फ्रेडरिक नीत्शे
व्यक्तिगत जानकारी | |
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जन्म | फ्रेडरिक विल्हेल्म नीत्शे 15 अक्टूबर 1844 अकेन्न (near Lützen), सैक्सनी, परुस्सिया |
मृत्यु | 25 अगस्त 1900 वाइमर, सैक्सनी, जर्मनी | (उम्र 55)
वृत्तिक जानकारी | |
युग | १९ वी शताब्दी का दर्शन |
क्षेत्र | पाश्चात्य दर्शन |
राष्ट्रीयता | जर्मन |
मुख्य विचार | सौन्दर्यशास्त्र · आचारशास्त्र तत्वमीमांसा · निषेधवाद मानस शास्त्र · सत्तामीमांसा Poetry · Value theory Voluntarism · दुखान्त नाटक नास्तिकता · Fact–value distinction Anti-foundationalism इतिहास का दर्शन |
प्रमुख विचार | Apollonian and Dionysian Übermensch · Ressentiment "Will to power" · "The Death of God" Eternal recurrence · Amor fati Herd instinct · Tschandala "Last Man" · Perspectivism Master–slave morality Transvaluation of values Nietzschean affirmation |
हस्ताक्षर |
फ्रेडरिक नीत्शे (Friedrich Nietzsche) (15 अक्टूबर 1844 से 25 अगस्त 1900) जर्मनी का दार्शनिक था। मनोविश्लेषणवाद, अस्तित्ववाद एवं परिघटनामूलक चिंतन (Phenomenalism) के विकास में नीत्शे की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। व्यक्तिवादी तथा राज्यवादी दोनों प्रकार के विचारकों ने उससे प्रेरणा ली है। हालाँकि नाज़ी तथा फासिस्ट राजनीतिज्ञों ने उसकी रचनाओं का दुरुपयोग भी किया। जर्मन कला तथा साहित्य पर नीत्शे का गहरा प्रभाव है। भारत में भी इक़बाल आदि कवियों की रचनाएँ नीत्शेवाद से प्रभावित हैं।
जीवनी
नीत्शे का जन्म लाइपज़िग के निकट रोएकन नामक ग्राम में एक प्रोटेस्टेट पादरी के परिवार में हुआ था। उसके माता-पिता परंपरा से धर्मोपदेश के कार्य में संलग्न परिवारों के वंशज थे। अपने पिता की मृत्यु के समय नीत्शे पाँच वर्ष का था, परंतु उसकी शिक्षा की व्यवस्था उसकी माता ने समुचित ढंग से की। स्कूली शिक्षा में ही वह ग्रीक साहित्य से प्रभावित हो चुका था। धर्मशास्त्र तथा भाषाविज्ञान के अध्ययन के लिए उसने बॉन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहाँ अपने प्राध्यापक रित्शल से घनिष्टता उसके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुई। रित्शल के लाइपज़िग विश्वविद्यालय जाने पर नीत्शे ने भी उसका साथ दिया। 24 वर्ष की ही अवस्था में नीत्शे बेस्ल विश्वविद्यालय में भाषा-विज्ञान के प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुआ। नीत्शे को सैनिक जीवन के प्रति भी आकर्षण था। दो बार वह सैनिक बना परंतु दोनों बार उसे अपने पद से हटना पड़ा। पहली बार एक दुर्घटना में घायल होकर और दूसरी बार अस्वस्थ होकर। लाइपज़िग के विद्यार्थी जीवन में ही वह प्रसिद्ध संगीतज्ञ वेगेनर के घनिष्ठ संपर्क में आ चुका था और, साथ ही शोपेनहावर की पुस्तक "संकल्प एवं विचार के रूप में विश्व" से अपनी दर्शन संबंधी धारणाओं के लिए बल प्राप्त कर चुका था। नीत्शे और वेगेनर का संबंध, नीत्शे के व्यक्तित्व को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण सूत्र की भाँति माना जाता है। 