पालि भाषा
पालि भारत की सबसे प्राचीन ज्ञात भाषाओं में एक है जिसे भारत की सबसे प्राचीन ज्ञात लिपि ब्राम्ही लिपि में लिखा जाता था। इसका प्रमाण सम्राट अशोक के शिलालेखों और स्तंभों से प्राप्त होता है। बुद्धकाल में पालि भाषा भारत के जनमानस की भाषा थी। तथागत बुद्ध ने अपने उपदेश पालि में ही दिए है। बौद्ध धर्म के प्रमुख ग्रंथ त्रिपिटक की भाषा भी पालि ही है। पाली भाषा को 'प्रथम प्राकृत' की संज्ञा दी जाती है।
कुछ इतिहासकार पाली को संस्कृत का अपभ्रंश मानते हैं क्योंकि पालि भाषा में ऋ, क्ष, त्र, ज्ञ, ऐ, औ अक्षर नही हैं। संस्कृत का सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में ऋ से ये आसानी से समझा जा सकता है कि पालि भाषा ही संस्कृत का अपभ्रंश है। संस्कृत में 13 स्वर, पालि भाषा में 10 स्वर, प्राकृत में 10 स्वर, अपभ्रंश में 8 तथा हिन्दी में 11 स्वर होते है। पालि भाषा के सर्वप्रथम वैयाकरण कच्चायन थे। उन्होंने पाली भाषा में कुल 41 ध्वनियाँ बताई हैं।
- पालि भाषा का एक अनुच्छेद
- इदानि सामञ्ञफलसुत्तस्स संवण्णनाक्कमो अनुप्पत्तोति दस्सेतुं ‘‘एवं…पे… सुत्त’’न्तिआदिमाह। तत्थ अनुपुब्बपदवण्णनाति अनुक्कमेन पदवण्णना, पदं पदं पति अनुक्कमेन वण्णनाति वुत्तं होति। पुब्बे वुत्तञ्हि, उत्तानं वा पदमञ्ञत्र वण्णनापि ‘‘अनुपुब्बपदवण्णना’’ त्वेव वुच्चति। एवञ्च कत्वा ‘‘अपुब्बपदवण्णना’’तिपि पठन्ति, पुब्बे अवण्णितपदवण्णनाति अत्थो। दुग्गजनपदट्ठानविसेससम्पदादियोगतो पधानभावेन राजूहि गहितट्ठेन एवंनामकं, न पन नाममत्तेनाति आह ‘‘तञ्ही’’तिआदि। ननु महावग्गे महागोविन्दसुत्ते आगतो एस पुरोहितो एव, न राजा, कस्मा सो राजसद्दवचनीयभावेन गहितोति? महागोविन्देन पुरोहितेन परिग्गहितम्पि चेतं रेणुना नाम मगधराजेन परिग्गहितमेवाति अत्थसम्भवतो एवं वुत्तं, न पन सो राजसद्दवचनीयभावेन गहितो तस्स राजाभावतो। महागोविन्दपरिग्गहितभावकित्तनञ्हि तदा रेणुरञ्ञा परिग्गहितभावूपलक्खणं। सो हि तस्स सब्बकिच्चकारको पुरोहितो, इदम्पि च लोके समुदाचिण्णं ‘‘राजकम्मपसुतेन कतम्पि रञ्ञा कत’’न्ति। इदं वुत्तं होति – मन्धातुरञ्ञा चेव महागोविन्दं बोधिसत्तं पुरोहितमाणापेत्वा रेणुरञ्ञा च अञ्ञेहि च राजूहि परिग्गहितत्ता राजगहन्ति। केचि पन ‘‘महागोविन्दो’’ति महानुभावो एको पुरातनो राजाति वदन्ति। परिग्गहितत्ताति राजधानीभावेन परिग्गहितत्ता। गय्हतीति हि गहं, राजूनं, राजूहि वा गहन्ति राजगहं। नगरसद्दापेक्खाय नपुंसकनिद्देसो।
- -- दीघनिकाये सीलक्खन्धवग्गअभिनवटीका (दुतियो भागो), सामञ्ञफलसुत्तवण्णना, राजामच्चकथावण्णना
'पालि' शब्द का निरुक्त
