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प्रत्यायोजन

किसी उच्च अधिकारी द्वारा अधीनस्थ अधिकारी को विशिष्ट सत्ता एवं अधिकार प्रदान करना प्रत्यायोजन (Delegation) कहलाता है। यह प्रबन्धन के मूल संकल्पनाओं (कॉन्सेप्ट्स) में से एक है। ध्यान देने योग्य बात है कि कार्य के परिणाम के लिये वही व्यक्ति जिम्मेदार होता है जो उस कार्य को सम्पादित करने के लिये अपने अधिकार दूसरे को सौंपता है। प्रत्यायोजन के फलस्वरूप अधीनस्थ व्यक्ति को निर्णय लेने में सुविधा होती है। दूसरी तरफ अधिकारी का भार कुछ कम हो जाता है। अर्थात प्रत्यायोजन प्रशासनिक संगठन में विभिन्न स्तरों पर शक्तियों एवं दायित्वों के अनावश्यक ठहराव को रोकने की एक आन्तरिक प्रशासनिक प्रक्रिया है।

उच्चाधिकारी अधीनस्थों पर नियंत्रण, निरीक्षण और पर्यवेक्षण का प्राधिकार अपने ही पास रखता है। सत्ता हस्तान्तरित करने वाला अधिकारी अपने दायित्वों तथा जवाबदेहिता से मुक्त नहीं हो सकता। दूसरे अर्थों में प्रत्यायोजन अधीनस्थों को कार्य बांटकर उनसे सम्पन्न करवाने का एक तरीका है।

प्रत्यायोजन प्रशासनिक संगठन की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। प्रत्यायोजन के अभाव में कोई भी प्रशासनिक संगठन सुगमतापूर्वक अपने निर्धारित उद्देश्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। प्रत्यायोजन को स्थानान्तरण, प्रत्याधिकरण, प्रत्याधिकार, अथवा अधीनस्थ प्रत्यायोजन इत्यादि कई नामों से जाना जाता है।

प्रत्यायोजन, अंग्रेजी शब्द Delegation (डेलिगेशन) का हिन्दीकरण है जो Delegate (डेलिगेट) से बना है। इसका अर्थ है 'प्रतिनिधि'।

परिचय

वर्तमान समय बड़े संगठनों का समय है। संगठन न केवल बडे है इनकी कार्य प्रक्रियाएं भी जटिल हो गईं हैं। संगठन के प्रत्येक स्तर पर कार्यरत कर्मचारियों के पास कार्य की आधिक्यता होती जा रही है। विशेषकर सांगठनिक पदसोपान के उच्चतर स्तरों पर कार्यभार इतना अधिक होता जा रहा है कि उच्च अधिकारी संगठन की माँग के अनुसार उनके निस्तारण में असमर्थ हैं जिसके परिणामस्वरूप सांगठनिक विलम्बता की समस्या पैदा होती है।

संगठन में प्रत्यायोजन का सिद्धान्त मूलत: ऊपर से नीचे की ओर अधिकारों एवं दायित्वों के आवंटन से सम्बन्धित है। इसीलिए सांगठनिक जटिलता और विकास के साथ साथ प्रत्यायोजन की आवश्यकता भी बढ़ती जा रही है जो कि प्रत्येक संगठन के लिए उपयोगी है। एल. डी. व्हाइट के अनुसार,

कार्यों की विशालता और अधिक मात्रा तथा परिस्थितियों के कारण अधिकारों का कुछ प्रत्यायोजन करना और अधिकांश समस्याओं के उत्पन्न होते ही उन्हें सुलझाना आवश्यक हो जाता है।

परिभाषा

विद्वानों ने समय-समय पर प्रत्यायोजन निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है-

मूने के अनुसार

प्रत्यायोजन का सामान्य अर्थ एक उच्चाधिकारी द्वारा अपने अधीनस्थ कर्मचारी अथवा एजेण्ट को सत्ता का हस्तान्तरण करना है परन्तु इसमें उच्चाधिकारी सत्ता को पूर्णतया गंवा नहीं देता अपितु नियंत्रण और निरीक्षण की शक्ति वह अपने हाथ में ही रखता है। वैधानिक दृष्टि से हस्तान्तरित सत्ता मूल अधिकारी के पास ही मानी जाती है, परन्तु उसके व्यावहारिक प्रयोग का अधिकार अधीनस्थ कर्मचारी को होता है।