1879 ई. में अस्वस्थता के कारण नीत्शे ने प्राध्यापक पद से त्यागपत्र दे दिया। तत्पश्चात लगभग दस वर्षों तक वह स्वास्थ्य की खोज में स्थान स्थान भटकता फिरा; परंतु इसी बीच में उसने उन महान पुस्तकों की रचना की जिनके लिए वह प्रसिद्ध है। 1889 में उसे पक्षाघात का दौरा हुआ और मानसिक रूप से वह सदा के लिए विक्षिप्त हो गया। नीत्शे की मृत्यु के समय तक उसकी रचनाएँ प्रसिद्धि पा चुकी थीं।
दर्शन
अतिमानव की अवधारणा नीत्शे के दर्शन का केन्द्रीय चिंतन है। नीत्शे का चिंतन उसके अपने समय की वैचारिक एवं सांस्कृतिक यथार्थता के प्रति एक बड़ी व्यापक एवं समृद्ध परंतु कुछ उलझी हुई प्रतिक्रिया है। वह ऐसे दर्शन की सृष्टि करना चाहता है जो सभी मूल्यों का पुनर्मूल्यीकरण कर सके। यूरोपीय संस्कृति के विभिन्न पक्षों की वह आलोचना करता है। अलोचना सूक्ष्म तथा मनावैज्ञानिक है और उसमें मौलिक एकता है। परंतु जिन प्रश्नों को उठाया गया है उनके विश्लेषण में क्रांतिकारी की सी बेसब्री और समाधान में एक पैगंबर का सा आत्मविश्वास है। मूल विचारों की विभिन्न पुस्तकों में पुनरावृत्ति हुई है, हालांकि यह पुनरावृत्ति थकावट नहीं उत्पन्न करती। उसकी अधिकतर पुस्तकें सूक्तियों में लिखी गई हैं, इससे यदि व्यंजना की प्रभावोत्पादकता बढ़ी है तो विचारों की अस्पष्टता भी बढ़ी है और नीत्शे यत्र तत्र अपना ही खंडन करता प्रतीत होता है।
ईसाई मत के परमार्थवाद, समाजवाद, सामाजिक प्रगति की नियतिवादी व्याख्या पर (चाहे वह हीगेल प्रदत्त इतिहासवादी हो या डार्विन द्वारा प्रतिपादित विकासवादी) तथा बेंथम और जे. एस. मिल के उपयोगितावाद पर नीत्शे कड़ा प्रहार करता है। प्रोटेस्टेंट पृष्ठभूमि तथा प्राचीन ग्रीक साहित्य के आरंभिक परिचय ने उसे इन विचार परंपराओं के विरोधी संस्कार दे दिए थे, परंतु कांट की ज्ञानमीमांसा, शोपेनहॉवर के चिंतन, जर्मन साहित्य तथा कला में व्याप्त स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज़्म), तुलनात्मक नीतिशास्त्र तथा स्वयं विकासवाद ने उसके लिए दार्शनिक आधारभूमि का कार्य किया। कांट के अनुसार हम निज-रूप पदार्थों को नहीं जान सकते क्योंकि अनुभव के प्रदत्त ज्ञान बनने में ज्ञानेंद्रियों के तथा बुद्धि के नियमों से वे प्रतिबंधित हो जाते हैं तथा समस्त ज्ञान में अनुस्यूत होने के कारण ये नियम ही सर्वाभौम होते हैं। नीत्शे की व्याख्यानुसार ये नियम भी सर्वाभौम नहीं होते, वे स्वयं हमारी रुचियों से, मूल्यों एवं संकल्पों से, प्रतिबंधित होते हैं। 