पश्चवर्ती मौर्य राजवंश
राजतरंगिणी में जलौक को सम्राट अशोक के कश्मीर के उत्तराधिकारी के रूप में उल्लेखित किया गया है, जबकि तारानाथ अन्य उत्तराधिकारी वीरसेन का उल्लेख करते हैं जो गंधार में शासन करते थे और वे डॉ. थॉमस के अनुसार, मगध के मौर्य सुभगसेन के पूर्वज थे।[1] मौर्य राजवंश की 6 प्रारंभिक मध्यकालीन शाखा कोंकण, खानदेश, गोवा, मालवा, मथुरा और राजस्थान में मौजूद होने के पुरालेखीय प्रमाण मिले है।[2]
पश्चिमी भारत और मगध में सामंत और छोटे मौर्य राजा मौर्य वंश का अंत होने के बाद भी शासन करते रहे। मौर्य वंश के मगध के राजा धवल का उल्लेख 738 ईस्वी के कंसवा अभिलेख में किया गया है। प्रोफेसर भंडारकर उनकी पहचान 725 ई. के डबोक (मेवाड़) शिलालेख में वर्णित धनिका के अधिपति धवलप्पदेव से करते हैं। प्रारंभिक अभिलेखों में कोंकण और खानदेश के मौर्य प्रमुखों का उल्लेख मिलता है। मगध के पूर्णवर्मन नाम के एक मौर्य राजकुमार का उल्लेख चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने किया है। इसके अलावा उन्होंने कर्णसुवर्ण (बंगाल) के नरेंद्रगुप्त नामक मौर्य शासक का भी उल्लेख किया है।[3][4]
छठी सदी में कोलाबा के साथ उत्तरी कोंकण के पास नल मौर्य द्वारा शासन किया गया था। पांचवीं और छठी सदी के पत्थरों से पाया गया कि उत्तर कोंकण के थाना जिले में मौर्य राजा सुकेतुवर्मन शासन कर रहे थे। कोंकण को मौर्य परिवार के धारकों के पास सौंपा गया था।[5][6][7]
मोरे, मराठा, कुण्बी और कोलाबा के भूमिका में एक बहुत ही सामान्य नाम है। इलेफंटा और करंजा में मोर के नाम के दो छोटे स्थल लिये जा सकते हैं, जो कोंकण में पूर्व में मौर्य शक्ति के अवशेष हो सकते हैं।[8]
कलाचूरी राजा कृष्णराज के सिक्के मुंबई के द्वीप में पाए गए हैं। लेकिन यह देश सीधे कलाचूरियों द्वारा प्रशासित नहीं था। उन्होंने इसे मौर्यों के एक उपनिवेशित परिवार को दिया। दाबोक (मेवाड़) के अभिलेख में 738-39 ई. के मौर्य राजा धवलप्प का उल्लेख किया गया है, जो कि चित्तौड़गढ़ के किले पर शासन कर रहे थे।[9]
कोंकण क्षेत्र के मौर्य
सुकेतुवर्मन का नाम बम्बई के पास थाना के उत्तर में वाडा में पाए गए शिलालेख से जाना जाता है, लेकिन अब यह प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई में संरक्षित है। शिलालेख, जो क्षतिग्रस्त है और लगभग चौथी या पाँचवीं शताब्दी के दक्षिणी लिपि में लिखा गया है और मौर्य वंश के सुकेतुवर्मन नामक राजा को संदर्भित करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह उस अवधि के दौरान थाने के आसपास शासन कर रहे थे।[11]
पुलकेशी द्वितीय ने मौर्य राजधानी पुरी को सफलतापूर्वक घेर लिया, जिससे उनके शासन का अंत हो गया।[12] उनके ऐहोल शिलालेख में कहा गया है : [13]
कोंकणेषुयदादिष्ट चण्डदण्डाम्बुब्रीचिभिः । उदस्तरसा मौर्यपल्लवलाम्बुसमृद्धये ।।२० अपरजलेर्लक्ष्मी यस्मिन्पुरीपुर भृत्प्रभेः मद्गजघटाकारैर्ऋवां शतैरवमृदन्ति । जलदपटलानीक कीर्णम् नवोत्पलमेचकाञ्, जलनिधिरिव व्योम व्योम्नसमोभवदम्बुभिः धिः ।। २१