मिलेट के अनुसार,

सत्ता के प्रत्यायोजन का अर्थ दूसरे को कर्तव्य सौंप देने से कुछ अधिक है। प्रत्यायोजन का सार है- दूसरों को स्वविवेक सौंपना ताकि वे अपने कर्तव्यों से सम्बन्धित विशिष्ट समस्याओं को सुलझाने में अपने निर्णयों का प्रयोग कर सकें।

डगलस सी. बसिल के शब्दों में,

प्रत्यायोजन में अधिकार प्रदान करना या कुछ परिभाषित क्षेत्रों में निर्णयन की शक्ति देना तथा सौंपे गये कार्यों के निष्पादन के लिए अधीनस्थों को उत्तरदायी बनाना सम्मिलित है।

जॉर्ज आर. टेरी के अनुसार,

प्रत्यायोजन का अभिप्राय: किसी विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक अधिकारी अथवा संगठन की किसी एक इकाई से दूसरी इकाई अथवा अधिकारी को सत्ता सौंपने से है।

प्रत्यायोजन की विशेषताएँ

विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर प्रत्यायोजन के बारे में लिखित कुछ विशेषताओं को निर्दिष्ट किया जा सकता है जो निम्नलिखित हैं:

(१) स्वतंत्र रूप से कार्य करने को प्राधिकृत : प्रत्यायोजन की सहायता से संगठन में एक प्रशासक को वरिष्ठ अधिकारी द्वारा निर्धारित सीमा में रहते हुए स्वतंत्र रूप से कार्य करनेका अवसर दिया जाता है। लेकिन उस सीमा में कार्य करतेसमय स्वच्छन्द तरीके से व्यवहार नहीं कर सकता। प्रत्यायोजन की सहायता से संविधान, संगठन की नीति, नियम, उपनियम आदि की संरचना व सीमा में रहकर स्वविवेक का प्रयोग करनेका अधिकार मिलता है।

(२) प्रत्यायोजन कला है : प्रशासनिक संगठन के अन्तर्गत किस अधिकारी को, कब और कितनी सत्ता देनी है तथा किस प्रकार नियंत्रण स्थापित किया जाना है, इसका निर्धारण प्रत्यायोजन करनेवाला अधिकारी ही करता है।

(३) प्रत्यायोजन लिखित या अलिखित और विशिष्ट या सामान्य प्रकृति का : प्रशासनिक संगठन में प्रत्यायोजन लिखित या अलिखित कोई भी हो सकता है। कार्य की दृष्टि से संगठन में प्रत्यायोजन जितना लिखित होता है उतनी ही स्पष्टता बनी रहती है। लेकिन बहुत सा प्रत्यायोजित हिस्सा व्यावहारिक रूप में अलिखित ही रहता है। जब सांगठनिक लक्ष्यों के लिए विशिष्ट कार्यविधि निर्धारित कर दी जाती है तो उसे विशिष्ट प्रत्यायोजन कहा जाता है और जब लक्ष्य निर्धारित होते हुए भी कार्यविधि निर्धारित न हो तो उसे सामान्य प्रकृति का प्रत्यायोजन कहा जाता है।

(४) सम्पूर्ण सत्ता प्रत्यायोजित नहीं : कोई भी व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण सत्ताका प्रत्यायोजन नहीं कर सकता है, बल्कि आंशिक मात्रा में ही प्रत्यायोजन होता है।

(५) दोहरा स्वरूप : प्रत्यायोजन अपने कार्य एवं अधिकार दूसरों को सौंपता अवश्य है किन्तु बहुत से अधिकार अपने पास रखता भी है। टैरी के शब्दों में, यह प्रक्रिया उसी प्रकार की है जैसे कि दूसरों को ज्ञान बांटते समय, दूसरों को ज्ञान भी मिल जाता है तथा बांटने वाले के पास भी ज्ञान रहता है।

(६) सत्ता सौंपने के पश्वात् कम-ज्यादा की जा सकती है और वापस भी ली जा सकती है : प्रत्यायोजन अपनी प्रकृति में स्थायी नहीं होता है। जबकि उसमें संशोधन किया जा सकता है। उसे कम या ज्यादा किया जा सकता है या वापस लिया जा सकता है। यह सब परिस्थिति, कार्य और आवश्यकता पर निर्भर करता है।