पालि शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों के नाना मत पाए जाते हैं। किसी ने इसे 'पाठ' शब्द से तथा किसी ने पायड (प्राकृत) से उत्पन्न करने का प्रयत्न किया है। मैक्स वैलेसर नामक एक जर्मन विद्वान् ने पालि को 'पाटलि' का संक्षिप्त रूप बताकर यह मत व्यक्त किया है कि उसका अर्थ पाटलिपुत्र की प्राचीन भाषा से है। इन व्युत्पत्तियों की अपेक्षा जिन दो मतों की ओर विद्वानों का अधिक झुकाव है, उनमें से एक तो है पं॰ विधुशेखर भट्टाचार्य का मत, जिसके अनुसार पालि, पंक्ति शब्द से व्युत्पन्न हुआ है। पंक्ति को मराठी में 'पाळी' बोलते है और मराठी में और संस्कृत में पालन शब्द भी है जिसका अर्थ है जिसको लोग पाल-पोसकर बड़ा करते है या पालन का अर्थ जिसका नियम के अनुसार अवलंब या प्रयोग किया जाता है। इस मत का प्रबल समर्थन एक प्राचीन पालि कोश अभिधानप्पदीपिका (12वीं शती ई.) से होता है, क्योंकि उसमें तंति (तंत्र), बुद्धवचन, पंति (पंक्ति) और पालि इन शब्दों मे भी स्पष्ट ही पालि का अर्थ पंक्ति ही है। पूर्वोक्त दो अर्थों में पालि के जो प्रयोग मिलते हैं, उनकी भी इस अर्थ से सार्थकता सिद्ध हो जाती है। बुद्धवचनों की पंक्ति या पाठ की पंक्ति का अर्थ बुद्धघोष के प्रयोगों में बैठ जाता है। तथापि ध्वनिविज्ञान के अनुसार पंक्ति शब्द से पालि की व्युत्पत्ति नहीं बैठाई जा सकती। उसकी अपेक्षा पंक्ति के अर्थ में प्रचलित देशी शब्द पालि, पाठ्ठ, पाडू से ही इस शब्द का सबंध जोड़ना अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। पालि शब्द पीछे संस्कृत में भी प्रचलित हुआ पाया जाता है। अभिधानप्पदीपिका में जो पालि की व्युत्पत्ति "पालेति रक्खतीति पालि", इस प्रकार बतलाई गई है उससे भी इस मत का समर्थन होता है। किंतु "पालि महाव्याकरण" के कर्ता भिक्षु जगदीश कश्यप ने पालि को पंक्ति के अर्थ में लेने के विषय में कुछ आपत्तियाँ उठाई हैं और उसे मूल त्रिपिटक ग्रंथों में अनेक स्थानों पर प्रयुक्त 'परीयाय' (पर्याय) शब्द से व्युत्पन्न बतलाने का प्रयत्न किया है। सम्राट् अशोक के भाब्रू शिलालेख में त्रिपिटक के 'धम्मपरियाय' शब्द स्थान पर मागधी प्रवृत्ति के अनुसार 'धम्म पलियाय' शब्द का प्रयोग पाया जाता है, जिसका अर्थ बुद्ध-उपदेश या वचन होता है। कश्यप जी के अनुसार इसी पलियाय शरण से पालि की व्युत्पत्ति हुई।
मूल त्रिपिटक में भाषा का कहीं कोई नाम नहीं मिलता। किन्तु बुद्धघोष आदि आचार्यों ने बुद्ध के उपदेशों की भाषा को मागधी कहा है। विसुद्धिमग्ग एवं महावंस में इस मागधी को सब प्राणियों की मूलभाषा कहा गया है। उसके स्थान पर पालि शब्द का प्रयोग प्राय: 14वीं शती ई. के पूर्व नहीं पाया जाता। हाँ, बुद्धघोष ने अपनी अट्ठकथाओं में पालि शब्द का प्रयोग किया है, किंतु यह भाषा के अर्थ में नहीं, बुद्धवचन अथवा मूलत्रिपिटक के पाठ के अर्थ में किया है और वह भी प्राय: उस पाठ को अट्ठकथा से भिन्न दिखलाने के लिए। इस प्रकार कहीं उन्होंने कहा है कि इसकी पालि इस प्रकार है, किंतु अट्ठकथा में ऐसा है, अथवा यह बात न पालि में है और न अट्ठकथा में आई है। बुद्धघोष के समय से कुछ पूर्व लिखे गए दीपवंस में तथा उनके पश्चात्कालीन महावंस आदि रचनाओं में भी पालि शब्द का इन्हीं दो अर्थों में प्रयोग किया गया पाया जाता है। इसी अर्थप्रयोग से क्रमशः पालि शब्द उस साहित्य तथा उसकी भाषा के लिए भी किया जाने लगा।
