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बायना

बायना भारत के गाँवों में प्रचलित एक प्रथा है। एक घर में बने अथवा रिश्तेदारों के यहां से आए पकवानों को कई घरों में बांटने को बायना कहा जाता है।

बायना : सामूहिकता का सूत्र

प्रकृति, पशु-पक्षी, रीति-रिवाज, जीवन मूल्य, पर्व-त्योहार और नाते-रिश्तों से हमारा विविध रूप रंग-रस व गंध का सरोकार रहता है। हमारी प्रकृति व संस्कृति परस्पर पूरक हैं, परस्पर निर्भरता ही ष्मा लगातार कम हो रही है। यह कमी कहीं न कहीं हमारे मन को कचोटती है।

पहले पूरा गांव एक सूत्र में बंधा होता था। घरों के बीच आदान-प्रदान भी सामूहिकता के सूत्र ही होते थे। कृषि प्रधान समाज में भिन्न-भिन्न प्रकार की फसलें उगाई जाती थीं। किसी-किसी परिवार में कोई-कोई फसल नहीं उगती। वह परिवार बाजार से नहीं खरीदता। उसे मालूम होता था कि उसी गांव में कई परिवारों में वह अन्न बहुतायत मात्रा में उपजाया गया होता था। वह अपने घर से दूसरा अन्न देकर अपनी जरूरत का अन्न ले आता। इसे 'बदलैन' कहते थे। कई बार तो अगले साल उसी अन्न को उपजाकर वापस करने का विश्वास दिलाकर भी अपनी जरूरत का अन्न उधार ले आया जाता था।

गांव स्वनिर्भर होता था। बाजार ही नहीं था। गांव की सामूहिकता बरकरार रखने में पर्व त्योहारों का योगदान था ही। रस्म-रिवाजों को भी श्रेय जाता था। रस्म रिवाजों में ही एक, रिवाज 'बायना' थी। एक घर में बने अथवा रिश्तेदारों के यहां से आए पकवानों को कई घरों में बांटने को बायना कहा जाता था।

विभिन्न रूप

'बायना' के कई रूप थे। उत्तर प्रदेश, राजस्थान तथा पश्चिमी राज्यों में करवा चौथ या अन्य चौथ, अहोई अष्टमी, हरितालिका, दीवाली, होली पर 'बायना' निकाला जाता है। जिसमें पूरी, पूए, साड़ी, बर्तन कुछ भी होते हैं। बड़े-बुजुर्गों और सास-ननद के लिए बने और उन्हें आदर के साथ भेंट किए खाद्य पदार्थों को 'बायना' कहा जाता है। सास-बहू के बीच प्रेम संबंध बनाए रखने में 'बायना' का विशेष योगदान होता है। सास को बहू द्वारा 'बायना' मिलने की प्रतीक्षा रहती है। बायना मिलने पर गिले-शिकवे भी मिट जाते हैं।

बिहार में बायना का अर्थ पर्व त्योहार के अवसर पर बने पकवानों का वितरण होता है। कृषि प्रधान समाज में रिश्तेदारियों से 'संदेश' (टोकरा भर कर मिठाइयां और फल) आने का भी रिवाज था। इतनी सामग्रियां आती थीं कि पूरा परिवार भी नहीं खा सकता था। अधिक सामग्री गांव में बांटने के लिए ही भेजी जाती थी। संदेश आने पर घर की महिलाओं का एक विशेष कार्य हो जाता। हर घर के लिए थोड़ा-थोड़ा निकालकर सजाना और भेजना। इस 'बायना' बांटने में आपसी लेन देन का भी ध्यान रखा जाता था। जिस घर से जितनी पूरियां आईं होतीं, उस घर में उतनी हीं भेजी जातीं। घर की बड़ी-बुजुर्ग महिलाएं घर-घर से आए बायना का हिसाब रखती थीं।

वितरण

बायना बांटे कौन? घरों में काम करने वाली बाइयां या नाइन यह काम करती थीं। उनके साथ घर की बेटियां भी जाती थीं। दूसरे घरों में जाने पर उनकी विशेष पहचान बनती थी। बिहार की पहचान- 'छठ पर्व' (सूर्य पूजा) पर गाए जाने वाले एक गीत की पंक्ति है- बायना बांटेला बेटी मांगीले। बेटा तो चाहिए ही, परंतु एक विशेष कार्य के लिए बेटी भी चाहिए। वह बायना बांटेगी। बायना बांटने जाने वाली बेटियों से दूसरे घरों में रहने वाली महिलाएं परिवार तथा बाहर गए बेटों विवाहित बेटियों के ससुराल का भी हाल-समाचार पूछ लेती थीं। इस प्रकार एक-दूसरे परिवार के सुख-दु:ख, बाल-बच्चों की जानकारियां मिलती थीं। सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि घर आए 'बायना' को बड़े प्रेम से ग्रहण किए जाने पर भी मचलते बच्चों को खाने के लिए तब तक नहीं दिया जाता जब तक कोई बड़ी-बूढ़ी महिला उसे चख न ले। कारण पूछने पर दादी ने बताया था- क्या पता किस नजर से किसी ने देखा हो इसे। भोज्य पदार्थ द्वारा भी नजर लग जाती है। खराब खाना भी हो सकता है। यानी कि गांवों की सामूहिकता में भी शक की गुंजाइश तो थी ही।

'बायना' का निरीक्षण होता। उसके स्वाद की समीक्षा होती। खराब तेल में बनी पूड़ियों और कम दूध में बनी खीर की शिकायत भी होती। पर 'बायना' तो बायना होता था। उसका विशेष स्वाद होता था। घर की बहू-बेटियों के भोजन बनाने की योग्यता और कला की पहचान भी।


जिन घरों में त्योहार होता था, उनमें भी आपस में खाद्य पदार्थों और फलों का आदान प्रदान होता था। दूसरे गांवों (रिश्तेदारों) से आई सामग्रियों के स्वाद से उन घरों में खाए जाने वाले पदार्थों की गुणवत्ता की पहचान होती। गांव में चर्चा होती।

'बायना' के माध्यम से एक दूसरे के चौके-चूल्हे का स्वाद मालूम होता।

किसी के घर संदेश आने पर गांव के लोगों को भी 'बायना' का इंतजार रहता। कभी-कभी 'बायना' लौटा भी दिया जाता था। इससे पता चलता कि लौटाने वाला परिवार भेजने वाले परिवार से नाराज है। उनका मान मनौवल होता। कभी-कभी 'बायना' न आने पर भी लोग नाराज हो जाते।


सन्दर्भ