कोई भी उच्च अधिकारी निम्नांकित कार्य प्रत्यायोजित नहीं कर सकता है –

  • (१) निकट अधीनस्थों का पर्यवेक्षण
  • (२) उच्च पदों पर नियुक्ति
  • (३) नवीन नीति तथा योजना स्वीकृति
  • (४) अनुशासनात्मक कार्यवाही के अधिकांश मामले
  • (५) जो अधिकार स्वयं के पास नहीं है।
  • (६) कानून बनाने की शक्तियाँ
  • (७) वित्तीय स्वीकृति तथा नियंत्रण के अधिकार
  • (८) अत्यन्त गुप्त निर्णय तथा उच्च स्तरीय कूटनीति।

प्रत्यायोजन की प्रक्रिया

मोहित भट्टाचार्य ने प्रत्यायोजन की प्रक्रिया को इस प्रकार स्पष्ट किया है-

  • (1) श्रेष्ठतर (प्रत्यायोजक) द्वारा अधीनस्थ (प्रत्यायोजित) को कार्य सौंपा जाना,
  • (2) प्रत्यायोजक द्वारा प्रत्यायोजित को उसके कामों के ढाँचे के भीतर प्राधिकार प्रदान करना,
  • (3) एक बाध्यता का निर्माण, यानी, प्रत्यायोजित व्यक्ति काम पूरा करने के लिए कर्तव्यबद्ध हो जाता है,
  • (4) प्रत्यायोजित द्वारा उसके अधीनस्थो को बाध्यता का प्रत्यायोजन नहीं होता।

प्रत्यायोजन विकेन्द्रीकरण, हस्तांतरण और विसंकेंद्रण से भिन्न है, जिनसे प्राधिकार के स्थानान्तरण का अर्थ भी निकलता है। विसंकेंद्रण प्रशासनिक कार्यवाही पर, हस्तांतरण राजनीतिक और न्यायिक कार्यवाही पर और विकेंद्रीकरण राजनीतिक कानूनी और प्रशासनिक कार्यवाही पर आधारित है। जैसे–पंचायती राज का अर्थ विकेन्द्रीकरण है, जबकि जिला कलेक्टर के कार्यालय का अर्थ विसंकेंद्रण है, केन्द्र से राज्यों को प्राधिकार का स्थानान्तरण हस्तांतरण है।

प्रत्यायोजन की आवश्यकता और महत्व

किसी भी संगठन को प्रभावी रूप से संचालित करने के लिये, जिससे कि वह अपने वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति कर सके, यह आवश्यक है कि उसे प्राप्त शक्तियों को विभिन्न स्तरों पर कार्यरत विभिन्न कार्मिकों के मध्य विभाजित और हस्तान्तरित किया जाए। प्रत्यायोजन की आवश्यकता, उपयोगिता एवं महत्व के बारे में एल. डी. ह्वाइट ने लिखा है कि

परिस्थितियों के विस्तार एवं मात्रा की मांग है कि कुछ मात्रा में सत्ता का प्रत्यायोजन हो तथा अधिकतर कार्य वहीं पर निपटा लिए जाए जहां पर वह उत्पन्न होते है। प्रशासनिक उलझनों के चलते जो विलम्ब होता है उससे बचने के लिए यह आवश्यक है कि प्रशासनिक निर्णय केवल मुख्यालयों में लिए जाने के बजाए क्षेत्रीय प्रस्थापनाओं में भी लिए जाँए। सत्ता के प्रत्यायोजन का अर्थ निश्चय ही अत्यधिक कार्य से युक्त अधिकारियों को राहत, अधीनस्थों को भावी कार्यों के लिए प्रशिक्षण, उत्तरदायित्व की उच्चतर भावना तथा कर्मचारियों का उठा हुआ मनोबल है।

निम्नलिखित तथ्यों से प्रत्यायोजन की आवश्यकता अत्यधिक बढ़ी है और यह तथ्य प्रत्यायोजन के महत्व को भी स्पष्ट करते है:

(1) शीघ्र निर्णय के लिए : प्रशासकीय संगठन के विभिन्न स्तरों पर कुछ ऐसे कार्य होते है जिनमें शीघ्र निर्णय लेने की आवश्यकता होती है। सत्ता का प्रत्यायोजन इस कार्य को सरल बना देता है क्योंकि अधीनस्थों को भी सीमित क्षेत्र में निर्णय लेने का अधिकार सौप दिया जाता है। छोटे–छोटे कार्यों के सम्बन्ध में तुरन्त निर्णय ले लिये जाते हैं। कभी-कभी प्रशासकीय संगठनों में कुछ ऐसी आपातकालीन परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं जिसके लिए आपातकालीन निर्णय की आवश्यकता होती है। अपने मुख्यालय से आदेश प्राप्त करने में इतना समय लग जाता है कि बहुत देर हो चुकी होती है, अत: ऐसी परिस्थिति में प्रत्यायोजित अधिकारी शीघ्र निर्णय लेने में समर्थ होते हैं।

(2) मितव्ययता एवं कुशलता : प्रत्यायोजन से निर्णयों में शीघ्रता आती है क्योंकि निर्णय के प्रशासनिक स्तर कम हो जाते हैं। शीघ्र तथा प्रभावी निर्णयों से संगठन में मितव्ययता और कुशलता में वृद्धि होती है। कार्यों तथा अधिकारों का विभाजन होने से उच्चाधिकारी के सामने नियत्रंण और निर्देशन की स्पष्टता रहती है।

(3) कार्यों का बोझ कम करने के लिए : वर्तमान समय में विभिन्न देशों में न सिर्फ जनसंख्या में व्यापक वृद्धि हुई है बल्कि कार्यों का बोझ निरन्तर बढ़ता ही गया है। सरकारी प्रशासन पर इतने कार्य बढ गये हैं वह किसी भी विभाग का कार्य किसी एक अधिकारी के द्वारा सम्पन्न नहीं करा सकता है। पदसोपान पर स्थित विभिन्न प्राधिकारों में सत्ता का हस्तान्तरण आवश्यक हो जाता है ताकि कार्यों के बोझ को हल्का किया जा सके।

(4) समय की बचत : उच्च सत्ताधारी के पास संगठन या इकाई की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ होती हैं। इन जिम्मेदारियों में नीति–निर्धारण तथा नियोजन प्रमुख है। प्रत्यायोजन के अन्तर्गत उच्चाधिकारी द्वारा महत्व के कार्यों के अतिरिक्त अन्य कार्य अधीनस्थ को सौप दिये जाते हैं, जिससे उच्चाधिकारी को महत्वपूर्ण निर्णय लेने में सरलता रहती है तथा कार्यों का निष्पादन आसानी से हो जाता है।

(5) प्रशिक्षण का अवसर प्रदान करने हेतु : जब कभी भी अधीनस्थ कर्मचारी के ऊपर प्रत्यायोजन के फलस्वरूप नवीन उत्तरदायित्व सौपे जाते हैं तो वे पूरे उत्तरदायित्व की भावना के साथ काम करते हैं और इस कार्य से उन्हें प्रशिक्षण प्राप्त होता है। सत्ता के प्रत्यायोजन के फलस्वरूप अधीनस्थ कर्मचारियों को कार्य करने का जो अवसर प्राप्त होता है उसकी वजह से उनकी सक्रियता बढ़ती है, अनुभव में वृद्धि होती है तथा भावी उत्तरदायित्वों के लिए वे प्रशिक्षण प्राप्त करते है।

(6) निर्देशन, नियंत्रण और पर्यवेक्षण की सुविधा के लिये : प्रशासनिक संगठन में पद–सोपान के विभिन्न स्तरों पर सत्ता के प्रत्यायोजन होने से निर्देशन, नियंत्रण एवं पर्यवेक्षण का कार्य सुगम हो जाता है। सत्ता का प्रत्यायोजन योजनाबद्ध ढंग से होता है। इसमें यह स्पष्ट रूप से निर्धारित कर दिया जाता है कि किसे कौन–सा कार्य कितनी सीमाओं में रहकर पूरा करना है। जो उच्चाधिकारी अपने अधीनस्थ को सत्ता प्रत्यायोजित करता है, उसके पास उस कार्य से सम्बन्धित निर्देशन, नियंत्रण और पर्यवेक्षण के अधिकार बने रहते हैं। अगर प्रशासकीय कार्य में कहीं कोई गड़बड़ी, दोहरान या अव्यवस्था होती है तो इसके लिए उत्तरदायी व्यक्ति की खोज आसानी से हो जाती है।

