प्रबोधचन्द्रोदय
प्रबोधचन्द्रोदय एक संस्कृत नाटक है। इसके रचयिता कृष्ण मिश्र हैं। इसकी रचना चन्देल राजवंश के काल ( 1100 ई. - ग्यारहवीं सदी) में हुई थी। कृष्ण मिश्र चंदेल नरेश कीर्तिवर्मन के समकालीन थे। इस नाटक का मंचन खजुराहो के मंदिर प्रांगण में किया गया था। यह भावप्रधान प्रतीकात्मक नाटक है तथा समकालीन संस्कृति का दर्पण है। विद्वानों ने प्रबोधचन्द्रोदय को प्रतीकात्मक शैली का एक जीवन्त नाट्य बताया है। इस नाटक में छः अङ्क हैं। सभी पात्र प्रतीकात्मक हैं, जिनके नाम हैं- परमार्थतत्त्व, माया, महामोह, विवेक, रति, काम, उपनिषद (स्त्री पात्र), मति, दम्भ, अहंकार, चार्वाक, धर्म, शान्ति, करुणा, श्रद्धा, जैनमत (क्षपणक), बौद्धमत (भिक्षु), सोमसिद्धान्त (कापालिक), विष्णुभक्ति, वस्तुविचार, क्षमा, सन्तोष, प्रवृत्ति, निवृत्ति, मधुमती आदि।
इस नाटक में बताया गया है कि मोहपाश से आबद्ध होकर मानव अपने सत्य स्वरूप को भूल जाता है। विवेक के द्वारा जब मोह पराजित होता है तब पुरुष को शाश्वत ज्ञान की प्राप्ति होती है। विवेकपूर्वक उपनिषद का अध्ययन करने तथा विष्ण्णुभक्ति का आश्रय लेने से ही ज्ञान रूपी चन्द्रमा का उदय होता है। प्रबोधचन्द्रोदय में नाटककार ने निवृत्तिमार्गीय साधना को संबल बताया है। काम रति, हिंसा, लोभ, दम्भ, तृष्णा आदि को मुक्तिमार्ग में बाधक बताया है। साथ ही मति, करुणा, शान्ति, क्षमा, सन्तोष आदि को मुक्तिमार्ग में सहयोगी बताया है। उपनिषद पर नाटककार की गहरी आस्था प्रतीत होती है। उपनिषद के माध्यम से ही प्रबोध का उदय होता है। नाटककार का व्यक्तित्व परमार्थ से पूरित दिखता है। विष्णुभक्ति पर नाटककार की अगाध श्रद्धा दिखाई पड़ती है जबकि बौद्धों के वाह्याचार पर उनका विश्वास नहीं है।
सुदूर दक्षिण में भी प्रबोध चन्द्रोदय चर्चा का विषय बना और इस नाटक की प्रतिस्पर्धा में ही वेदान्तदेशिक ने 'संकल्पसूर्योदय' की रचना की। हिन्दी के कवियों में भी प्रबोध चन्द्रोदय की पर्याप्त ख्याति रही है। गोस्वामी तुलसीदास ने अयोध्याकाण्ड में पंचवटी के वर्णन-प्रसंग में इसी नाटक के प्रसिद्ध पात्रों को रूपक-योजना में स्वीकृत किया है। आचार्य केशवदास ने 'विज्ञानगीता' नाम से इस नाटक का छन्दोबद्ध हिन्दी अनुवाद किया है। यशपाल ने 'मोहपराजय' में इसी नाटक का अनुसरण किया है।
कथावस्तु
परमार्थतत्व (पुरूष) वस्तुतः एक है, परन्तु माया से उसका संयोग होता है। उसका पुत्र है मन, जिसके दो पुत्र हैं- विवेक ओर महामोह। महामोह के वंशजों की शक्ति बढ गयी है। इससे विवेक और उसकी सन्तानों के लिये भय उत्पन्न हो गया है।
