बलि
बलि (sacrifice) के दो रूप हैं। वैदिक पंचमहायज्ञ के अंतर्गत जो भूतयज्ञ हैं, वे धर्मशास्त्र में बलि या बलिहरण या भूतबलि शब्द से अभिहित होते हैं। दूसरा पशु आदि का बलिदान है। विश्वदेव कर्म करने के समय जो अन्नभाग अलग रख लिया जाता है, वह प्रथमोक्त बलि है। यह अन्न भाग देवयज्ञ के लक्ष्यभूत देव के प्रति एवं जल , वृक्ष , गृहपशु तथा इंद्र आदि देवताओं के प्रति उत्सृष्ट (समर्पित) होता है। गृह्यसूत्रों में इस कर्म का सविस्तार प्रतिपादन है। बलि रूप अन्नभाग अग्नि में छोड़ा नहीं जाता, बल्कि भूमि में फेंक दिया जाता है। इस प्रक्षेप क्रिया के विषय में मतभेद है।
वैदिक परंपरा में पाशु बलि की प्रथा, जो 'अपनी पशुवादी प्रवृत्तियों के बलिदान' को संदर्भित करती है।[1]
स्मार्त पूजा में पूजोपकरण (जिससे देवता की पूजा की जाती है) भी बलि कहलाता है (बलि पूजोपहार: स्यात्)। यह बलि भी देव के पति उत्सृष्ट होती है।
देवता के उद्देश्य में छाग आदि पशुओं का जो हनन किया जाता है वह बलिदान कहलाता है (बलिउएतादृश उत्सर्ग योग्य पशु)। तंत्र आदि में महिष , छाग , गोधिका , शूकर , कृष्णसार, शरभ, हरि (वानर) आदि अनेक पशुओं को बलि के रूप में माना गया है। इक्षु, कूष्मांड आदि नानाविध उद्भिद् और फल भी बलिदान माने गए हैं।
बलि के विषय में अनेक विधिनिषेध हैं। बलि को बलिदानकाल में पूर्वाभिमुख रखना चाहिए और खंडधारी बलिदानकारी उत्तराभिमुख रहेगा - यह प्रसिद्ध नियम है। बलि योग्य पशु के भी अनेक स्वरूप लक्षण कहे गए हैं।
पंचमहायज्ञ के अंतर्गत बलि के कई अवांतर भेद कहे गए हैं - आवश्यक बलि, काम्यबलि आदि इस प्रसंग में ज्ञातव्य हैं। कई आचार्यों ने छागादि पशुओं के हनन को तामसपक्षीय कर्म [2] माना है, यद्यपि तंत्र में ऐसे वचन भी हैं जिनसे पशु बलिदान को सात्विक भी माना गया है। कुछ ऐसी पूजाएँ हैं जिनमें पशु बलिदान अवश्य अनुष्ठेय होता है।
वीरतंत्र, भावचूड़ामणि, यामल, तंत्रचूड़ामणि, प्राणतोषणी, महानिर्वाणतंत्र, मातृकाभेदतंत्र, वैष्णवीतंत्र, कृत्यमहार्णव, वृहन्नीलतंत्र, आदि ग्रंथों में बलिदान (विशेषकर पशुबलिदान) संबंधी चर्चा है। [3]
संस्कृत में बलि शब्द
संस्कृत में बलि शब्द का अर्थ सर्वथा मार देना ऐसा नहीं होता। उसका अर्थ दान के रूप में भी उल्लिखित किया गया है। कालिदास ने अपने महाकाव्य रघुवंशम् में ये बलि शब्द को दान के रूप में प्रयुक्त किया है।
प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिम् अग्रहीत्।
सहस्रगुणमुत्स्रष्टुम् आदत्ते हि रसं रविः।।[4]
अर्थात् प्रजा के क्षेम के लिये ही वह राजा दिलीप उन से कर लेता था, जैसे कि सहस्रगुणा बरसाने के लिये ही सूर्य जल लेता है।
बाहरी कड़ियाँ
सन्दर्भ
- ↑ https://www.swamipurnachaitanya.com/animal-sacrifice-in-the-vedas/
- ↑ Can't interfere in animal sacrifice tradition: Supreme Court अभिगमन तिथि :०५ जून २०१६
- ↑ Rodrigues, Hillary; Sumaiya Rizvi (10 जून 2010). "Blood Sacrifice in Hinduism". Mahavidya. पृ॰ 1. मूल से 6 जुलाई 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 17 अगस्त 2010.
- ↑ रघुवंशम्, सर्गः - १, श्लो. १८