(7) संगठनात्मक लोचशीलता हेतु : कठोरता, जड़ता तथा रूढ़िवादिता किसी भी संगठन की कार्यकुशलता एवं विकास के लिए बाधक हैं। परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल संगठन को ढालने तथा कार्मिकों का विकास करने के लिए यह आवश्यक है कि संगठन में लोचशीलता का समावेश हो ताकि ताजी हवा के झोंके आते रहें। नवाचार तथा प्रत्यायोजन के द्वारा जड़ता को तोड़ा जा सकता है तथा संगठनात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति बेहतर ढंग से हो सकती है।

(8) नैतिक स्तर और मनोबल में वृद्धि : प्रत्यायोजन अधीनस्थों के मनोबल में वृद्धि करता है, क्योंकि अधीनस्थों को अधिकार तथा दायित्व सौपने से वे अपने पद का महत्व समझते है और पूर्ण लगन के साथ कार्य करते हैं। इससे नैतिक स्तर तथा मनोबल में वृद्धि होना स्वाभाविक है।

(9) उत्तराधिकार में सहायता : प्रत्यायोजन और उत्तराधिकार के बीच गहरा संबंध है। एक प्रशासक प्रत्यायोजन के जरिए अपने उत्तराधिकारी के लिए रास्ता बनाता है। अर्थात् एक प्रशासक के हटने पर दूसरा उसकी जगह ले सकेगा। इरविन हास्केल शेल के शब्दों में,

किसी भी अधिकारी के उत्तराधिकारी का रास्ता तैयार करने का सबसे कारगर उपाय प्रत्यायोजन है। वास्तव में यह प्रशासकों की नई पंक्ति के चयन और प्रशिक्षण का सबसे महत्वपूर्ण साधन है।

प्रत्यायोजन उत्तराधिकारी के चयन व आदर्शों की निरन्तरता में भी सहायक हैं। प्रत्येक संगठन के कुछ आदर्श होते है और प्रशासक बदलने पर भी वे आदर्श ज्यों के त्यों मौजूद रहते हैं।

प्रत्यायोजन के प्रकार

कार्य की प्रकृति, प्राधिकार का स्वरूप, औपचारिकताएं तथा प्रक्रिया इत्यादि के आधार पर प्रत्यायोजन को कई प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है जो निम्न है –

(1) लिखित अथवा मौखिक प्रत्यायोजन : लिखित प्रत्यायोजन विधिवत् तथा लिखित आदेशों से किया जाता है जो प्राय: औपचारिक, महत्वपूर्ण तथा स्थायी भी होता है जबकि मौखिक प्रत्यायोजन कम महत्व के मामले अथवा तात्कालिक प्रकृति के कार्यों के बारे में मौखिक रूप से किया जाता है।

(2) सामान्य अथवा विशिष्ट प्रत्यायोजन : जब किसी विभाग की समस्त क्रियाओं का कार्यभार एक व्यक्ति को सौप दिया जाता है तो इसे सामान्य प्रत्यायोजन कहते हैं। इसके विपरीत जब किसी व्यक्ति को पूरा कार्य न सौंपकर कोई विशिष्ट कार्य सौंपेजाते है तो यह विशिष्ट प्रत्यायोजन कहलाता है।

(3) पूर्ण या आंशिक प्रत्यायोजन : पूर्ण प्रत्यायोजन में सत्ताधारी अपनी पूरी सत्ता का प्रत्यायोजन कर देता है। ऐसे प्रत्यायोजन का उदाहरण अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भेजे जाने वाले प्रतिनिधिमण्डल का अधिकार है। कोई शासन पूर्ण अधिकार देकर प्रतिनिधि मण्डल को सम्मेलन में भेजता है। प्रतिनिधि मण्डल जो भी स्वीकृति देता है शासन की ओर से ही देता है। परन्तु साधारणत: प्रत्यायोजन आंशिक ही होता है। सत्ताधारी अपनी पूर्ण सत्ता का प्रत्यायोजन न कर आंशिक सत्ता का ही प्रत्यायोजन करता है।

