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प्रमाणसमुच्चय

प्रमाणसमुच्चय बौद्ध दार्शनिक दिङ्नाग द्वारा रचित ग्रंथ है। इसका मूल संस्कृत ग्रन्थ अप्राय है, केवल इसका तिब्बती अनुवाद मिलता है। इस पर जिनेन्द्रबुद्धि द्वारा रचित टीका मिलती है जो तिब्बती भाषा में ही है।

प्रमाणसमुच्चय में कुल छः परिच्छेद और कुल २५७ श्लोक हैं। परिच्छेदों के नाम ये हैं-

  • (१) प्रत्यक्ष-परीक्षा
  • (२) स्वार्थानुमान-परीक्षा
  • (३) परार्थानुमान-परीक्षा
  • (४) दृष्टान्त-परीक्षा
  • (५) अपोह-परीक्षा
  • (६) जाति-परीक्षा

प्रमाणसमुच्चय के प्रथम श्लोक में दिङ्नाग ने ग्रन्थ लिखने का प्रयोजन बताया है-

प्रमाणभूताय जगद्हितैषिणे प्रणम्य शास्त्रे सुगताय तायिने ।
प्रमाणसिद्धये स्वमतात् समुच्चयः करिष्यते विप्रसितादिहैकिकः ॥
अर्थ- जगत के हितैषी, प्रमाणभूत उपदेष्टा बुद्ध को नमस्कार कर जहाँ-तहाँ फैले हुए अपने मतों को यहाँ एक जगह प्रमाणसिद्धि के लिये जमा किया जायेगा।

इसके बाद द्वितीय श्लोक में कहते हैं-

प्रत्यक्षमनुमानं हि प्रमाणं द्विलक्षणम् ।
प्रमेयं तत्प्रयोगार्थं न प्रमाणान्तरं भवेत ॥

भावार्थ - प्रत्यक्ष और अनुमान - ये दो प्रमाण हैं। इनके अलावा कोई प्रमाण नहीं होता।

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