पालि तथा अन्य मध्ययुगीन आर्यभाषाएँ
भाषा की दृष्टि से पालि उस मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा का एक रूप है जिसका विकास लगभग ई.पू. छठी शती से माना जाता है। उससे पूर्व की आदियुगीन भारतीय आर्यभाषा का स्वरूप वेदों तथा ब्राह्मणों, उपनिषदों एवं रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में प्राप्त होता है, जिन्हें 'वैदिक भाषा' एवं 'संस्कृत भाषा' कहते हैं। वैदिक भाषा एवं संस्कृत की अपेक्षा मध्यकालीन भाषाओं का भेद प्रमुखता से निम्न बातों में पाया जाता है :
- ध्वनियों में ऋ, लृ, ऐ, औ - इन स्वरों का अभाव,
- ए और ओ की ह्रस्व ध्वनियों का विकास,
- श्, ष्, स् इन तीनों ऊष्मों के स्थान पर किसी एकमात्र का प्रयोग (सामान्यतः स का प्रयोग)
- विसर्ग ( ः ) का सर्वथा अभाव तथा असवर्णसंयुक्त व्यंजनों को असंयुक्त बनाने अथवा सवर्ण संयोग में परिवर्तित करने की प्रवृत्ति।
व्याकरण की दृष्टि से
- पुल्लिंग और नपुंसक लिंग में अभेद और व्यत्यय,
- कारकों एवं क्रियारूपों में संकोच,
- हलन्त रूपों का अभाव,
- कियाओं में परस्मैपद, आत्मनेपद तथा भवादि, अदादि गणों के भेद का लोप।
ये विशेषताएँ मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के सामान्य लक्षण हैं और देश की उन लोकभाषाओं में पाए जाते हैं जिनका सुप्रचार उक्त अवधि से कोई दो हजार वर्ष तक रहा और जिनका बहुत-सा साहित्य भी उपलब्ध है।
काल के आधार पर प्राकृत भाषाओं के भेद
उक्त सामान्य लक्षणों के अतिरिक्त इन भाषाओं में अपने-अपने देश और काल की अपेक्षा नाना भेद पाए जाते हैं। काल की दृष्टि से उनके तीन स्तर माने गए हैं -
- प्राक्मध्यकालीन (ई.पू. 600 से ई. सन् 100 तक),
- अन्तर मध्यकालीन (ई. सन् 100 से 600 तक), तथा
- उत्तर मध्यकालीन (ई.सन् 600 से 1000 तक)।
इन सब युगों की भाषाओं को एक सामान्य नाम प्राकृत दिया गया है। इसके प्रथम स्तर को भाषाओं का स्वरूप अशोक की प्रशस्तियों तथा पालि साहित्य में प्राप्त होता है। द्वितीय स्तर की भाषाओं में मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी एवं महाराष्ट्री प्राकृत भाषाएँ है जिनका विपुल साहित्य उपलब्ध है। तृतीय स्तर की भाषाओं को अपभ्रंश एव अवहट्ठ नाम दिए गए हैं।
देशभेद की दृष्टि से प्राकृत भाषाओं के भेद
देशभेद की दृष्टि से मध्यकालीन भाषाओं के भेद का सर्वप्राचीन परिचय मौर्य सम्राट् अशोक (ई.