(4) प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रत्यायोजन : प्रत्यक्ष प्रत्यायोजन वह है जिसमें उब अधिकारी अपनी सत्ता के कुछ भाग सीधे रूप में अपने अधीनस्थ को सौप देता है। उन दोनों के बीच कोई जोड़ने वाली कड़ी नहीं होती। अप्रत्यक्ष प्रत्यायोजन में सत्ता देने वाले और लेने वाले के बीच एक अथवा एक से अधिक मध्यस्थ होते हैं और उच्च अधिकारी अपनी सत्ता को उन मध्यस्थों के माध्यम से ही सत्ता पाने वाले तक पहुंचाता है।

(5) औपचारिक और अनौपचारिक प्रत्यायोजन : जब संगठन के लिखित नियमों, उपनियमों, आदेशों या प्रक्रियाओं के अनुसार प्रत्यायोजन किया जाता है तो वह औपचारिक प्रत्यायोजन कहलाता है। दूसरी ओर संगठन की अनौपचारिक परम्पराओं, रीति–रिवाजों तथा आपसी सद्भाव के आधार पर होने वाला प्रत्यायोजन अनौपचारिक प्रत्यायोजन कहलाता है।

(6) स्थायी और अस्थायी प्रत्यायोजन : जब किसी अधीनस्थ व्यक्ति या इकाई को स्थायी रूप में सत्ता एवं कार्य दे दिए जाते हैं तो स्थायी प्रत्यायोजन कहलाता है। सामान्य परिस्थितियों तथा कुशल कार्य संचालन की स्थिति में स्थायी प्रत्यायोजन भी हो सकता है। लेकिन जब किसी को कुछ समय के लिए प्रत्यायोजन किया जाता है तथा वापिस ले लिया जाता है तो यह अस्थायी प्रत्यायोजन कहलाता है।

(7) सशर्त अथवा शर्तहीन प्रत्यायोजन : सत्ता का प्रत्यायोजन सर्शत भी हो सकता है और अशर्त भी। सशर्त प्रत्यायोजन में सत्ता के प्रत्यायोजन के साथ कुछ शर्तें लगा दी जाती है और उन शर्तों को पूरा करना अधीनस्थ के लिए आवश्यक हो जाता है। शर्तहीन प्रत्यायोजन में कोई शर्त नहीं रखी जाती है तथा अधीनस्थ अधिकारी को निर्णय ले ने और कार्य करनेकी पूरी स्वायत्ता रहती है।

(8) सरल या जटिल प्रत्यायोजन : प्रत्यायोजन के वर्गीकरण में अंतिम स्थान सरल अथवा जटिल प्रत्यायोजन का है। प्राय: छोटे–छोटे संगठनों में उच्च अधिकारी अपने कार्यों के बोझ को हल्का करने के लिए अपने अधीनस्थों का सहयोग लेते हैं और सहयोग लेने के स्वार्थ में उनमें सरल रूप से बिना किसी जटिलता के सत्ता को प्रत्यायोजित कर देते हैं। ये संगठन इतने छोटे और कम महत्व के होते हैं कि हस्तान्तरण की जटिल प्रक्रिया को अपनाना उचित नहीं समझते। दूसरी तरफ जटिल प्रक्रिया की आवश्यकता बड़े संगठनों में होती है जहाँ कार्यबोझ और अधिकार–क्षेत्र काफी विकसित और जटिल होते हैं। इसमें सस्ता का प्रत्यायोजन यूँ ही आसानी से नहीं हो जाता बल्कि प्रत्यायोजन को जटिल निर्धारित प्रतिक्रियाओं से होकर गुजरना पडता है।

टैरी का वर्गीकरण : टैरी ने तीन प्रकार के प्रत्यायोजनों का उल्लेख किया है :

