पूर्व
पूर्ण ब्रहामाण्ड को शुन्य माना गया है। शुन्य की आकृति ३६० अंश होकर गोलकार है। यहि नहीं इस अकाश मण्डल में जितने भी गृह है वह लगभग गोल ही है। हमारी पृथ्वी भी गोलकार है। अगर गोलाकार है तो इसका आरम्भ कहां से होगा यह एक बहुत बड़ा प्रशन है जिसका उतर हितचिंतक एस्टरोलोजिकल इंस्टीयट के अनुसन्धान केन्द्र में प्रचार्या विकास ग्रोवर एवं डा;सनिया गर्ग के साथ अन्य सहयोगियों के मनन से मत इस प्रकार है कि-
एक बिन्दु से प्रारम्भ होकर गोलाकार रेखा खिंचते हुए जब उसी बिन्दु पर रेख की समाप्ति होगी तो ही एक वृत की आकृति पूर्ण होगी और यह वृत रेख किसी एक बिन्दु से लगभग एक समान की दूरी पर केन्द्रित होती है जिसे केन्द्र बिन्दु भी कहते हैं। इस नियम को हमारे पुर्वजों ने दर्शण शास्त्रों एवं ज्योतिष के माध्यम से हमें बताया है। शास्त्रों का मत है कि हमारे ग्रह मण्डल में आत्मा का मुख्या स्तोत्र सुर्य है वेदों में सुर्य को ही परमात्मा कह कर सम्बोधित किया गया और आत्मा उसी प्रारम्भ बिन्दु का अंश है।जिवन यात्रा का अन्त आत्मा का परमात्मा से मिलकर ही पूर्ण होता है।
इस मत क अनुसरण करते हुए हितचिंतक समुल्लसित वास्तु शास्त्र के मनिषियो ने दिशा निर्धारण करने के लिए सुर्य को प्रधानता दी है वास्तु शास्त्रों में जिस खण्ड पर सुर्या की पेह्ली किरण पड़ती है उसे ही उस भुखण्ड का पूर्व माना जाता है। और यही इसी भुखण्ड की आत्मा क स्तोत्र बिन्दु बन जात है। इस बिन्दु के अधार पर मुख्यत :आठ दिशायो को निर्धारित किया जाता है।
दिशा ग्यान को पुरातण वास्तु शास्त्रों में अति महत्वपूर्ण मान गया है।इसके बोध के बिना निर्माण को कुल्नाश तक घातक बताया गया है।
प्रासादे सदनेलिन्दे दवारे कुण्डे विशेषत:।
दिंड्मूड्ः कुलनाश :स्यात्तस्मात्सम्शोधयेद्दिश:॥
अर्थात :
देवभवन या राजमन्दिर,गृह ,दरवाजे के वाहर चोतरा ,द्व्वार कुण्ड इनमें विशेषकर दिशा का सही ग्यान न होने से कुल्नाश होत है। इसलिये गृह निर्माण के पुर्व दिशा का साधन करना चाहिये। वास्तु शास्त्रो में शं्कु स्थापित कर वर्षो प्रायान्त दिशा -बोध के कई उदाहरण प्राप्त होते हैं। इनमें मान्सार ,अप्राजितापृच्छ ,राज्वल्लभमाण्ड्न ,मनुष्यालयचन्द्रिका ,कश्यपशिल्प आदि कयी ग्रन्थ इस्मे प्रमुख है। श़ंड्कु मुख्यत :दो प्रकार के प्रयोग होते रहे हैं। प्रथमत :जिनका शिर्ष्भाग नोकिला तथा दूसरा छत्र के समान होत था।
श्ंडकु को स्थापित कर संक्राति के अनुसार इसकी छाया को राशि में प्रवेश के स्थान पर चिन्हित कर भुखन्ड पर भवन बनाने वालो के लिये भविषवानिययो का विवरण भी प्रपात होता है परन्तु समतय अनुसार इस विधि में कम्पास से धरती के चुम्वभकिया क्षेत्र प्रभाव का आंकलण आसान होने के कारण शंड्कु स्थपना क प्रचलण लगभग बन्द हो गया है। वास्तु में शंड्कु स्थापित कर दिशा क बेह्द विस्तृत एवं व्यापक अर्थ है।इन चिन्हो द्वारा भुमि के प्रभावित होने वाले खण्डोपर प्राभाव कर परीक्षण तथा शोधन करने के उपारान्त ही उसके ऊपर किये जाने वाले निर्माण आदि क निर्णय किय जात रहा है।
वास्तु शास्त्रो में जिन आठ दिशायो क प्रभाव मुख्यत माना गया है उनमें प्रमुख पूर्व ,से शुरु होकेर घडी के क्रम के अनुसार आग्नेया ,दक्षिण,नेऋत्य,पक्षिम ,वायव्या,उतर,ईशान तक है।
Bold textपूर्व दिशा को अगर सधारण्त :देखे तो यह २२।५ अंश ईशान की ओर तथा २२।५ अंश अग्नेय की ओर कुल ४५ अंश होती है।
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पूर्व भूगोल में एक दिशा है।यह एक के चार प्रमुख दिशा में से एक है ओं या अंक, पश्चिम के विपरीत कम्पास और सही कोण उत्तर और दक्षिण के लिए हैं।पूर्व की ओर, जो पृथ्वी अपने अक्ष के बारे में rotates दिशा है और इसलिए जिसमें से सूर्य की वृद्धि करने के लिए प्रकट होता है जो सामान्य दिशा है। हालांकि, सूरज के खगोल विज्ञान में पूर्व की ओर विपरीत दिशा में रोटेशन के संबंध में है, तो यह जो से rotates दिशा है परिभाषित किया गया है।
व्युत्पत्तिशास्त्र
पूर्व की व्युत्पत्तिशास्त्र एक प्रोटोटाइप से भारत-भोर के लिए यूरोपीय भाषा का शब्द है, * hausos है।Cf. लाटिन Aurora और ग्रीक eōs.Eostre, सुबह के एक जर्मन देवी, दोनों सुबह और कार्डिनल बिंदु के एक अवतार गया होगा।
सम्मेलन से, एक साधारण स्थलीय नक्शा तो सही पक्ष पूरब है उन्मुख है। नवजागरण से यह सम्मेलन तिथियाँ.कई मध्ययुगीन नक्शे पूर्व (पूर्व) पूर्व के साथ शीर्ष पर है, जो क्रिया अभिविन्यास का स्रोत है उन्मुख रहे थे।
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