पू. तृतीय शती) की धर्मलिपियों में प्राप्त होता है। इनमें तीन प्रदेशभेद स्पष्ट हैं - पूर्वी, पश्चिमी और पश्चिमोत्तरी। पूर्वी भाषा का स्वरूप धौली और जौगढ़ की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें र के स्थान पर ल तथा आकारांत शब्दों के कर्ताकारक एकवचन की विभक्ति ए सुप्रतिष्ठित है। प्राकृत के वैयाकरणों ने इन प्रवृत्तियों को मागधी प्राकृत के विशेष लक्षणों में गिनाया है। वैयाकरणों के मतानुसार इस मागधी प्राकृत का तीसरा विशेष लक्षण तीनों ऊष्म वर्णों के स्थान पर श् का प्रयोग है। किन्तु अशोक के उक्त लेखों में यह प्रवृत्ति नहीं पाई जाती, क्योंकि यहाँ तीनों ऊष्मों के स्थान पर स् ही प्रयुक्त हुआ है। इसी कारण अशोक की इस पूर्वी प्राकृत को मागधी न कहकर अर्धमागधी का प्राचीन रूप कहना अधिक उपयुक्त है। पश्चिमी भाषा भेद का प्रतिनिधित्व करनेवालों में गिरनार की प्रशस्तियाँ हैं। इनमें र और ल का भेद सुरक्षित है। ऊष्मों के स्थान पर स् का प्रयोग है तथा अकारान्त कर्ता कारक एकवचन रूप ओ में अन्त होता है। इन प्रवृत्तियों से स्पष्ट है कि यह भाषा शौरसेनी का प्राचीन रूप है। पश्चिमोत्तर की भाषा का रूप शहबाजगढ़ी और मानसेरा की प्रशस्तियों में दिखाई देता है। इनमें प्राय: श्, ष्, स् ये तीनों ऊष्म वर्ण अपने स्थान पर सुरक्षित हैं। कहीं-कहीं कुछ व्यत्यय दृष्टिगोचर होता है। रकारयुक्त संयुक्तवर्ण भी दिखाई देते हैं, तथा ज्ञ और न्य के स्थान पर रंञ, का प्रयोग (जैसे रंञो ंञ) पाया जाता है। ये प्रवृत्तियाँ उस भाषा को पैशाची प्राकृत का पूर्व रूप इंगित करती हैं।
पालि त्रिपिटक का कुछ भाग अवश्य ही अशोक के काल में साहित्यिक रूप धारण कर चुका था क्योंकि उसके लाहुलोवाद, मोनेय्यसुत्त आदि सात प्रकरणों का उल्लेख उनकी भाब्रू की प्रशस्ति में हुआ है। किंतु उपलब्ध साहित्य की भाषा में अशोक के पूर्वी शिलालेख की भाषा संबंधी विशेषताओं का प्राय: सर्वथा अभाव है। व्यापक रूप से पालि भाषा का स्वरूप गिरनार प्रशस्ति की भाषा से सर्वाधिक मेल खाता है और इसी कारण पालि मूलतः पूर्वदेशीय नहीं, किन्तु मध्यदेशीय है। जिस विशेषता के कारण पालि मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषा के प्रथम स्तर की गिनी जाती है (द्वितीय स्तर की नही), वह है उसमें मध्यवर्ती अघोष व्यंजनों के लोप तथा महाप्राण वर्णों के स्थान पर ह् के आदेश का अभाव। ये प्रवृत्तियाँ द्वितीय स्तर की भाषाओं के सामान्य लक्षण हैं। हाँ, कहीं कहीं क् त् जैसे अघोष वर्णों के स्थान पर ग् द् आदि सघोष वर्णों का आदेश दिखाई देता है। किंतु यह एक तो अल्पमात्रा में ही है और दूसरे वह प्रथम स्तर की उक्त मर्यादा के भीतर अपेक्षाकृत पश्चात्काल की प्रवृत्ति का द्योतक है।
पालि भाषा एवं मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाओं के संबंध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह भाषाविकास जो संस्कृत से माना जाता है वह ठीक नहीं। यथार्थत: वैदिककाल से ही साहित्यिक भाषा के साथ साथ उससे मिलती जुलती लोकभाषा ने देश एवं कालभेदानुसार साहित्यिक प्राकृत भाषाओं का रूप धारण किया है। पालि भी अपनी पूरी विरासत संस्कृत से नहीं ले रही, क्योंकि उसमें अनके शब्दरूप ऐसे पाए जाते हैं जिसका मेल संस्कृत से नहीं, किंतु वेदों