(1) नीचेकी ओर का प्रत्यायोजन
(2) ऊपर की ओर का प्रत्यायोजन
(3) तिरछा प्रत्यायोजन

जब कोई उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थ को सत्ता हस्तान्तरित करता है तो इसे 'नीचे की ओर का प्रत्यायोजन' कहा जाता है। जब अधीनस्थ अधिकारी अपने वरिष्ठ अधिकारी को सत्ता सौंपता है तो इसे 'ऊपर की ओर का प्रत्यायोजन' कहते हैं, जैसे– शेयरहोल्डर अपने बोर्ड ऑफ डायरेक्टर को सत्ता सौंपता है। टैरी के अनुसार तिरछा प्रत्यायोजन वह है जो समान्तर ढंग से इधर–उधर जाता हैं।

प्रत्यायोजन की प्रक्रिया में आनेवाली बाधाएँ

प्रत्यायोजन अपने आप में न तो स्थायी है और न ही असीमित क्योंकि एक सत्ता प्राप्त व्यक्ति जब अपने अधीनस्थों में सत्ता का प्रत्यायोजन करता है तो वह अपने मूलभूत दायित्व एवं जवाबदेहिता से मुक्त नहीं होता है। आमतौर पर देखा जाता है कि उच्चाधिकारी उतनी ही सत्ता का प्रत्यायोजन करता है जितनी सत्ता का उपयोग अधीनस्थ कर्मचारी सुगमता पूर्वक कर सके। किसी भी प्रशासनिक संगठन के लिए असीम सत्ता का प्रत्यायोजन अव्यवस्था एवं अकार्यकुशलता को जन्म देता है। है मैन ने इस संदर्भ में ठीक ही लिखा है कि समस्या यह नहीं है कि सत्ता प्रत्यायोजित की जाती है या नहीं बल्कि महत्वपूर्ण तो यह है कि सत्ता का हस्तान्तरण किस मात्रा में किया जाता है।

प्रत्यायोजन की प्रक्रिया ने आनेवाली बाधाएं तथा सीमाएं निम्नलिखित है :

(1) सत्ता प्रत्यायोजन पर प्रमुख अंकुश देश के संविधान का होता है क्योंकि यदि संविधान ही प्रत्यायोजन पर प्रतिबन्ध लगाये तो सत्ता प्रत्यायोजित ही नहीं की जा सकती है या सत्ता का प्रत्यायोजन उसी सीमा तक होगा जिस सीमा तक प्रत्यायोजन की अनुमति कानून अथवा संविधान प्रदान करता है।

(2) सत्ता का प्रत्यायोजन संसदीय विधियों के द्वारा सीमित हो जाता है। कहां पर, किसे, कितना, किस रूप में सत्ता का प्रत्यायोजन किया जाना है, इसका निर्धारण संसदीय विधियों द्वारा सीमित कर दिया जाता है।

(3) सत्ता का प्रत्यायोजन अधीनस्थ कर्मचारियों की योग्यता और क्षमता को ध्यान में रखकर किया जाता है। क्योंकि अधीनस्थ कर्मचारियों की सीमित योग्यता और क्षमता स्वयं ही सत्ता के प्रत्यायोजन को सीमित कर देती है।

(4) संगठन का आकार भी सत्ता के प्रत्यायोजन को कम या अधिक बना सकता है। छोटे संगठन में सत्ता के प्रत्यायोजन के लिए अधिकतम अवसर उपलब्ध नहीं होते हैं।

(5) प्रशासकीय संगठन का भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजन सत्ता के प्रत्यायोजन पर प्रभाव डालता है, क्योंकि संगठन के कार्य करने का क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से विस्तृत और फैला हुआ न हो तो सत्ता के प्रत्यायोजन की मात्रा कम हो जाती है।

(6) सत्ता के प्रत्यायोजन पर संचार–साधनों का भी असर पड़ता है। संचार–साधनों की यदि कमी है तो प्रत्यायोजन के अवसर कम होते हैं।

(7) कुछ अधिकारों की प्रकृति ही ऐसी है जिनका प्रत्यायोजन सम्भव नहीं हो पाता है। कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि एक प्रबन्धक अपने समन्वय के अधिकार का प्रत्यायोजन कर ही नहीं सकता है क्योंकि ऐसा करके वह अपनेको महत्वहीन बनाना नहीं चाहेगा।

