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पाबूजी

पाबूजी राठौड़
पाबूजी मंदिर, कोलू
जन्मकोलू
निधनदेचू
घरानाराठौड़ वंश
पिताधाँधल जी
धर्महिन्दू
पाबूजी की फड़ में चित्रित पाबूजी ; राष्ट्रीय संग्रहालय, नयी दिल्ली में रखी एक फड़ चित्रकला

पाबूजी राजस्थान के लोक-देवता हैं जिनकी पूजा राजस्थान और आसपास के क्षेत्रों, गुजरात और सिंध (पाकिस्तान) तक होती है।[1]

पंचपीर में से एक

उपनाम- प्लेग रक्षक लोकदेवता, सर्रा रोग रक्षक लोकदेवता, ऊंटों के लोकदेवता, राड़-फाड़ के लोकदेवता

जन्म – 1239 ईस्वी कोलुमंड,जोधपुर

माता - कमला देवी

पिता - धांधलदेव राठौड़

गुरु - समरथ भारती, गोरखनाथ जी

पत्नी - फूलन देवी, सुप्यारदे(अमरकोट सूरजमल सोढा की पुत्री)

भाई - बुढोजी

अवतार - लक्ष्मण जी का

भतीजा - रुपनाथ झरडा / बालकनाथ

बहने - पैमादे, सोनलदे

भक्त एवं सहयोगी - सावंतजी, डेमाजी, हरमलजी, चांदोजी, सलजी

मुहणोत नैणसी और आंसिया मोडजी के अनुसार पाबूजी का जन्म जूनागाव,बीकानेर में एक अप्सरा से हुआ था।

ऊंट बीमार होने पर पाबूजी की पूजा की जाती है।

घोड़ी - केसर कालमी


देवल चारणी की गायों की रक्षा हेतु अपने विवाह के फेरो के बीच में से जाकर अपने बहनोई जिन्दराव खिंची से युद्ध में लड़ते हुए देंचू नामक स्थान पर वीरगती को प्राप्त हुए।

पाबूजी ने चार ही फेरे लिए थे ।

भतीजे रुपनाथ ने जिन्दराव खिंची को मारकर पाबूजी की हत्या का बदला लिया।

पाबूजी का मंदिर - कोलूमंड, जोधपुर ( अश्वारोही प्रतिमा और बाई और झुकी हुई पाग)

मेला - चैत्र अमावस्या को

पाबूजी की फड़ - भोपा द्वारा वाचन ( वाद्ययंत्र - रावनहत्था )



कथा

प्रचलित वाचिक कथा के अनुसार पाबूजी राठौड़ का जन्म कोलूगढ़ के दुर्गपति के घर हुआ था। यह कथा माँ देवल चारणी के साथ आरंभ होती है जो मारवाड़ में आपने कुटुंब और गाय-घोड़ों के साथ रहती थी । कथा में देवलजी को अद्वितीय सुंदरी और शक्ति (हिंगलाज) का अवतार माना गया है।

देवल माता के पास काले रंग की एक घोड़ी है जिसका नाम कालिमी (या केसर कालमी) है। जायल के सामंत जींदराव खींची को कालिमी घोड़ी पसंद आ जाती है वह उसे प्राप्त करने का प्रयास करता है। परंतु देवलजी जींदराव को कालिमी देना अस्वीकार कर देती है।

डा॰ सहल पाबूजी कथा के सांस्कृतिक इतिहास परंपरा का उल्लेख करते हुए कहते हैं:-[2]

राजस्थान का कौन ऐसा व्यक्ति है, जिसने वीरवर पाबू जी राठौड़ का नाम न सुना हो ? मां देवल चारणी के पास कालमी नामक एक प्रसिद्ध घोड़ी थी, जिसके गुणों से आकर्षित होकर यह राठौड़ वीर उनके पास घोड़ी की याचना करने को पहुँच गया । देवल जी ने कहा कि यह घोड़ी तो उसी को दी जा सकती है, जो मेरी गाएँ घिरने पर उनकी रक्षा के लिए अपने प्राण देने के लिए तैयार हो । यह सुनते ही पाबू जी ने भीष्म प्रतिज्ञा की ।