की भाषा से बैठता है। उदाहरणार्थ- पालि एवं अन्य प्राकृतों में तृतीया बहुवचन के देवेर्भि, देवेहि, जैसे रूप मिलते हैं। अकारांत संज्ञाओं के ऐसे रूपों का संस्कृत में सर्वथा अभाव है, किंतु वैदिक में देवेर्भि, उतना ही सुप्रचिलित है जितना देवै:। अतएव उक्त रूप की परंपरा पालि तथा प्राकृतों में वैदिक भाषा से ही उद्भूत मानी जा सकती है। उसी प्रकार पालि में 'यमामसे', 'मासरे', 'कातवे' आदि अनेक रूप ऐसे हैं जिनके प्रत्यय संस्कृत में पाए ही नहीं जाते, किंतु वैदिक भाषा में विद्यमान हैं। पालि के ग्रंथों तथा अशोक की प्रशस्तियों से पूर्व का प्राकृत (लोकभाषाओं) में लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है तथा प्राकृत वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए संस्कृत को प्रकृति मानकर प्राकृत भाषा का व्याकरणात्मक विश्लेषण किया है और इसीलिए यह भ्रांति उत्पन्न हो गई है कि प्राकृत भाषाओं की उत्पत्ति संस्कृत से हुई। पालि के कच्चान, मोग्गल्लान आदि व्याकरणों में यह दोष नहीं पाया जाता, क्योंकि वहाँ भाषा का वर्णन संस्कृत को प्रकृति मानकर नहीं किया गया।
पालि भाषा का उद्भव
पालि भाषा दीर्घकाल तक राज्य भाषा के रूप में भी गौरवान्वित रही है। भगवान बुद्ध ने पालि भाषा में ही उपदेश दिये थे। अशोक के समय में इसकी बहुत उन्नति हुई। उस समय इसका प्रचार भी विभिन्न बाह्य देशों में हुआ। अशोक के समय सभी लेख पालि भाषा में ही लिखे गए थे। यह कई देशो जैसे श्री लंका, बर्मा आदि देशों की धर्म भाषा के रूप में सम्मानित हुई।
‘पाली’ भाषा का उद्भव गौतम बुद्ध से लगभग तीन सौ वर्ष पहले ही हो चुका था, किन्तु उसके प्रारम्भिक साहित्य का पता नहीं लगता। प्रत्येक भाषा का अपना साहित्य प्रारम्भिक अवस्था में कथा, गीत, पहेली आदि के रूप में रहता है और उसकी रूपरेखा तब तक लोगों को जबानी याद रहती है जब तक कि वह लेखबद्ध हो या ग्रंथारूढ न हो जाय। इस काल में पालि भाषा की जैसे उत्पत्ति हुई वैसे ही विकास भी हुआ। प्रारंभ से लेकर लगभग तीन सौ वर्षों तक पालि भाषा जन साधारण के बोलचाल की भाषा रही, किन्तु जिस समय भगवान बुद्ध ने इसे अपने उपदेश के लिए चुना और इसी भाषा में उपदेश देना शुरू किया, तब यह थोड़े ही दिनों में शिक्षित समुदाय की भाषा होने के साथ राजभाषा भी बन गई। ‘पालि’ शब्द का सबसे पहला व्यापक प्रयोग हमें आचार्य बुद्धघोष की अट्टकथाओं और उनके विसुद्धिमग्ग में मिलता है। वहाँ यह बात अपने उत्तर कालीन भाषा संबंधी अर्थ से मुक्त है। आचार्य बुद्धघोष ने दो अर्थों में इसका प्रयोग किया है- (१) बुद्ध-बचन या मूल टिपिटक के अर्थ में (२) पाठ या मूल टिपिटक के पाठ अर्थ में।
