परहितकरण
परहितकरण खगोलीय गणनाएँ करने की प्राचीन भारतीय पद्धति का नाम है। यह पद्धति मुख्यतः केरल और तमिलनाडु में प्रचलित थी। इसका आविष्कार केरल के खगोलशास्त्री हरिदत्त ने किया था। (683 ई)[1]).
नीलकण्ठ सोमयाजिन (1444–1544) ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ दृक्करण में इसका उल्लेख किया है कि उनके समय में 'परहित' की रचना किस प्रकार की गई थी।
परहितकरण पद्धति के दो ग्रन्थ ज्ञात हैं - 'ग्रहचारनिबन्धन' तथा 'महामार्गनिबन्धन' किन्तु अब केवल ग्रहचारनिबन्धन ही प्राप्य है।
'परहित' का शाब्दिक अर्थ 'दूसरों की भलाई' है और वास्तव में 'परहितकरन' के निर्माण का उद्देश्य यही था कि खगोलीय गणनाओं को इतना आसान बना दिया जाय कि 'आम जनता' भी खगोलीय गणनाएँ करने में सक्षम हो जाय अतः 'सैद्धान्तिक' परिपाटी की कठिनाइयों को परहित-प्रणाली ने बहुत सरल बना दिया। इस प्रणाली ने आर्यभटीय में दी गयी गणना-चक्र को सरल बना दिया।
हरिदत्त ने संख्याओं को निरूपित करने के लिए आर्यभट द्वारा विकसित 'कठिन' विधि के स्थान कटपयादि पद्धति को अपनाया। कटपयादि पद्धति बाद में केरलीय गणित में बहुत लोकप्रिय हुई।
'ग्रहचारनिबन्धनसंग्रह' (932 AD) नामक ग्रन्थ में 'परहित' विधि का विस्तार से वर्णन है। बाद में इन विधियों को भी परमेशवरन् ने १४८३ में रचित अपने 'दृग्गणित' (= दृक् + गणित) नामक ग्रन्थ में संशोधित किया। इसी प्रकार १६०० ई में अच्युत पिषारटि ने अपने 'राशिगोलस्फुटनीति' नामक ग्रन्थ में भी कुछ नियतांकों को परिवर्तित किया।