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पुरुष सूक्त

पुरुषसूक्त ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त यानि मंत्र संग्रह (10.90) है, जिसमे पुरुष की चर्चा हुई है और उसके अंगों का वर्णन है। इसको वैदिक ईश्वर का स्वरूप मानते हैैं । विभिन्न अंगों में चारों वर्णों, मन, प्राण, नेत्र इत्यादि की बातें कहीं गई हैैं। यही श्लोक यजुर्वेद (31वें अध्याय) और अथर्ववेद में भी आया है। क्योकि इस सूक्त मेे अनेक बाार यज्ञ आया है और यज्ञ की ही चर्चा यजुर्वेद में हुई है।

पुरुष सूक्त के आरंभिक दो मंत्र और सायण कृत भाष्य

वेदों (और सांख्य शास्त्र में) में पुरुष शब्द का अर्थ जीवात्मा तथा परमात्मा आया है, पुरुष लिंग के लिए पुमान और पुंस जैसे मूलों का इस्तेमाल होता है। पुम् मूल से ही नपुंसकता जैसे शब्द बने हैं।

श्लोक

सूक्त इस प्रकार है -

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतोवृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्॥१
पुरुष एवेदम् सर्वं यद्भूतम् यच्च भव्यम्। उतामृतत्वस्येशानो यदह्नेनाऽतिरोहति॥२
एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पुरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥३॥
त्रिपादूर्ध्वं उदैत् पुरुषः पादोस्येहा पुनः। ततो विश्वं व्यक्रामच्छाशनान शने अभि॥४
तस्माद्विराडजायत विराजो अधिपुरुषः। सहातो अत्यरिच्यत पश्चात् भूमिमतो पुरः॥५
यत्पुरुषेन हविषा देवा यज्ञमतन्वत। वसन्तो अस्यासीद्दाज्यम् ग्रीष्म इद्ध्म शरद्धविः॥६
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रि सप्त समिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वानाः अबध्नन्पुरुषं पशुं॥७॥
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः। तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥८॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यं। पशून्तांश्चक्रे वायव्यानारण्यान्ग्राम्याश्च ये॥९॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे। छंदांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥१०॥
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः। गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥११॥
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्य कौ बाहू का उरू पादा उच्येते॥१२॥
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्बाहू राजन्य: कृत:। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत॥१३॥
चंद्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिंद्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत॥१४॥
नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१५॥
वेदाहमेतम् पुरुषम् महान्तम् आदित्यवर्णम् तमसस्तु पारे। सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरो नामानि कृत्वा भिवदन्यदास्ते॥१६
धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार शक्रफ्प्रविद्वान् प्रतिशश्चतस्र। तमेव विद्वान् अमृत इह भवति नान्यत्पन्था अयनाय विद्यते॥१७
यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचंत यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवा:॥१८॥

इन श्रुति मंत्रों का अनुवाद निम्नानुसार है -

१. प्रथम श्रुतिमंत्र का आशय (अनुवाद) है कि – “परम पुरुष हजार सिरों वाला, हजार आँखों वाला (और) हजार पैरों वाला है। वह सम्पूर्ण भूमि (पृथिवी) को चारों ही ओर से घेरकर (व्याप्त करके) ‘दश अङ्गुल’ पार (श्रेष्ठ) अवस्था में स्थित है (परा विद्या को अपनाकर संख्यावाची ‘हजार’ शब्द बहुत, अनेक, सर्व, अनन्त, अर्थ सूचित करता है तथा ‘दश’ शब्द साकार, सगुण, आयतनवान, बोधगम्य, सम्यक् अवस्था को प्रकट करता है; अतः यह श्रुतिमंत्र परम पुरुष को इन चारों ही अवस्था में अनेक सिर, पैर, आँख वाला होना प्रकट करता है और ‘तिष्ठद्दशाङ्गुलम्’ पदावली उस पुरुष को ‘साकार अङ्गुलीभर परिमाण’ या अङ्गुली निर्दिष्ट अवस्था में स्थित हो जाना प्रकट करती है।) ॥“

२. द्वितीय श्रुतिमंत्र का आशय (अनुवाद) है कि- ‘यह समस्त जगत परम पुरुष परमात्मा ही है । जो अब से पहले हो चुका है, जो भविष्य में होने वाला है, और जो इस समय अन्न के द्वारा (अण्डज, जरायुज, उद्भिज्ज और स्वेदज प्राणीसमुदाय) वृद्धि को प्राप्त हो रहा है, यह सब वही अमृतस्वरुप सबका नियन्ता परम पुरुष है ।’

३. तृतीय श्रुतिमंत्र का आशय (अनुवाद) है कि- “इस प्रकार की यह इतनी सब (तीनों ही काल में व्याप्त दृश्य जगतरूप) उस पुरुष की महिमा है। वह हिरण्यगर्भ अमृतपुरुष तो इससे बढ़कर ज्योतिर्मय त्रिपाद स्थिर अवस्था को धारण कर, द्युलोक में स्थित हो गया है। उसका यह एकपाद अर्थात् यह एक चौथाई भाग ही यहाँ इस अधोलोक (पृथिवी लोक) में विश्वरूप प्राणीसमुदाय को धारण करने वाला है।””

४ थे श्रुति मंत्र का आशय (अनुवाद) है कि - “तीन पाद् ऊर्ध्व स्थिर अवस्था को धारण करने वाला विराट् पुरुष इस जगत् से ऊपर उठा हुआ अर्थात् गुण-दोष से रहित उत्कृष्ट (श्रेष्ठ) है। यह (= तीन चौथाई भाग) ऊपर द्युलोक में (प्रकाशवान अवस्था में) सदैव विद्यमान बना रहता है। इस विराट्पुरुष का यह एकपाद अर्थात् यह एक चौथाई भाग ही पुनः होता अर्थात् जीव-जगत् रूप में यहाँ बार-बार उत्पत्ति और लय प्रक्रिया को अपनाता है। उस पुरुष ने ही इन सब खाने वाले तथा नहीं खाने वाले (अर्थात् चार प्रकार के अन्न खाने वाले प्राणी समुदाय- स्वेदज, उद्भिज्ज, अण्डज और जरायुज तथा अन्न नहीं खाने वाले पाँच प्रकार के महाभूत- आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी आधारित सकल चर-अचर, जड़-चेतन स्वरूप) को इस सम्पूर्ण विश्वधरा पर फैलाया है अर्थात् सर्वत्र विद्यमान यह ‘नौ प्रकार’ का परमपुरुष परमात्मा का प्रकट विराट् पुरुषरूप (जगतरूप) है।”

१३वें श्लोक का अनुवाद है - मुख से ब्राह्मण ,राजन्य मतलब क्षत्रिय बाहू से,वैश्य उरू से, शूद्र पांव से जन्मते है| [1]

१४वें श्लोक का अनुवाद है - चंद्रमा मन से, सूर्य चक्षु(आँख) से, मुख आदि इंद्रियों से अग्नि तथा प्राणों से वायु जन्मते हैं।

"जन्मना जायते शूद्र:, कर्मणा द्विज उच्यते-मनुस्मृति।" जन्म से जो शूद्र होते हैं, कर्म से वे द्विज कहलाते हैं।


इसके अतिरिक्त यज्ञ का वर्णन भी है जो सृजन की प्रक्रिया को दर्शाता है।

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. जैसे कि शतपथ ब्राह्मण में लिखा है - यस्मादेते मुख्यास्तान्मुखतो ह्यसृज्यन्त, यानि जिनको मुख्य कार्यों के लिए शरीर के मुख जैसा (महत्व का) बनाया।