पानी पवन प्रमाण, धर अंबर हिन्दू धरम ।

अब मोइ धांधल आण, सिर देस्यां गायां सटे ॥

पाबूजी, जिनकी बहन जींदराव से विवाहित थी, को केसर कालिमी प्राप्त होने का समाचार सुनकर जींदराव क्रोधित हो जाता है। अपने अपमान का बदला लेने के लिए वह चारणों की गायों व पशुधन को हांक ले जाता है। जब वीरवर पाबू जी अपने विवाह के अवसर पर देवल जी की गायों के घिरने का समाचार पाते हैं तो प्रतिज्ञा के अनुसार, वह राजकन्या का हाथ छोड़ कर कालमी घोड़ी पर सवार होकर खींची से लड़ने के लिए निकल पड़ते हैं।

जींदराव खींची उस इलाके का एक बलशाली सामंत होता है और उसके सनिक भी संख्या में थे। खींची से युद्ध के लिए पाबूजी के साथ भील, चारण, रबारी व अन्य राजपूत सैनिक थे। आखिर में पाबूजी गायों को छुड़ा देते हैं पर जींदराव खींची से युद्ध में अंत में पाबूजी की मृत्यु हो जाती है और वे स्वर्ग में पहुचते है।[3][4]

इस युद्ध में पाबूजी के बड़े भाई बूरोजी भी शामिल थे। कथा में कुछ भील योद्धाओं के भी नाम मिलते हैं-चंदो, ढेंभों, खापु, पेमलो, खालमल, खंगारो और चासल। हरमल राईका व सलजी सोलंकी भी उनके साथी थे।[5]

आगे चलकर, पाबूजी के बड़े भाई बूरोजी का पुत्र, झरड़ोजी, जींदराव को मार डालता है और अपने पिता और काकोसा पाबूजी की मृत्यु का बदला लेता है ।[5]

कथा-सार

इस कथा में देवल माता, बाहरी सतह पर, एक पशुपालक है। उनका चारण कुटुंब घोड़ों के व्यापारी व मवेशीओं के स्वामी हैं। लेकिन वह वास्तव में एक देवी अवतार हैं, जिन्होंने यह सुनिश्चित करने के लिए मानव रूप धारण किया है कि पाबूजी एक राजपूत के रूप में अपना कर्तव्य पूरा करते हैं, जिसमें गायों की रक्षा करना, अपना वचन रखना और एक न्यायोचित युद्ध लड़ना शामिल है।[6]

पाबूजी के दैवीयकरण के समान, देवल माता को दैवीय गुणों से युक्त वर्णित किया गया है, जिनमें से एक चारण के रूप में उनकी पहचान है, और अंततः आदि देवी, हिंगलाज का अवतार है। वह राजस्थान, सिंध, गुजरात और यहां तक कि बलूचिस्तान सहित 'रेगिस्तान' क्षेत्र के बहुमुखी चारण समुदाय के समान कई भूमिकाएं निभाती हैं।[6]

पाबूजी - समाज सुधारक

पाबूजी के वर्तमान अनुयायी हमेशा एक 'समाज सुधारक' के रूप में उनकी भूमिका पर जोर देते हैं, और इस भूमिका को युद्ध के मैदान में एक साथ रक्तबहाने वाले राजपूत, भील, चारण और रबारी योद्धाओं के रक्त प्रवाह के बारे में कहानी के माध्यम से रेखांकित किया जाता है। जिस समय देवल रक्तप्रवाहों को एक साथ आने से रोकने के लिए उनके बीच अवरोधों का निर्माण करना शुरू करती हैं, तो पाबूजी की आकाश से आवाज़ आती है और उन्हें विभिन्न रक्तधाराओं को एक होने देने के लिए कहती है। कहानी यह दर्शाने के लिए बताई जाती है कि पाबूजी ने अपने सभी साथियों को समान दर्जा दिया था।[7]

समकालीन संदर्भ

पाबूजी महाकाव्य का सोलहवीं शताब्दी से प्रचलन में होना प्रतीत होता है । सबसे पुराना पाबूजी काव्य मेहाजी वीठू द्वारा रचित 'पाबूजी रा छंद' प्रतीत होता है, जिसके बाद और भी कई रचनाएँ 'पाबूजी रा दुहा', 'पाबू प्रकाश', 'पाबूजी रा कवित्त' आदि शीर्षकों के साथ की गई है। इस कथा के एक गद्य संस्करण को मुन्हता नैणसी ने अपनी ख्यात में 'वात पाबूजी री' के रूप में उद्धृत किया था।[5]