उसकी (पुलकेशी की) सेनाओं के आक्रमण के भीषण ज्वार में कोंकण देश के मौर्यो (मौर्य वंश के राजा) की छोटी-छोटी लहरें विलीन हो गयीं ।२०।।
पुरंभेत्ता (इन्द्र) के वैभव वाले उस (पुलकेशी) ने पश्चिम पयोधि की लक्ष्मीरूपी पुरी (नामक) नगरी को मद्रस्रावी हाथियों की जमातं जैसी लगने वाली अपनी जहाजी सेना से जब घेरा तब मानों एक नवप्रफुल्लित कमल की तरह घने बादलों की परतों में छिपा हुआ कृष्णनील समुद्र मानों आकाश के रूप में परिवर्तित हो गया और आकाश समुद्र की तरह दिखायी देने लगा । २९॥
मौर्यों ने कीर्त्तिवर्मन के आक्रमण को टाला और पुलकेशीन द्वितीय को पुरी को वश में करने के लिए एक विशाल सेना की आवश्यकता थी, यह बताता है कि चालुक्य विजय से पहले मौर्य एक दुर्जेय शक्ति थे। चालुक्य जागीरदार भोगशक्ति का 710 ईस्वी अभिलेख 14,000 गाँवों वाले "पुरी-कोंकण" देश पर उनके परिवार के शासन की पुष्टि करता है।[15]
खानदेश के मौर्य
महाराष्ट्र राज्य के खानदेश जिले के वाघली से प्राप्त 1069 ई. के गोविंदराज के अभिलेख में मौर्य प्रमुख गोविंद या गोविंदराजा को प्रारंभिक यादव राजा सेउनाचंद्र द्वितीय के अधीनस्थ राजा के रूप में संदर्भित है। अभिलेख में बीस राजकुमारों या प्रमुखों का उल्लेख है जो मौर्य राजा गोविंदराज के पूर्ववर्ती थे, सबसे पहला सदस्य कीकट था। डी.सी. सरकार के अनुसार इन खानदेशी मौर्यों की मूल रूप से मौर्यों की राजधानी सौराष्ट्र के वल्लभी में थी।[16]
गोविंदराज का मूल शिलालेख, वाघली |
गोविंदराज का मूल शिलालेख का मूलपाठ, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा एपिग्राफिया इंडिका वॉल्यूम २ में प्रकाशित[5] |
मथुरा के मौर्य
दिंदिराज जिसे कर्क नामक कहा गया है, उससे सम्बन्धित एक अभिलेख उत्तर प्रदेश के मथुरा शहर से प्राप्त हुवा, जो 7वीं शताब्दी के बाद का है। इसमें मथुरा मौर्य वंश के चार सदस्यों का उल्लेख है - कृष्णराज उनके परिवार में, उनके पुत्र चंद्रगुप्त, आर्यराज और उनके पुत्र दिंदिराज ।[17][18]ऐसा प्रतीत होता है कि इस मौर्य शाखा के अंतिम नामित शासक ने कान्यकुब्ज (कन्नौज) शहर को जला दिया था और उसे विजित किया था। इस अभिलेख में वर्णित मौर्य राजाओं का उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्रों पर प्रभुत्व प्रतीत होता है। जैन परंपरा प्रचीन चंद्रगुप्त मौर्य के वंशज के रूप में कन्नौज के राजा यशोवर्मन (728-53 ई.) का प्रतिनिधित्व करती है। यह यशोवर्मन के कर्क-दिंडीराजा के साथ संबंधों का उल्लेख कर सकता है, जो संभवतः 7वीं शताब्दी के प्राचीन चंद्रगुप्त मौर्य शासक के वंशज थे ।[19]
अभिलेख |
पश्चिमी तट के मौर्य