‘पालि भाषा’ से तात्पर्य उस भाषा से लेते हैं जिसमें स्थविरवाद बौद्धधर्म का तिपिटक और उसका संपूर्ण उपजीवी साहित्य रखा हुआ है। किन्तु ‘पालि’ शब्द का इस अर्थ में प्रयोग स्वयं पालि साहित्य में भी उन्नीसवीं शताब्दी से पूर्व कभी नहीं किया गया। पालि भाषा मूलतः मागधी भाषा ही थी। इसके उदाहरण कच्चायन-व्याकरण में देखने को मिलते हैं। मागधी ही मूल भाषा है, जिसमें प्रथम कल्प के मनुष्य बोलते थे, जो ही अश्रुत वचन वाले शिशुओं की मूल भाषा है और जिसमें ही बुद्ध ने अपने धर्म का, मूल रूप से भाषण किया। इसी प्रकार महावंश के परिवर्द्धित अंश चूल वंश के परिच्छेद 37की 244 वीं गाथा में कहा गया है “सब्बेसं मूलभासाय मागवाय निरुत्तीया” आदि। निश्चय ही सिंहली परंपरा अपनी इस मान्यता में बड़ी दृढ़ है कि जिसे हम आज पालि कहते हैं, वह बुद्धकालीन भारत में बोली जाने वाली मागध भाषा ही थी। बुद्ध बचनों की भाषा को ही सिंहली परंपरा ‘मागधी’ कहना नहीं चाहती, वह अट्टककथाओं तक की भाषा को बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में मागधी कहना ही अधिक पसन्द करती है।
वैसे इसमें विद्वानों के मत अलग-अलग हैं- आचार्य बुद्धघोष ऐसा मानते हैं कि यह भाषा मूलतः मागधी थी।
डॉ॰ रीज़ देवीड्स का कहना है कि पालि भाषा कोसल की भाषा थी, क्योंकि गौतम बुद्ध कोसल के अंतर्गत शाक्य जनपद के रहने वाले थे। वैस्टरगार्ड एयर ई. कुहन पालि भाषा को उज्जयिनी प्रदेश की भाषा बताते हैं। उनका कहना है कि यदि भाषा की बनावट को देखा जाए और उसकी तुलना अशोक के शिलालेखों से की जाए तो ज्ञात होगा गिनार के लेख की भाषा से पालि मिलती जुलती है।
डॉ॰ ओल्डनबर्ग और ई. मुलर का मत है कि पालि भाषा का उद्गम स्थान कलिंग है। इन दिनों विद्वानों ने कहा है कि कलिंग से ही लंका में धर्मोपदेश का कार्य होता रहा। कलिंग के ही लोगों ने जाकर लंका को आबाद किया था और खंडगिरि के शिलालेखों में पालि का अधिक साम्य है। इन सभी विद्वानों के मत अलग-अलग हैं। गौतम बुद्ध शाक्य जनपद की राजधानी कपिल वस्तु के रहने वाले थे, जो कोसल के अंतर्गत एक गणतन्त्र था। वहाँ जो भाषा थी उसी में गौतम बुद्ध ने अपने उपदेश दिये। वैसे गौतम बुद्ध भाषा सम्बन्धी दुराग्रह के विरोधी थे।
उन्होंने जिस भाषा में उपदेश दिया वह भाषा बिहार कि पूर्व सीमा से लेकर करू (दिल्ली –थानेश्वर) देश तक, मथुरा, उशीरध्वज से लेकर बिन्ध्य पर्वतमाला तक लोग समझते थे। गौतम बुद्ध के महानिर्वाण के एक मास के उपरांत ही उनके उपदेश त्रिपितक के रूप में संग्रहित किए गए थे। अतः इन सारे तथ्यों पर विचार करने से ज्ञात होता है कि पालि भाषा संपूर्ण मध्यदेश की साहित्यक भाषा थी। उस पर कोसल, मगध, काशी, पांचाल, करू, वत्स, सुरसेन, शाक्य, कोलिय, मल्ल, वज्जी, विदेह, अंग आदि जनपदो एवं गणों की प्रादेशिक बोलियों का प्रभाव था। अतः हम कह सकते हैं कि पालि भाषा मध्यदेश की भाषा थी और मध्यदेश ही उसका उद्गम स्थान था, वैसे भी भाषा किसी खास नगर या देश की वस्तु नहीं होती। वह तो समुदाय, जन, एवं देश से अपना संबंध रखती है।
संस्कृत-पालि तुल्य शब्दावली
नीचे कुछ प्रमुख शब्दों के तुल्य पालि शब्द दिये गये हैं-
संस्कृत | पालि |
