस कर दिया था। चीनी यात्री युवानच्वांग ने भी अपने यात्रा वृत्तान्त में बैराठ का उल्लेख किया है। विराटनगर नाम से प्राय: लोगों को भ्रम हो जाता है। विराटनगर नामक एक क़स्बा नेपाल की सीमा में भी है। किन्तु नेपाल का विराट नगर, महाभारत कालीन विराटनगर नहीं है। महाभारतकालीन गौरव में आराध्यदेव भगवान श्री केशवराय का मंदिर,जिसमे 3 ही कृष्ण एवम् 3 ही विष्णु की प्रतिमाये स्थित है। 64 खम्बे व108 टोड़ी है। ये केशवराय मंदिर विश्व दर्शन के लिए महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है।इस सम्बन्ध विराटनगर पौराणिक, प्रगेतिहासिक, महाभारतकालीन तथा गुप्तकालीन ही नहीं मुगलकालीन महत्वपूर्ण घटनाओ को भी अपने में समेटे हुए, राजस्थान के जयपुर और अलवर जिले की सीमा पर स्थित है विराटनगर में पौराणिक शक्तिपीठ, गुहा चित्रों के अवशेष, बोद्ध माथों के भग्नावशेष, अशोक का शिला लेख और मुगलकालीन भवन विद्यमान है। अनेक जलाशय और कुंड इस क्षेत्र की शोभा बढा रहे हैं। प्राकर्तिक शोभा से प्रान्त परिपूर्ण है। विराटनगर के निकट सरिस्का राष्ट्रीय व्याघ्र अभ्यारण, भर्तृहरी का तपोवन, पाण्डुपोल नाल्देश्वर और सिलिसेढ़ जैसे रमणीय तथा दर्शनीय स्थल लाखों श्रद्धालुओं और पर्यटकों को आकर्षित करते है। यहाँ के दर्शय दर्शनीय स्थलो में प्रसिद्ध श्रीकेश्वराय मंदिर नगर के मध्य आकर्षक का केंद्र है। जिसमे भगवान केशव एवम् विष्णु के साथ कोई देवी (शक्ति) नहीं है। भगवान केशव का जो रूप महाभारत में था। उसी स्वरूप में भगवन श्रीकृष्ण का मंदिर दर्शनीय है। जो विराटनगर पर्यटन नगरी में सुविख्यात है।

ईंटों का ही अधिक प्रयोग

यह कारण अभी समझ में नहीं आया है कि बैराठ के आसपास पत्थरों की कमी नहीं है, फिर भी भवन निर्माण के लिए मिट्टी से पकाई गई ईंटों का ही अधिक प्रयोग किया गया है। मठों, स्तूपों, मंदिरों, मकानों तथा चबूतरों आदि सभी के निर्माण के लिए मिट्टी की ईंटों का ही प्रयोग किया गया है। यद्यपि यहां के आसपास के लोग अपने नए मकान के निर्माण के लिए यहां की अधिकांष ईंटें निकाल कर ले गए फिर भी बहुत-सी ईंटें बच गई। प्राप्त ईंटों में अधिकतर 20 x 10.5 x 3 इंच और 21 x 13 x 3 इंच के आकार की है। फर्श बिछाने के लिए उपयोग में लाई गई टाइलों का आकार बड़ा अर्थात 26 x 26 इंच के आकार का है। इन ईंटों की बनावट मोहनजोदड़ो में मिली ईंटों के समान है। शायद इन ईंटों का प्रयोग बौद्ध मठ के निर्माण के लिए किया गया होगा। यहां एक खंडहरनुमा भवन मिला है जिसमें 6-7 छोटे कमरे हैं। ये ईंटें इसी भवन के आसपास बिखरी मिली है। विद्वानों के अनुसार यह खंडहर किसी बौद्ध मठ का है। खंडहर की दीवारें 20 इंच मोटी है तथा कमरों में आने जाने का मार्ग अत्यंत संकड़ा है। खंडहर के अवशेष गोदाम तथा चबूतरों के अस्तित्व की और संकेत करते हैं।

यूनानी मुद्राएं

कमरों के उत्खनन से प्राप्त होने वाली सामग्री में मुद्राएं काफी महत्वपूर्ण है। यहां कुल 36 मुद्राएं मिली है। ये मिट्टी के भांड में कपड़े से बंधी हुई प्राप्त हुई है। इनमें से 8 पंचमार्क चांदी की मुद्राएं हैं तथा 28 इंडो ग्रीक व यूनानी शासकों की मुद्राएं हैं। बौद्ध मठ से मुद्राएं प्राप्त होना आश्चर्यजनक है किंतु यह अनुमान लगाया जाता है कि ये किसी भिक्षु ने छुपा कर रखी होगी। ये मुद्राएं यह प्रमाणित करती है कि यहां यूनानी शासकों का अधिकार था। 16 मुद्राएं यूनानी राजा मिनेंडर की हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि 50 ई. तक बैराठ बौद्धों का निवास स्थली रहा होगा। पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार बैराठ के बौद्धमठ से प्राप्त सामग्री लगभग 250 ई. पू. से 50 ई. पू. तक के समय की है।