(8) आपातकालीन परिस्थितियों में भी सत्ता का प्रत्यायोजन प्रतिबन्धित हो जाता है। संकटकाल की समस्याओं के समाधान के समय उच्चाधिकारी ही अधिकतर विचार–विमर्श करते हैं तथा निर्णय लेने में अपनी बुद्धि का प्रयोग करतेहैं। संकटकालीन परिस्थितियों में सत्ता के प्रत्यायोजित होने की सम्भावना कम हो जाती है।

(9) सत्ता के प्रत्यायोजन पर एक प्रमुख सीमा यह लग जाती है कि कोई भी उच्च अधिकारी नई नीतियों और योजनाओं को स्वीकार करनेका अधिकार अपने अधीनस्थों को नहीं देना चाहता है।

(10) सत्ता के प्रत्यायोजन पर एक अन्य प्रकार की सीमा यह लगा दी जाती है कि उच्चाधिकारी अपने अधीनस्थों को नियम–निर्माण का अधिकार नहीं सौप सकते हैं।

प्रभावी प्रत्यायोजन के आवश्यक सिद्धान्त

प्रभावी प्रत्यायोजन के लिए कुछ शर्तों एवं सिद्धान्तों का होना आवश्यक है। प्रमुख विद्वानों के अनुसार प्रत्यायोजन की सफलता के लिए निम्नलिखित शर्तों की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए :

  • (1) प्रो॰ न्यूमैन के अनुसार प्रशासन तथा प्रबन्धकीय व्यवस्था में दोहरा प्रत्यायोजन नहीं होना चाहिए।
  • (2) प्रत्यायोजन के लक्ष्यों एवं उद्देश्यों का स्पष्ट रूप से निर्धारण कर लिया जाना चाहिए।
  • (3) प्रत्यायोजन की स्वीकृति हेतु कर्मचारियों को आवश्यक प्रेरणा दी जानी चाहिए।
  • (4) अधिकारों एवं दायित्वों में समरूपता होनी चाहिए।
  • (5) अधिकारों एवं उत्तरदायित्वों की स्पष्ट विवेचना की जानी चाहिए।
  • (6) प्रत्यायोजन में अधीनस्थ की सामर्थ्य का ध्यान रखा जाना चाहिए।
  • (7) यदि आवश्यक हो तो प्रत्यायोजन के लिए प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
  • (8) अधीनस्थों की क्रियाओं पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया जाना चाहिए।
  • (9) प्रत्यायोजनकर्ता प्रशासनिक दृष्टि से कोई सत्ताधारी और समर्थ पदाधिकारी ही होना चाहिए।
  • (10) प्रत्यायोजन स्पष्ट तथा लिखित होना चाहिए।
  • (11) सत्ता प्रत्यायोजित करते समय अधीनस्थों की योग्यता एवं क्षमता का ध्यान रखा जाना चाहिए। विशेषज्ञों को ही विशिष्ट कार्य सौपना चाहिए।
  • (12) उच्च पदाधिकारी एवं अधीनस्थ पदाधिकारी के मध्य पारस्परिक सहयोग, सद्भाव एवं विश्वास का वातावरण किया जाना चाहिए।
  • (13) जहां तक संभव हो आदेश की एकता के सिद्धान्त का अनुपालन किया जाना चाहिए।
  • (14) उच्च अधिकारियों द्वारा अपने अधीनस्थों की कठिनाईयों आदि के समाधान हेतु पूर्ण अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।
  • (15) प्रत्यायोजन की अंतिम शर्त यह है कि प्रत्यायोजन का सम्बन्ध पद से होना चाहिए, न कि उस पद पर आसीन किसी व्यक्ति विशेष से।

संदर्भ ग्रन्थ सूची

  • 1. चन्द्रप्रकाश भाम्भरी : लोक प्रशासन सिद्धान्त एवं व्यवहार, जय प्रकाश नाथ एण्ड कम्पनी, मेरठ, 1991
  • 2. अशोक कुमार : प्रशासनिक चिन्तक, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, आगरा, 2005
  • 3. एम. लक्ष्मीकान्त : लोकप्रशासन, टाटा मेक्ग्राहिल, नई दिल्ली, 2006
  • 4. आर.के. दुबे, : आधुनिक लोक प्रशासन, लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, आगरा, 2005
  • 5. ए. अवस्थी, एवं एस. आर माहेश्वरी : लोक प्रशासन, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल आगरा, 2002

बाहरी कड़ियाँ