फ्रेडरिख शेलिंग
फ्रेडरिख विल्हेल्म जोसेफ फॉन शेलिंग (Friedrich Wilhelm Joseph Von Schelling ; (27 जनवरी 1775 – 20 अगस्त 1854) जर्मनी का दार्शनिक था। लगातार परिवर्तित होने की प्रकृति के कारण शेलिंग के दर्शन को समझना कठिन समझा जाता है।
परिचय
शेलिंग का जन्म २७ जनवरी १७७५ को वर्टेबर्ग के एक छोटे नगर ल्यूनवर्ग में हुआ था। उसने दर्शन और ईश्वरशास्त्र (theology) का अध्ययन १७९० से १७९५ तक टुविंजन विश्वविद्यालय के थियोलाजिकल सेमीनरी में किया। वह कांट, फिख्टे और स्पिनोजा का विद्यार्थी रहा था। हीगेल और होल्डरलिन उसके समकालीन विद्यार्थी थे। सन् १७९८ में वह जेना में दर्शन का प्राध्यापक हो गया। सन् १८०३ के उपरांत बुर्जबर्ग, म्यूनिख और अर्लेंजन में विभिन्न पदों पर कार्य किया। अंत में वह हीगेल का प्रभाव रोकने के लिए बर्लिन में बुलाया गया था किंतु वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ। सन् १८५४ में उसकी मृत्यु हुई।
शेलिंग की प्रमुख रचनाएँ हैं - आइडियाज फार ए फिलासफी ऑव नेचर (१७९७), दि सोल ऑव दि वर्ल्ड (१७९८), फर्स्ट स्केच ऑव ए सिस्टम ऑव दि फिलॉसफी ऑव नेचर (१७९९), सिस्टम ऑव ट्रांसडेंटल आइडियलिज़्म (१८००), बूनो और दि डिवाइन एंड नेचुरल प्रिंसिपल ऑव किंगस (१८०२), क्रिटिकल जर्नल ऑव फिलासफी (इन कनजंक्शन विद हीगेल, १८०२-३), हिस्ट्री ऑव फिलॉसफी। सन् १८५६ में शेलिंग के पुत्र द्वारा संपादित कंप्लीट वर्क्स ऑव शेलिंग' के नाम से उसकी सब रचनाएँ १४ भागों में प्रकाशित हुईं।
शेलिंग के दार्शनिक चिंतन में तीन मोड़ स्पष्ट दृष्टिगत होते हैं। प्रारंभ में वह फिख्टे के दर्शन से प्रभावित था और उसी को विकसित करने में व्यस्त रहा। फिर वह ब्रनो और स्पिनोजा से प्रभावित होकर परम तत्व के दो पक्ष प्रकृति और मन स्वीकार करने लगा। तीसरे मोड़ में शेलिंग ने अपनी मौलिकता प्रदर्शित की, किंतु उसके इस समय के विचार भी जेकोव बोहेम से मिलते जुलते हैं। अब वह संसार को ईश्वर से उत्पन्न हुआ समझने लगा।
शेलिंग के समय में जर्मनी हीगेल के दर्शन से अभिभूत था। अत: हीगेल के जीवनकाल में शेलिंग अपना मुँह नहीं खोल सका। सन् १९३४ में हीगेल की मृत्यु के बाद उसने उसका विरोध प्रकट किया। वह अपने धार्मिक और पौराणिक विचारों को हीगेल के नकारात्मक तार्किक या परिकल्पनावादी दर्शन का स्वीकारात्मक परिपूरक समझता था।
शेलिंग के विचार से मन और प्रकृति (नेचर) एक ही तत्व के दो पक्ष हैं। प्रकृति दृष्टिगत मन है और मन अदृष्ट प्रकृति है। मन और प्रकृति के इसी संबंध के कारण हम प्रकृति को समझ सकते हैं। प्रकृति में भी जीवन, विचार और उद्देश्य हैं। एक ही शक्ति मन में स्वचेतन प्रतीत होती है और इंद्रियों, पशुप्रवृत्ति, आंगिक विकास, रासायनिक प्रक्रिया, विद्युत् और गुरुत्वाकर्षण में अचेतन रूप से कार्य करती है। हमारे शरीर को संचालित करनेवाली अंध अचेतन शक्ति मन में स्वचेतन होकर आत्मा कहलाती है। शेलिंग मन और प्रकृति को स्पिनोजा की भाँति परमतत्व के दो समानांतर पक्ष नहीं मानता। वे तो निरपेक्ष मन के विकास में दो भिन्न स्तर या युग हैं। निरपेक्ष मन में क्रमिक उत्क्रांति हुआ करती है। उसका अंतिम लक्ष्य आत्मचेतना प्राप्त करना है।
शेलिंग के अंतिम दार्शनिक विचार केवलोपादानेश्वरवादी प्रतीत होते हैं। संसार एक जीवित, सतत विकासशील आंगिक सृष्टि की भाँति है। इसके प्रत्येक अंग का अपना महत्व है। इनकी उपेक्षा करके संसार के समष्टि रूप को नहीं समझा जा सकता। इसी प्रकार संसार का प्रत्येक अंग भी समग्र पर अवलंबित है। इस सत्य को शेलिंग कई प्रकार से प्रमाणित करने का प्रयत्न करता है। एक तो वह संसार को बुद्धिप्रधान समझता है, इसलिए बुद्धि के द्वारा उसे जाना भी जा सकता है। दूसरे, संसार का इतिहास तर्कसंगत है, इसलिए इसके सृष्टि-विकास-क्रम को तार्किक भाषा में व्यक्त किया जा सकता है। शेलिंग अंतर्ज्ञान की सार्थकता भी स्वीकार करता है। अंतर्ज्ञान से मूल तर्कवाक्य प्राप्त होते हैं और उनके आधार पर हम संसार के तर्कसंगत सिद्धांत की रचना स्वीकार कर सकते हैं।
शेलिंग कला के पर्यावरण में रह रहा था। उससे प्रभावित होकर उसने स्वीकार किया है कि संसार एक कलात्मक रचना है। निरपेक्ष सत्ता विश्व की रचना करके अपने उद्देश्य की पूर्ति करती है। इसलिए मनुष्य का भी सर्वोच्च कार्य कला की सृष्टि करना है। कला में सभी प्रकार के द्वैत सामंजस्य प्राप्त कर लेते हैं। प्रकृति स्वयं एक महान काव्य है। कला में उसका अनावरण होता है। कला का सर्जन प्रकृति के सर्जन की भाँति ही संपन्न होता है। इसलिए कलाकार जानता है कि प्रकृति कैसे कार्य करती है। इस प्रकार कला दर्शन का आवश्यक और उपयोगी अंग बन जाती है। शेलिंग स्पष्ट कहता है कि इसमें कोई रहस्य की बात नहीं है, किंतु जिस व्यक्ति में अनुभव से प्राप्त असंबद्ध विवरणों का अतिक्रमण करने की क्षमता नहीं है वह न दार्शनिक बन सकता है और न यथार्थता का मर्म समझ सकता है।
अंत में शेलिंग के विचार रहस्योन्मुख हो गए। उसके विचार से मनुष्य अपना व्यक्तित्व बढ़ाते हुए अनंत रूप हो जाता है, वह निरपेक्ष सत्ता में लय प्राप्त कर लेता है। उस समय वह स्वतंत्र होता है, उसे किसी बात की आवश्यकता नहीं रहती। वह सब प्रकार से द्वैत से ऊपर उठ जाता है।