'हम सत्य को ही क्यों जानना चाहते हैं', ""क्यों नहीं असत्य, अनिश्चिता या अज्ञान को जानना चाहते?"" नीत्शे का उत्तर है- अनिश्चितता में हमें जीने की संभावना नहीं प्रतीत हाती। ज्ञान इस विश्व को व्यवस्थित, सुनियोजित एवं पूर्वानुमेय बनाता है। अत: हमारा ज्ञान और इसलिए यह विश्व हमारे "जीने के संकल्प" का परिणाम है। परंतु जीवन का अर्थ है आत्मसातीकरण, विस्तार तथा शक्ति का संकल्प"। अत: "शक्ति का संकल्प" ही सार्वभौम सत्य है, यही हमारे ज्ञान के रूप को निर्मित करता है। शक्ति के संकल्प की धारणा ही अतिमानव की सृष्टि को प्रेरित करती है जो कि नीत्शे के चिंतन का आधार है।
नीतिमीमांसा
नैतिक या अनैतिक क्या है, इसका कोई वस्तुनिष्ठ मानदंड नहीं हो सकता। नैतिक वही है जो शक्ति के संकल्प की प्रबलता का परिणाम हो, अनैतिकता का निर्बलता का ही प्रकट रूप है। व्यक्तियों में "शक्ति के संकल्प" की "मात्रा में भिन्नता के कारण समाज की रूपरेखा पिरामिड की भाँति होती है। नीत्शे ऊपर के व्यक्तियों को शासक तथा नीचे के व्यक्तियों को दास वर्ग को मानता है। दोनों वर्गों की स्वीकृत मूल्य-संरणी भिन्न भिन्न प्रकार की होती है। उच्च वर्ग के व्यक्तियों के जीवन-मूल्य उनके व्यक्तित्व की क्षमता तथा उसके उत्पन्न सहज जीवन के परिणाम होते हैं, पर निम्नवर्ग के मूल्य उच्च वर्ग के प्रति प्रतिक्रिया के परिणाम हैं। ईसाई मत तथा जनवाद से संबंधित मूल्यों को नीत्शे निम्न वर्ग के मूल्य मानता है। ये मूल्य निर्बल व्यक्तित्व की मानसिक ग्रंथियों के परिणाम हैं। इनमें श्रेष्ठ व्यक्तियों को भी नीचे घसीटने की कुचेष्टा है। प्रगाति के लिए नीत्शे उच्च वर्ग की मूल्यपरम्परा का स्थापित होना आवश्यक समझता है।
मानव-व्यक्तित्व का विकास ही मानव की क्षमताओं को प्रकट करेगा, यह सिद्धान्त नीत्शे के दर्शन की आत्मा है। मानव साधन है पृथ्वी पर अतिमानव के अवतरण का, परन्तु यह अवतरण विकासवाद के अनुसार न होकर मानव के सक्रिय एवं सावधान प्रयत्नों का परिणाम होगा। सहज जीवन और उसके लिए स्वेच्छा से अपनाया हुआ अनुशासन नीत्शे के आदर्श व्यक्ति की कसौटी है। व्यक्ति को रूढ़ियों का नहीं, श्रेष्ठ पुरुषों का अनुकरण करना चाहिए। ""ईश्वर की मृत्यु हो गई है"" नीत्शे की प्रसिद्ध उक्ति है, परन्तु इस उक्ति के द्वारा वह मूल्यों में शाश्वतवाद के अन्त का तथा मानव-मन में व्याप्त अनास्था का निर्देश तो करना ही चाहता है, साथ ही वह यह भी स्पष्ट करना चाहता है कि श्रेष्ठ पुरुष ही अब मानव की सबसे बड़ी आशा है।
रचनाएँ
नीत्शे की रचनाओं का दार्शनिक जगत पर व्यापक प्रभाव पड़ा। उसकी पुस्तक "ज़रथुस्त्र की वाणी" (Also sprach Zarathustra) विश्व की श्रेष्ठतम साहित्यिक कृतियों में गिनी जाती है। इसी प्रकार पुण्य और पाप के आगे (Jenseits von Gut und Böse) तथा "मूल्यों की परंपरा" (Zur Genealogie der Moral) दर्शन में नये मोड़ प्रस्तुत करती है।
सन्दर्भ
उपलब्ध भारतीय पुस्तकें