प्रथम अंक -- नाटक का आरम्भ रति के साथ वार्तालाप करते हुए काम ने यह बात बतलायी है। काम को विश्वास है कि उसने अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए काफी कार्य कर लिया है। केवल एक खतरा उस भविष्यवाणी से है जिसके अनुसार विवेक एवं उपनिषद के संयोग से प्रबोध का उदय होगा, परन्तु वे दोनों बहुत समय से अलग हैं। तथापि अपनी एक पत्नी मति के साथ बात करते हुए राजा विवेक के वहाँ पहुचने के पहले ही वे दोनों भाग जाते हैं। विवेक को यह जानकार प्रसन्नता होती है कि मति उसके साथ उपनिषद के पुर्नमिलन के पक्ष में है और इस कार्य को सम्पन्न कराने के लिये उद्यत है।
द्वितीय अंक में ज्ञात होता है कि महामोह अपने राज्य के नाश के भय से आतंकित हैं। वह दंभ के द्वारा पृथ्वी के सबसे बड़े मुक्ति स्थान काशी पर तुरन्त अधिकार करने का प्रयत्न करता है। दम्भ का पितामह अहंकार काशी पहुँचता है, और वहाँ पर अपने सम्बन्धियों को देखकर प्रसन्न होता है। महामोह विजेता के ठाटवाट से नयी राजधानी में प्रवेश करता है। देहात्मवादी चार्वा उसका पक्षपोषण करता है परन्तु एक बुरा समाचार है, धर्म ने विद्रोह का झंडा खड़ा किया। उपनिषद् सोचती है कि विवेक से फिर मेल कर लें।
तृतीय अंक -- शान्ति अपनी सखी करूणा के सहारे आती है। वह अपनी माँ श्रद्धा के वियोग में शोकाकुल है। वह दिगम्बर, जैन धर्म, बौद्धधर्म, दर्शन और सोमसिद्धान्त में श्रद्धा की निष्फल खोज करती है, उनमें से प्रत्येक अपनी पत्नी के साथ दिखाई पड़ता है। बौद्धमत (भिक्षु) और जैनमत (क्षपणक) झगड़ते हैं। सोमसिद्धान्त (कापालिक) आता है और उन्हें सुरारस से मत्त करके श्रद्धा की पुत्री शान्ति को खोजने के लिये उनको साथ लेकर चल देता है।
चतुर्थ अंक -- विष्णुभक्ति विवेक के पास युद्ध आरम्भ करने का संदेश लाती है। विवेक अपने नायकों वस्तुविचार, क्षमा सन्तोष आदि को संगठित करता है।
पंचम अंक -- युद्ध समाप्त होता है। महामोह और उसकी सन्ताने मर चुकी है परन्तु महामोह एवं प्रवृत्ति के निधन पर शोक करता हुआ मन उद्विग्न है। वैयासिकी सरस्वती उसे भ्रान्ति से मुक्त करती है।
षष्ठ अंक -- मरने के पहले महामोह ने मुधमती के द्वारा पुरूष को भ्रान्त करने के लिये भेजा था। उसकी सहचरी माया ने भी उद्योग में सहायता की अन्ततः विष्णुभक्ति आ कर फलप्राप्ति की प्रश्ंसा करती है और नाटक समाप्त होता है।
लोकप्रियता
प्रबोधचन्द्रोदय एक महान रूपक कथात्मक कृति है, जिसमें समस्त मानव जीवन का चित्रण रूपक कथात्मक पद्धति पर मानवीय गुणों और वृत्तियों का मानवीयकरण कर किया गया है, किसी एक गुण या दोष का नहीं। इस नाटक का नाम (प्रबोधचन्द्रोदय = प्रबोध रूपी चन्द्रमा का उदय) ही अपने गम्भीर दार्शनिक विषय को सूचित करता है। इसमें मानव हृदय की शक्तियों को अर्न्तविरोध का सफल उपस्थापन और मानव हृदय की दो स्वाभाविक वृत्तियों का परस्पर संघर्ष चित्रित किया गया है।