पश्चिमी तट पर गोवा क्षेत्र में खोजे गए दो ताम्रपत्र अभिलेखों से चंद्रवर्मन और अनिर्जितवर्मन नामक दो राजाओं के अस्तित्व का पता चलता है, जो उनके शिलालेख के अनुसार मौर्य राजवंश के थे। चूँकि दोनों शिलालेख शासक राजाओं के शासनकाल के वर्षों में दिनांकित हैं, पुरालेखीय दृष्टिकोण से, उन्हें 6ठी या 7वीं शताब्दी ई. का माना जा सकता है, चंद्रवर्मन मौर्य का अभिलेख अनिरजितवर्मन मौर्य से थोड़ा पहले का है। ये दोनों शासक, जो अपने अभिलेखों में महाराजा का विशेषण धारण करते हैं। चंद्रवर्मन के अभिलेख में राजा द्वारा शिवपुरा में स्थित महाविहार को कुछ भूमि दान करने का उल्लेख है, जिसकी पहचान गोवा में चंदोर के पास इसी नाम के गांव से की जाती है। अनिर्जितवर्मन का अभिलेख में राजा द्वारा हस्त्यर्य नामक ब्राह्मण को दिए गए कुछ उपहारों का वर्णन करता है। यह कुमारद्वीप नामक स्थान से जारी किया गया है जो गोवा क्षेत्र में प्रतीत होता है। इन दो अभिलेखों से पता चलता है कि चंद्रवर्मन और अनिरजितवर्मन लगभग 6ठी-7वीं शताब्दी ईस्वी में गोवा क्षेत्र में शासन कर रहे थे।[20]
अभिलेख |
राजस्थान क्षेत्र के मौर्य
राजा धवला या धवलात्मान शिलालेख" राजस्थान राज्य के पुराने कोटा में कनासवा से प्राप्त हुआ, मालव वर्ष (अर्थात विक्रम संवत) 795 या 738 ई. में दिनांकित, ब्राह्मण शिवगण को मौर्य वंश के राजा धवल के सामंत के रूप में संदर्भित करता है। डॉ. डी.सी. सरकार ने पुरापाषाणिक समानता और भौगोलिक निकटता के आधार पर सुझाव दिया है कि ऊपर उल्लिखित मथुरा क्षेत्र के मौर्य, मौर्य राजा धवल से परिवारिक रुप से जुड़े हो सकते हैं।[21]संभवत: इस मालवा क्षेत्र के मौर्य, जिनके बारे में नवसारी अभिलेख में कहा जाता है कि वे ताजिका (अर्थात् अरब) से पराजित हुए थे किंतु कुछ राजस्थानी लेखों के मुताबिक़ बप्पा रावल की सैन्य अगुवाई में मौर्यों की विजय हुई थी।[22]
राजस्थान में उदयपुर से लगभग 8 मील पूर्व में डबोक से प्राप्त धवल के शिलालेख में धबगर्त के गुहिल प्रमुख धनिका और उनके स्वामी धवलप्पा देव(धवल) का उल्लेख है। भंडारकर के अनुसार इस अभिलेख के धवलप्पा की पहचान कनसवा शिलालेख में वर्णित मौर्य राजा धवलात्मन से है।[23] यह संभव है कि वे पश्चिमी तट क्षेत्र के मौर्यों से संबंधित थे और उन्होंने राजस्थान पर अपना आधिपत्य बढ़ाया होगा जो तब हर्ष (606-47 ई.) के प्रभुत्व का हिस्सा बना। जैसा कि डॉ. सरकार ने बताया, दबोक अभिलेख की तारीख से पता चलता है कि हर्ष ने 647 ई. में अपनी मृत्यु से पहले राजस्थान के कुछ हिस्सों को खो दिया होगा, हालाँकि राजस्थान के मौर्य पहले भी उनके प्रति निष्ठा रखते होंगे।[24][25]
झालरपाटन (झालवाड़ जिला राजस्थान) शिलालेख दिनांक 689 ई. में दुर्गागण नामक एक मौर्य शासक का उल्लेख है।[26] इसके अलावा, गुहिल परिवार के संस्थापक गुहिल या गुहदत्त के पुत्र बप्पा ने अपने चाचा को चित्तौड़ के मोरी (यानी मौर्य) शासक के रूप में जाना, जिनकी सेवा में वह पहले थे, उनका स्थान ले लिया।[27]
इन्हे भी देखें
सन्दर्भ
ग्रंथ सूची
- Durga Prasad Dikshit (1980). Political History of the Chālukyas of Badami. Abhinav. OCLC 8313041.
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सन्दर्भ
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- ↑ Hemchandra Raychaudhuri, M. A. (1932). Political History of ancient India. पृ॰ 240.
