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बलुआ पत्थर

बलुआ पत्थर का शैल

बालुकाश्म या बलुआ पत्थर (सैण्डस्टोन) ऐसी दृढ़ शिला है जो मुख्यतया बालू के कणों का दबाव पाकर जम जाने से बनती है और किसी योजक पदार्थ से जुड़ी होती है। बालू के समान इसकी रचना में भी अनेक पदार्थ विभिन्न मात्रा में हो सकते हैं, किंतु इसमें अधिकांश स्फटिक ही होता है। जिस शिला में बालू के बहुत बड़े बड़े दाने मिलते हैं, उसे मिश्रपिंडाश्म और जिसमें छोटे छोटे दाने होते हैं उसे बालुमय शैल या मृण्मय शैल कहते हैं।

परिचय

बलुआ पत्थर में वे ही धात्विक तत्व हाते हैं, जो बालू में। स्फटिक की बहुतायत होती है, जिसके साथ प्राय: फ़ेल्सपार तथा कभी-कभी श्वेत अभ्रक भी होता है। कभी कभी पत्थर की विभिन्न परतों के बीच में अभ्रक की तह सी जमी हुई मालूम पड़ती है। खान से पत्थर निकालने में इस तह का महत्वपूर्ण योगदान है। इसी के कारण पत्थर की पतली परतें निकाली जा सकती हैं, जो फर्श बनाने के काम आती हैं। योजक पदार्थ प्राय: बारीक कैल्सिडानी सिलिका होता है, किंतु कभी कभी मूल स्फटिक भी योजक का काम करता है। ऐसी दशा में शिला स्फटिक जैसी तैयार होती है। कैल्साइट, ग्लॉकोनाइट, लौह ऑक्साइड, कार्बनीय पदार्थ और अन्य अनेक प्रकार के पदार्थ भी जोड़ने का काम करते हैं, तथा अपना अपना विशिष्ट रंग प्रदान करते हैं, जैसे ग्लॉकोनाइट (glauconite) वाली शिलाएँ हरी और लोहेवाली लाल, भूरी या धूसर होती हैं। जब योजक पदार्थ चिकनी मिट्टी होता है, तब शिला प्राय: श्वेत या धूसर वर्ण की होती है और अत्यंत दृढ़ता से जमी हुई होती है।

२० गुना आवर्धित बलुआ पत्थर

शुद्ध बलुआ पत्थर में ९९% तक सिलिका हो सकता है। मुलायम पत्थर पीसकर बालू बनाने के काम आता है, किंतु जो बहुत दृढ़ता से पत्थर जमा होता है, उसकी ईंटें बना ली जाती हैं। यह भट्ठियों तथा अँगीठियों में अस्तर लगाने के काम आती हैं, क्योंकि सिलिका अत्यंत तापसह होता है। गैनिस्टर (ganister) शिला इसी प्रकार की होती है। अत्यंत दृढ़तापूर्वक जमे, कुछ कम शुद्ध पत्थर सिल, बट्टे और चक्कियाँ बनाने के काम आते हैं।

बलुआ पत्थर दानेदार और छिद्रल होता है, इसलिए इसपर अच्छी पॉलिश नहीं की जा सकती और न बारीक काम हो सकता है, पर मोटी गढ़ाई तथा कटाई साफ और सच्ची हो सकती है। इसलिए इमारतों में इसका बहुविध उपयोग होता है। आगरे का लाल पत्थर मुसलमानों के जमाने से ही महत्वपूर्ण इमारतों में लगाने के लिए दूर दूर तक भेजा जाता है। अब भी संगीन चिनाई में सफेद और लाल बलुआ पत्थर ही मुख्यतया प्रयुक्त होते हैं। ये प्राय: खानों से खोदकर और कभी कभी सुरंग लगाकर निकाले जाते हैं। पन्ना का सफेद पत्थर फर्शी चौकों के रूप में दूर दूर तक भेजा जाता है। इसके १०, १०, १२, १२ फुट तक के चौके निकाले जा सकते हैं। पतले चौके छत पर खपरैल की भाँति छाए जाते हैं। १० से १२ फुट पाट तक की छतों में इसकी धरनें भी रखी जाती हैं, किंतु छतों पर इस प्रकार इसका उपयोग, ढुलाई मँहगी होने के कारण, निकटस्थ क्षेत्रों तक ही सीमित है। जहाँ दूसरा अधिक कठोर पत्थर सुविधापूर्वक नहीं मिलता, वहाँ सड़कों के लिए और कंक्रीट के लिए इसकी गिट्टी भी बनाई जाती है।

ऐतिहासिक महत्व

एक बहुमुखी और टिकाऊ निर्माण सामग्री के रूप में बलुआ पत्थर का अत्यधिक ऐतिहासिक महत्व है। इसका उपयोग सहस्राब्दियों से चला आ रहा है, जिससे गीज़ा के ग्रेट स्फिंक्स और पेट्रा के प्राचीन शहर जैसी प्रतिष्ठित संरचनाओं को आकार मिला है। बलुआ पत्थर के स्थायित्व और नक्काशी में आसानी ने इसे जटिल मूर्तियों और विस्तृत वास्तुशिल्प अलंकरण के लिए एक पसंदीदा माध्यम बना दिया है, जिसका उदाहरण मध्यकालीन यूरोपीय कैथेड्रल और भारतीय मंदिरों में देखा जा सकता है। स्मिथसोनियन कैसल जैसे अमेरिकी स्थलों के चिकने अग्रभाग देश की स्थापत्य विरासत को आकार देने में इसकी भूमिका को उजागर करते हैं। निर्माण से परे, बलुआ पत्थर की तलछटी परतें जीवाश्मों को भी संरक्षित करती हैं, जो पृथ्वी के प्राचीन पारिस्थितिक तंत्र में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं। इस प्रकार, बलुआ पत्थर मानव रचनात्मकता और भूवैज्ञानिक इतिहास के प्रमाण के रूप में खड़ा है।[1] Archived 2023-12-18 at the वेबैक मशीन

छिद्रल होने से इसकी परतों में भूमिगत जल एकत्र हो जाता है, अत: ये महत्वपूर्ण जलस्त्रोत होती हैं।

प्राचीन  भारत के महान शासक अशोक मोर्य ने अपने अधिकांश शिलालेखो हेतु बलुआ पत्थर का ही उपयोग किया था।

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