बारूद
बारूद एक विस्फोटक रासायनिक मिश्रण है। इसे गन पाउडर (gunpowder) या अपने काले रंग के कारण काला पाउडर (black powder) भी कहते हैं। बारूद गंधक, कोयला एवं शोरा (पोटैसिअम नाइट्रेट या साल्टपीटर) का मिश्रण होता है और यह मानव इतिहास का सर्वप्रथम निर्मित विस्फोटक था। बारूद का प्रयोग पटाखों एवं नोदक (प्रोपेलन्ट) के रूप में अग्निशस्त्रों (firearms) में किया जाता है। बारूद चिंगारी पाकर तेजी से जलता है जिससे भारी मात्रा में गैस एवं गरम ठोस पैदा होता है।[1]
आधुनिक काल में बारूद एक "कमजोर विस्फोटक" (low explosive) के रूप में जाना जाता है क्योंकि विस्फोट होने पर यह अपश्रव्य तरंगें (subsonic) पैदा करता है न कि पराश्रव्य तरंगें (supersonic)। इसलिये बारूद के जलने से उत्पन्न गैसे इतना ही दाब पैदा कर पाती हैं जो गोली को आगे फेंकने में सहायक होती है किन्तु बन्दूक की नली को क्षति नहीं पहुंचा पाती। किसी चट्टान के विध्वंस या किसी किले को तोडने के लिये बारूद का प्रयोग उपयुक्त नहीं होता बल्कि इनके लिये "टी एन टी" आदि अच्छे रहते हैं।
वर्तमान समय में बारूद के मानक मिश्रण में ७५% शोरा, १५% कोमल लकड़ी का कोयला तथा १०% गंधक होता है।
इतिहास
इसका आविष्कार कब हुआ, इसका ठीक ठीक पता नहीं लगता, पर ऐसा मालूम होता है कि ईसा के पूर्व काल में चीनियों को बारूद की जानकारी थी। रौजर बेकन (1214-1294) के लेखों में बारूद का उल्लेख मिलता है, पर प्रतीत होता है कि बारूद के प्रणोदक गुणों का उनको पता नहीं था1 बेकन के समय तक बारूद का एक आवश्यक अवयव शोरा शुद्ध रूप में प्राप्य नहीं था। 13वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के शस्त्रों में प्रक्षेप्य फेंकने में इसके प्रयोग का पता लगता है। बेकन ने जिस बारूद का उल्लेख किया है उसमें शोरा 41.2 और कोयला तथा गंधक प्रत्येक 29.4 प्रतिशत मात्रा में रहते थे। ऐसे बारूद की प्रबलता निकृष्ट कोटि की होती थी। बाद में बारूद के अवयवों में शोरा, कोयला और गंधक का अनुपात क्रमश: 74.64, 13.51 और 11.85 प्रतिशत कर दिया गया।
बारूद में इन तीनों अवयवों का चूर्ण रहता है। यह चूर्ण प्रारंभ में हाथ में पीसकर बनाया जाता था, पर बाद में दलनेवाली मशीन का प्रयोग शुरू हुआ। ये मशीनें घोड़ों या पानी से चलती थीं। इनके स्थान पर बाद में स्टैंपिग मशीन का उपयोग शुरू हुआ, पर यह निरापद नहीं था। पहले जो चूर्ण बनते थे वे तीनों अवयवों के चूर्णों को मिलाकर बनते थे। ऐसे चूरे को तोपों में भली भाँति न तो बहुत कसा जा सकता था ओर न ढीला ही छोड़ा जा सकता था। इस कठिनता को दूर करने के लिए 15वीं शताब्दी में चूरे को दानेदार रूप में प्राप्त करने का प्रयत्न हुआ। चूरे में ऐलकोहल, या मूत्र, मिलाकर उसे दानेदार बनाया जाता था। मद्यसेवी का मूत्र इसके लिए सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था। इससे बने दाने अधिक शक्तिशाली होते थे। दाने विभिन्न आकार के होते थे और चालकर उन्हें अलग अलग किया जाता था। बड़े दाने तोपों में और छोटे दाने बंदूकों में इस्तेमाल होते थे।
पीछे अवयवों को शुद्ध रूप में प्राप्त कर उनसे बारूद बनाने में और उन्हें दानेदार बनाने में विशेष सुधार हुआ। अच्छा कोयला भी अब बनने लगा था। उसे भूरा या कोको कोयला कहते थे और यह राई (rye) नामक अनाज के पुआल से बनाया जाता था। पर एतदर्थ पुआल को पूरा पूरा तपाते नहीं थे। सामान्य बारूद में अवयवों का अनुपात निम्नलिखित रखते थे। शोरा 75 प्रतिशत, कोयला 15 प्रतिशत और गंधक 10 प्रतिशत। नए मिश्रण में इनकी आपेक्षिक मात्रा क्रमश: 80, 16, 3 रहती थी तथा एक भाग जल का भी रहता था। ऐसा बारूद बहुत सफल सिद्ध हुआ।
स्टैंपिंग मशीन के उपयोग में, जैसा ऊपर कहा गया है, खतरे का भय था। इसके स्थान में चक्र या ह्वील मिल (Wheel Mill) का प्रयोग शरू हुआ। आजकल भी चक्र या ह्वील मिल का उन्नत रूप ही प्रयुक्त होता है। इसमें एक क्षैतिज ईषा (shaft) रहती है, जो ऊर्ध्वाधर स्पिंडल (spindle) के घूमने से घूमती है। स्पिंडल में लोहे के दो भारी चक्र जुड़े रहते हैं, जिनका भार 10 से 12 टन तक और व्यास छह फुट होता है। एक बार में लगभग 300 पाउंड द्रव्य पीसा जाता है। पानी डालकर उसे गीला रखते हैं। पिसाई चार से लेकर पाँच घंटे में संपन्न होती है। फिर वह दबाया जाता है। प्रति वर्ग इंच पर 3,000 से 4,000 पाउंड दबाव रहता है। ऐसे उत्पाद का घनत्व 1.74 से 1.80 तक होता है। इसे फिर तोड़कर विभिन्न विस्तार के दाने प्राप्त करते हैं। इस विधि में समय कुछ अधिक लगता था। अत: अब इसमें कुछ और सुधार किया गया है। दो लोहे के कक्ष, ड्रम के आकार के रहते हैं। एक में शोरा गंधक और दूसरे में कोयला गंधक काँसे की गेंदों के द्वारा पीसा जाता है। चार घंटे में विभिन्न अवयव पूर्ण रूप से चूर्ण हो जाते हैं। दोनों कक्षों से चूर्ण को निकालकर, तीसरे ताँबे के ड्रम में रखकर, काष्ठ की गेंदों से दो घंटे तक पीसते हैं, जिसमें एकसम चूर्ण बन जाता है। इस विधि को बेलननाल (rolling barrel) विधि कहते हैं।
इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
सन्दर्भ
- ↑ Jai Prakash Agrawal (2010). High Energy Materials: Propellants, Explosives and Pyrotechnics. Wiley-VCH. p. 69. ISBN 978-3-527-32610-5.