मठ के खंडहर की खुदाई से प्राप्त अन्य वस्तुएं

कपड़ा

जिस कपड़े मे मुद्राएं बंधी मिली थी वह एक सूती (रूई से बना) कपड़ा है जिसे हाथ से बुना गया होगा।

मृदभांड व मृद कृतियां

यहां मृदभांड भी मिले हैं जो काफी अलंकृत है। कुछ पर रोचक ढंग से स्वास्तिक और त्रिरत्न के चिह्न हैं। ये बर्तन देखने में अत्यंत आकर्षक लगते हैं। यहां मिट्टी से बनी कई वस्तुएं मिली है जिनमें पूजापात्र, थालियां, लोटे, मटके, घड़े, खप्पर, नाचते हुए पक्षी, कुंडियां आदि हैं।

औजार

यहां लौहे व तांबे की कृतियां तो नहीं मिली हैं किंतु इन्हें बनाने के औजार अवश्य मिले हैं।


अशोक स्तंभ

बौद्धमठ के दक्षिण में बिखरे पड़े चुनाई के पालिशदार पत्थरों से यह पुष्टि होती है कि यहां किसी समय दो या तीन स्तंभ रहे होंगे, जिन्हें बहुत से विद्वान अशोक स्तंभ मानते हैं क्योंकि कई टुकड़ों में सिंह की आकृति के भाग हैं। इनके टुकड़े कैसे हुए होंगे, इस पर विद्वान मानते हैं कि 510-540 ई. के मध्य मिहिरकुल के आक्रमणों से इन्हें क्षति हुई होगी। आराध्यदेव श्रीकेशवराय मंदिर संपादित करें महाभारतकालीन गौरव में आराध्यदेव भगवान श्री केशवराय का मंदिर,जिसमे 3 ही कृष्ण एवम् 3 ही विष्णु की प्रतिमाये स्थित है। 64 खम्बे व108 टोड़ी है। ये केशवराय मंदिर विश्व दर्शन के लिए महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है।इस सम्बन्ध विराटनगर पौराणिक, प्रगेतिहासिक, महाभारतकालीन तथा गुप्तकालीन ही नहीं मुगलकालीन महत्वपूर्ण घटनाओ को भी अपने में समेटे हुए, राजस्थान के जयपुर और अलवर जिले की सीमा पर स्थित है विराटनगर में पौराणिक शक्तिपीठ, गुहा चित्रों के अवशेष, बोद्ध माथों के भग्नावशेष, अशोक का शिला लेख और मुगलकालीन भवन विद्यमान है। अनेक जलाशय और कुंड इस क्षेत्र की शोभा बढा रहे हैं। प्राकर्तिक शोभा से प्रान्त परिपूर्ण है। विराटनगर के निकट सरिस्का राष्ट्रीय व्याघ्र अभ्यारण, भर्तृहरी का तपोवन, पाण्डुपोल नाल्देश्वर और सिलिसेढ़ जैसे रमणीय तथा दर्शनीय स्थल लाखों श्रद्धालुओं और पर्यटकों को आकर्षित करते है। यहाँ के दर्शय दर्शनीय स्थलो में प्रसिद्ध श्रीकेश्वराय मंदिर नगर के मध्य आकर्षक का केंद्र है। जिसमे भगवान केशव एवम् विष्णु के साथ कोई देवी (शक्ति) नहीं है। भगवान केशव का जो रूप महाभारत में था। उसी स्वरूप में भगवन श्रीकृष्ण का मंदिर दर्शनीय है। जो विराटनगर पर्यटन नगरी में सुविख्यात है।

गोल मंदिर

यहां एक गोल मंदिर के भी अवशेष मिले हैं। विद्वान मानते हैं कि इसका निर्माण अशोक ने करवाया था। मंदिर की फर्श ईंटों की रही होगी तथा द्वार पर लकड़ी के दरवाजे लगे होंगे। इन दरवाजों को लौहे की बड़ी कीलियों तथा कब्जों से टिकाया जाता होगा। मंदिर के उत्खनन से पूजापात्र, थालियां,घड़े, खप्पर, नाचते हुए पक्षी, धूपदान आदि मिले हैं।

सन्दर्भ