पाबू-प्रकाश (19वीं सदी)

मोड़जी आशिया का जन्म भाडियावास गाँव में आशिया चारणों के प्रसिद्ध परिवार में हुआ था, जिसे कविराजा बांकीदास और उनके भाई बुद्धजी (बुधदान) के नाम से जाना जाता था। मोड़जी बुद्धजी के पुत्र थे और डिंगल के उच्च कोटि के कवि थे। उनका कोई पुत्र नहीं था और इसलिए उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिए पाबूजी का इष्ट रखा। कहा जाता है कि उनके एक नहीं बल्कि तीन पुत्र हुए और सबसे बड़े पुत्र का नाम पाबूदान रखा। अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति में उन्होंने 'पाबू प्रकाश' नामक विशाल ग्रंथ की रचना की जिसमें पाबूजी के जीवन पर विभिन्न छंदों-दुहा, साराजी, कवित्त आदि में 3000 से अधिक श्लोक हैं।[8]

दि एपिक ऑफ़ पाबूजी

पाबूजी की कथा का संकलन और इसे अंग्रेज़ी में लिपिबद्ध करने का प्रयास जॉन डी. स्मिथ द्वारा दि एपिक ऑफ़ पाबूजी के नाम से किया गया। यह 1991 में कैंब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुआ। इसका एक संक्षिप्त वर्शन वर्ष 2005 में छपा जो वर्तमान में प्राप्य है। उक्त कथा का एक विस्तृत विवेचन ए. हिल्टबेटल द्वारा किया गया है।[9]

कोलू नामक गाँव, जिसे कोलू पाबूजी भी कहते हैं, वर्तमान फलौदी के पास है। हाल ही में राजस्थान सरकार के मंत्री ओंकारसिंह लखावत ने कोलू फलौदी में पाबूजी के पैनोरमा की स्थापना की है।[10]

सन्दर्भ

  1. Thapar, Romila (2005). Somanatha: The Many Voices of a History (अंग्रेज़ी में). Verso. पृ॰ 152. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-84467-020-8. अभिगमन तिथि 8 दिसम्बर 2021.
  2. Dr.kanhaiya Lal (1945). Vyaktitva Aur Kartitv.
  3. Heesterman, J. C.; Hoek, Albert W. Van den; Kolff, Dirk H. A.; Oort, M. S. (1992). Ritual, State, and History in South Asia: Essays in Honour of J.C. Heesterman (अंग्रेज़ी में). BRILL. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-90-04-09467-3. अभिगमन तिथि 8 दिसम्बर 2021.
  4. Kothiyal, Tanuja (2016). Nomadic Narratives: A History of Mobility and Identity in the Great Indian Desert (अंग्रेज़ी में). Cambridge University Press. पपृ॰ 232–234. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-107-08031-7. अभिगमन तिथि 8 दिसम्बर 2021.
  5. Kothiyal, Tanuja (2016-03-14). Nomadic Narratives: A History of Mobility and Identity in the Great Indian Desert (अंग्रेज़ी में). Cambridge University Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-316-67389-8.
  6. Chandra, Yashaswini (2021-01-22). The Tale of the Horse: A History of India on Horseback (अंग्रेज़ी में). Pan Macmillan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-89109-92-4.
  7. Jansen, Jan; Maier, Hendrik M. J. (2004). Epic Adventures: Heroic Narrative in the Oral Performance Traditions of Four Continents (अंग्रेज़ी में). Lit. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-3-8258-6758-4.
  8. Datta, Amaresh (1987). Encyclopaedia of Indian Literature: A-Devo (अंग्रेज़ी में). Sahitya Akademi. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-260-1803-1.
  9. Hiltebeitel, Alf (2009). Rethinking India's Oral and Classical Epics: Draupadi among Rajputs, Muslims, and Dalits (अंग्रेज़ी में). University of Chicago Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-226-34055-5. अभिगमन तिथि 8 दिसम्बर 2021.
  10. "मुख्यमंत्री ने किया लोक देवता पाबूजी के पेनोरमा का लोकार्पण". ख़ास ख़बर. 25 अगस्त 2018. अभिगमन तिथि 8 दिसम्बर 2021.

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