---|---|
अक्षर | अक्खर |
आर्य | अरिय |
गोप | गुप्त |
भिक्षु | भिक्खु |
चक्र | चक्क |
धर्म | धम्म |
दुःख | दुक्ख |
कर्म | कम्म |
काम | काम |
क्षत्रिय | खत्तिय |
क्षेत्र | खेत्त |
मार्ग | मग्ग |
लोप | लुप्त |
मोक्ष | मोक्ख |
निर्वाण | निब्बान |
सर्व | सब्ब |
सत्य | सच्च |
व्याकरण
संज्ञा
अ-कार
पु. (लोक "संसार") | नपुस. (यान "भारवाहक, गाड़ी") | |||
---|---|---|---|---|
एक. | बहु. | एक. | बहु. | |
कर्ता | लोको | लोका | यानं | यानानि |
संबोधन | लोक | |||
कर्म | लोकं | लोके | ||
करण | लोकेना | लोकेहि | यानेना | यानेहि |
संप्रदान | लोका (लोकम्हा, लोकस्मा; लोकतो) | याना (यानम्हा, यानस्मा; यानतो) | ||
अपादान | लोकस्स (लोकाय) | लोकानां | यानस्स (यानाया) | यानानां |
संबंध | लोकस्स | लोकानां | यानस्स | यानानां |
अधिकरण | लोके (लोकस्मिय) | लोकेसु | याने (यानस्मिय) | यानेसु |
आ-कार
स्त्री (गाथा- "कथा कहानी") | ||
---|---|---|
एक. | बहु. | |
कर्म | गाथा | गाथायो |
संबोधन | गाथे | |
कर्म | गाथां | |
करण | गाथाय | गाथाहि |
संप्रदान | ||
आपादान | गाथानां | |
संबंध | ||
अधिकरण | गाथाय, गाथायां | गाथासु |
इ-कार
पु (इसि- "सीर") | नपुंसक (अक्खि- "आग") | |||
---|---|---|---|---|
एक | बहु | एक | बहु | |
कर्ता | इसि | इसयो, इसी | अक्खि, अक्खिं | अक्खीनि |
संबोधन | ||||
कर्म | इसिं | |||
करण | इसिना | इसीहि | अक्खिना | अक्खीहि |
संप्रदान | इसिना, इसितो | अक्खिना, अक्खितो | ||
अपादान | इसिनो | इसिनं | अक्खिनो | अक्खीनं |
संबंध | इसिस्स | इसिनो | अक्खिस्स | अक्खिनो |
अधिकरण | इसिस्मिं | इसीसु | अक्खिस्मिं | अक्खीसु |
उ-कार
पु. (भिक्खु "मठवासी") | नपुस. (चक्खु- "आँख") | |||
---|---|---|---|---|
कर्ता | भिक्खु | , भिक्खू | चक्खु, चक्खुं | चक्खूनि |
संबोधन | ||||
कर्म | भिक्खुं | |||
करण | भिक्खुना | भिक्खूहि | चक्खुना | चक्खूहि |
संप्रदान | ||||
अपादान | भिक्खुनो | भिक्खूनं | चक्खुनो | चक्खूनं |
संबंध | भिक्खुस्स, भिक्खुनो | भिक्खूनं, भिक्खुन्नं | चक्खुस्स, चक्खुनो | चक्खूनं, चक्खुन्नं |
अधिकरण | भिक्खुस्मिं | भिक्खूसु | चक्खुस्मिं | चक्खूसु |
पालि के कुछ वाक्य
- नमो तस्स अरहतो भगवतो सम्मासम्बुद्धस्स (Homage to Him, Blessed One, Arahant, truly and completely Awakened One.)
- बुद्धं सरणं गच्छामि (मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ।)
- धम्मं सरणं गच्छामि (मैं धर्म की शरण में जाता हूँ।)
- संघं सरणं गच्छामि (मैं संघ की शरण में जाता हूँ।)
- सब्बदानज धम्मदानज जिनाति (The gift of Dharma conquers all gifts.)
- सब्बरासज धम्मरासो जिनाति (The taste of Dharma excels all tastes.)
- सब्बरतिज धम्मरति जिनाति (The joy of Dharma excels all joys.)
- तन्हक्कायो सब्बदुक्खज जिनाति (The destruction of thirst conquers all suffering.)