'प्रबोध-चन्द्रोदय' का अनुसरण करने वालों की संख्या न्यून नहीं है। यह भारतीय साहित्य की एक अत्यन्त विशिष्ट ध्यानाकर्षक उत्पत्ति के रूप में स्वीकार किया जाने योग्य है। धार्मिक और दार्शनिक रूपक कृति के रूप में - जिसमें भाववाचक मानवीय कृतियों और प्रतीकात्मक पात्र मनुष्यों की भांति कार्य करते हैं। यह एक महत्वपूर्ण जीवित कृति है, यद्यपि पात्रों के कार्य में नाटकीयत्व की शक्ति की पूर्णतः सबल नहीं कही जा सकती है। यद्यपि भावपूर्ण दार्शनिक मन्तव्यों को सामने रखकर एक मनोरंजक नाटक का निर्माण कार्य अत्यन्त कठिन है, फिर भी कृष्णमिश्र अपनी रचना में यह कर सके हैं। उन्होंने मानव आत्मा के सनातन संघर्ष का मनोहर कलापूर्ण नाटकीय चित्र प्रस्तुत किया है। किसी भाव को चेतन मानव की भांति चित्रित करने के प्रयत्न में पूर्ण सफलता की आशा नहीं की जाती, फिर भी यदि प्रौढ़ प्रतिमा और चित्रण क्षमता कवि के पास है तो वह इस दिशा में भी निर्जीव अमूर्त चित्रों में उष्ण रक्त और प्राणों का संचार कर सकता है।
भारतीय नाट्यशास्त्रीय नियमानुसार नाटककार ने प्रबोध चन्द्रोदय को सुखान्त नाटक के रूप में निपुणता के साथ प्रस्तुत किया है और समान्य नाटकीय नियमों का पालन करने का प्रयत्न किया है। इस नाटक के कथोपकथन अत्यन्त सुन्दर बन पड़े हैं। उनके कथनों में संस्कृत भाषा का माधुर्य एवं व्यवहारोपयुक्तता, ध्वन्यात्मकता और प्रसादिकता दीख पड़ती है। पात्रानुकूल, विषयानुकूल, वातावरण के अनुकूल भाषा है। यद्यपि इस नाटक में सूक्ष्म भावों का मानवीयकरण किया गया है, और साथ ही उनकी व्यक्तिगत विशेषता भी व्यक्त की गई है, फिर भी रचना की प्रतीकात्मकता बुद्धिगम्य, तर्कसंगत, आध्यात्मिक, व्यायाम-शून्य और नीरसता से रहित है। रोचकता के कारण पाठक की उत्सुकता आदि से अन्त तक बनी रहती है। इन सब गुणों के होने पर भी नाटक के चरित्र बुद्धिवेध होकर ही रह जाते हैं। उनके मनुष्यत्व में हमें विश्वास नहीं होता और न हम सहानुभूति प्रगट करने के लिए अपने को बाध्य पाते हैं। पात्र अपनी मानवीय दुर्बलताओं तथा भारतीय आदर्शों को लेकर प्रस्तुत होते हैं। नाटककार ने अमूर्त भावों को मानव का रूप देने में जितनी भी सफलता पाई हो, इस क्षेत्र में पाश्चात्य नाटककार अधिक सफल हुए हैं। फिर भी संस्कृत साहित्य में कृष्ण मिश्र इस क्षेत्र में सर्वाधिक सफल कलाकार हैं। काम, क्रोध, अहंकार आदि के चित्र अत्यन्त सफलता के साथ अंकित किये हैं।
बाहरी कड़ियाँ
- Prabodha Chandrodaya by Krishna Misra (edited by Hermann Brockhaus)
- प्रबोधचन्द्रोदय एवं संकल्पसूर्योदय नाटकों का तुलनात्मक अध्धयन