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- ↑ "We have discussed above about the Saka era. From the point of view of its early history as well as for the history of the later Mauryas of Konkana the Vala (or Vada) inscription of Suketuvarman, dated Saka 322, is one of utmost importance. The inscription was actually found at the place of this name in the Thane District of Maharashtra though wrongly attributed to Vala in the Saurashtra region of Gujarat. It aims at registering the installation of the deity Koțiśvara by one Simhadatta, son of Anankiparadatta in the Saka year 322, and some grants to the divinity by one Isuprakki, the Vallabha-Talavara of the Maurya Dharma- mahārāja Suketuvarman of the Bhojas. The inscription adds one more name to the list of the Mauryas of Konkaņa." Dikshit, K. N. (1995). puratattva: Bulletin of the Indian archaeological society number 25 1994-95. Indian Archaeological Society,New delhi. पृ॰ 32.
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- ↑ "Jhalarpatan inscription (AD 689) of Durgagana, the Kudarkot inscription of about the second half of the seventh century, the Nagar inscription (AD 684) of Dhanika, and the Kanaswa inscription (AD 738) of Sivagana." The inscription was composed "in adoration of a god whose epithets kal- anjana-rajah-punja-dyuti, (ma)havaraha-rupa and jangama have only been preserved". It leaves "no doubt that the reference is to the god Vishnu since the expression mahavaraha-rupa certainty speaks of the Boar incarnation of the deity." The hero of the prasasti is a king named Dindiraja of the Maurya dynasty.Ed Sitaram Goel (1993). Hindu Temples Vol. II (Ed Sitaram Goel). पृ॰ 80-81.
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- ↑ Ray, H. C. (1935-11-18). The Dynastic History Of Northern India Vol. 2. पृ॰ 540.
- ↑ BARNETT, L. D. (1958). ANTIQUITIES OF INDIA. PUNTHI PUSTAK, CALCUTTA. पृ॰ 73.
- ↑ "The second inscription of Dhanıka, dated A.D. 725, was discovered at Dabok in Mewar .It mentions Śrī Dhanıka as ruling over DHAVALAGARTTA as a feudatory chief under paramabhattāraka-mahārājādhırājā paramēśvara-Śrī-DHAVALAPPADEVA According to Prof DR Bhandarkar, the paramount ruler mentioned in the record is the same as the king DHAVALA of the Maurya dynasty referred to in the Kansuvām inscription of AD 738" Mookerji, Radha Kumud (1945). Bharata- Kaumudi Studies In Indology In Honur Of Dr Radha Kumud Mookerji Part-i. पाठ "294" की उपेक्षा की गयी (मदद)
- ↑ "The Mauryas are referred to in a record at Jhalrapatan dated A.D. 690. Another record in Kotah State, dated A.D. 738-39, refers to the local prince as a friend of king Dhavala of Maurya lineage..As already noted above, the Mauryas fell a victim to the Arab aggression, and it was probably after this catastrophe that Bappa defeated them and took possession of Chitor." Munshi K. M. (1954). The Classical Age Vol-iii (1954). Bharatiya Vidya Bhavan. पृ॰ 162.
- ↑ "This inscription is dated in the 796th year of the Lords of Malava. It is probable that the Jhalrapathan inscription, which is dated in the 747th year of an unnamed era, is to be referred to the same method of computing time. The slight difference in the alphabet to which attention has been drawn is of the kind that might develop in the fifty years which, on this hypothesis, would separate the two. Neither the Sivagaņa of our inscription nor the Durgagana of the Jhalrapathan inscription is spoken of as a sovereign monarch: and when we find one spoken of as ruling at Kotah, under a Maurya Emperor, in the year 796 of the Lords of Malava, and the other referred to as ruler in the year 747, of a town only seventy miles to the south, which has always been very closely connected with Kotah, it seems natural to suppose that "Durgagana," and "Sivagana," are of the same stock. If this be so, it is to be noted that the want of any reference on the Jhalrâpâthan inscription speaks of an era which at the time had wide and undisputed currency. "Peterson, Peter (1885). An inscription from Kotah; The Royal Asiatic society, with a preface in reply to Professor Bhandarkar. University of California. Bombay, Printed at the Education society's press, Byculla.
- ↑ BANERJEE, ANIL CHANDRA (1958). MEDIEVAL STUDIES. A. MUKHARJEE AND COMPANY , CALCUTTA. पृ॰ 23-30.