- सब्बे संखार अनिच्चति ( सारा संसार अनित्य है।)
- एस मग्गो विसुद्धिय (यह विशुद्धि का मार्ग है।)
- परिनिब्बूते भगवति सह परिनिब्बान (When the Blessed One had passed away, simultaneously with his Parinibbana,)
पालि के प्रसिद्ध ग्रन्थ
पालि के प्रसिद्ध व्याकरण ग्रन्थ, काव्यशास्त्र के ग्रन्थ, छन्दशास्त्र के ग्रन्थ और कोश ग्रन्थ अपने से पुराने उस-उस विषय के संस्कृत ग्रन्थों से प्रेरित हैं, जैसे-
- कच्चानव्याकरण -- संस्कृत के 'कातन्त्र व्याकरण' पर आधारित है।
- मोग्गल्लान व्यकरण -- संस्कृत के चान्द्र व्याकरण पर आधारित है।
- अभिधानप्पदीपिका (पालि का कोश ग्रन्थ) -- संस्कृत के अमरकोश पर आधारित है।
- सुबोधालंकार () -- काव्यादर्श पर आधारित है।
- उत्तोदय -- संस्कृत ग्रन्थ वृत्तरत्नाकर पर आधारित है।[1]
सन्दर्भ
- संदर्भ ग्रंथ-
- डॉ॰ रामअवध पाण्डेय डॉ. रविनाथ मिश्र. (2011). पालि व्याकरण . नई दिल्ली: मोतीलाल बनारसीदास।
- भारत सिंह उपाध्याय. (2000). पालि साहित्य का इतिहास . इलाहाबाद : हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग।
- भिक्षु धर्मरक्षित (1971). पालि साहित्य का इतिहस . वाराणसी : रेनबो प्रिन्टर्स।
यह भी देखिए
- पालि भाषा का साहित्य
- पालि व्याकरण
- पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का कोश वाङ्मय
- बौद्ध धम्म की पालि साहित्य परंपरा
- संस्कृत-पालि तुल्य शब्दावली
- संस्कृत
- भारत की भाषाएँ
- प्राकृत भाषा
- गान्धारी भाषा
बाहरी कड़ियाँ
- पालि महाव्याकरण (भिक्षु जगदीश काश्यप)
- पालि भाषा : व्युत्पत्ति, भाषा-क्षेत्र एवं भाषिक प्रवृत्तियाँ Archived 2013-10-25 at the वेबैक मशीन (महावीर सरन जैन)
- Pāli at Ethnologue
- Encyclopaedic Dictionary of Pali Literature (Google book By B Barauh)
शब्दकोश :
- पालि-हिन्दी शब्दकोश
- Pali Dictionary (https://dictionary.sutta.org/ ; Word meaning is dispalyed from many dictionaries)
- पालि-हिन्दी कोश (गूगल पुस्तक ; लेखक - भदन्त आनन्द कौशल्यायन)
- पालि --> अंग्रेजी शब्दकोश
- Free/Public-Domain पालि बौद्ध शब्दकोश Archived 2012-10-08 at the वेबैक मशीन (PDF प्रारूप में)
- Pali.dk Archived 2008-04-04 at the वेबैक मशीन - A newly started project aimed at creating free online Pāli dictionaries and educational resources.
- English-Pali Dictionary by Metta Net, Sri Lanka
- The Pali Text Society's Pali-EnglishDictionary
- पालि-अंग्रेजी शब्दकोश (संस्कृत विक्शनरी)
ग्रंथ :
- पालि टेक्स्ट सोसायटी
- Digital Pāli Reader -- many granthas including byakaran
- Pali Tipitak -- many granthas including byakaran
- तिपिटक - Free searchable online database of Pali literature, including the whole Canon
- Complete Pāli Canon Archived 2008-04-11 at the वेबैक मशीन in romanized Pali and Sinhala, mostly also in English translation
- Comprehensive list of Pāli texts on Wikisource
- जैन ग्रंथ Archived 2007-03-11 at the वेबैक मशीन - इसमें से कुछ पालि भाषा में हैं।
पालि अध्ययन :
- पालि भाषा सीखने की मार्गदर्शिका Archived 2007-09-29 at the वेबैक मशीन
- A textbook to teach yourself Pali Archived 2007-09-27 at the वेबैक मशीन (by Narada Thera)
- A reference work on the grammar of the Pali language Archived 2007-09-27 at the वेबैक मशीन (by G Duroiselle)
- "Pali Primer" Archived 2006-02-11 at the वेबैक मशीन by Lily De Silva (UTF-8 encoded)
- Free/Public-Domain Elementary Pāli Course--PDF format
- Free/Public-Domain Pāli Course--html format Archived 2008-05-13 at the वेबैक मशीन
- Free/Public-Domain Pāli Grammar (in PDF file)
- A Course in the Pali Language audio lectures by Bhikkhu Bodhi based on Gair & Karunatilleke (1998).
चर्चा समूह :
- Pāli Discussion Forum Archived 2007-09-27 at the वेबैक मशीन
- Yahoo discussion group on Pāli Archived 2007-09-11 at the वेबैक मशीन
- E-Sangha Pāli Discussion Forum: for experts and students Archived 2007-09-27 at the वेबैक मशीन
- Geocities discussion group on Pāli (homepage)
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