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नील हरित शैवाल

नीलहरित शैवाल
सायनोबैक्टीरिया
वैज्ञानिक वर्गीकरण
अधिजगत: जीवाणु
संघ: सायनोबैक्टीरिया
Orders

वर्गीकरण फिलहाल पुनरावलोकनाधीन है।[1]

नील हरित शैवाल (अंग्रेज़ी:ब्लू-ग्रीन ऐल्गी, सायनोबैक्टीरिया) एक जीवाणु फायलम होता है, जो प्रकाश संश्लेषण से ऊर्जा उत्पादन करते हैं। यहां जीवाणु के नीले रंग के कारण इसका नाम सायनो (यूनानी:κυανός {काएनोस} अर्थात नीला) से पड़ा है।

नील हरित काई वायुमंडलीय नाइट्रोजन यौगिकीकरण कर, धान के फसल को आंशिक मात्रा में की नाइट्रोजन पूर्ति करता है। यह जैविक खाद नत्रजनधारी रासायनिक उर्वरक का सस्ता व सुलभ विकल्प है जो धान के फसल को, न सिर्फ 25-30 किलो ग्राम नत्रजन प्रति हैक्टेयर की पूर्ति करता है, बल्कि उस धान के खेत में नील हरित काई के अवशेष से बने सेन्द्रीय खाद के द्वारा उसकी गुणवत्ता व उर्वरता कायम रखने में मददगार साबित होती है।

नील हरित काई के उपयोग से लाभ

  • (१) नील हरित काई एक जैविक खाद है जिसे धान उत्पादक किसान अपने स्तर पर आसानी से तैयार कर सकते हैं।
  • (२) नील हरित काई सामान्य रूप से धान के फसल को करीब 25 से 30 किलो ग्राम प्रति हैक्टेयर नत्रजन की पूर्ति करता है।
  • (३) यह काई उपचार के पश्चात् प्रत्येक सीजन में अपने अवशेषों के द्वारा करीब 800 से 1200 किलो ग्राम तक सेन्द्रीय खाद प्रति हैक्टर की पूर्ति करता है जिसकी वजह से उसे खेत के मिट्टी की गुणवत्ता और उपजाऊ क्षमता कायम रहती है।
  • (४) नील हरित काई के द्वारा कुछ ऐसे रासायनिक पदार्थ स्त्रावित होता है जिससे बीजों का अंकुरण और फसलों में सामान रूप से वृद्धि होती है।
  • (५) लगातार 3-4 वर्षों तक यदि धान के उसी खेत में नील हरित काई का उपयोग किया जाये तो आने वाले कइ्र्र सीजन तक पुनः उपचार करने की आवश्यकता नहीं होता साथ में इस काई के उपयोग का लाभ आगामी उन्हारी फसल पर भी देखा गया है।
  • (६) जैविक खाद के रूप में नील हरित काई के उपयोग के फलस्वरूप अतिरिक्त उपज मिलने से करीब 400 से 500 रू. प्रति हैक्टर तक शुद्ध आमदनी होती है।

धान के खेत में नील हरित काई का उपचार

ब्यासी पद्धति और रोपा पद्धति से ही धान की खेती में नील हरित काई का उपयोग लाभप्रद सिद्ध हुआ है। धान के ब्यासी की स्थिति में ब्यासी और चलाई करने के अथवा रोपा वाले खेत में धान के पौधों को रोपने के 6 से 10 दिन के भीतर, नील हरित काई के 10 किलोग्राम सुखे पाउडर को पूरे खेत में छिड़क कर उपचारित कर दिया जाता है। ध्यान रहे नील हरित काई को उपचारित करने के पूर्व उस खेत में आवश्यकता से अधिक पानी को निकाल कर करीब 8 से 10 से.मी. पानी ही रखें और इतना ही पानी स्थिर रूप से कम से कम 20 दिनों तक इस खेत में कायम रखें। इससे नील हरित काई की बढोत्तरी और फैलाव ठीक तरह से होता है। काई की यही बढोत्तरी और फैलाव वायुमण्डलीय नत्रजन को स्थिर करने में सहायक होता है और पौधों के पोषण में उपयोगी होता है। नील हरित काई के उपचार में निम्नलिखित बातों का अवश्य ध्यान देना चाहिये-

  • 1. ब्यासी करने के बाद अथवा रोपा लगाने के 6 से 10 दिन के भीतर ही नील हरित काई का उपचार किया जाना आवश्यक है। इस काई के उपचार के पहले ध्यान रहे, धान के खेत में 8 से 10 से.मी. से ज्यादा पानी न हो। खेत सूखने न पाये इसके लिये खेत के मेड़ों में से चूहे के बिल आदि छेदों को तथा मुही को बंद कर दिया जाय।
  • 2. ब्यासी के समय अथवा रोपा के लिये खेत तैयार करने के समय ही स्फुर (फास्फोरस) की पूरी मात्रा डाल दें। स्फुर की उपस्थिति, नील हरित काई की वृद्धि के लिये आवश्यक होता है।
  • 3. धान के खड़े फसल में नील हरित काई की सिर्फ 10 किलो ग्राम सुखे पाउडर प्रति हैक्टर की आवश्यकता होती है जिसे पूरे खेत में छिड़क कर बिखेर देना चाहिए।
  • 4. खेत में जलीय कीड़े लगने पर आवश्यक कीटनाशक दवाईयों का उपयोग किया जा सकता है। इन कीट नाशक दवाईयों का प्रतिकुल प्रभाव नील हरित काई के वृद्धि में नहीं होता।
  • 5. यदि धान के खेत में गहरे रंग के हरे रेशेदार स्थानीय काई दिखे जो कि धान के फसल के लिये नुकसान दायक होता है, उसे नष्ट करने के लिये नीला थोथा (कापर सल्फेट) का 0.05 प्रतिशत घोल (1 ग्राम एक लिटर पानी में) का छिड़काव किया जाय। इसे हर तीन चार दिन में दुबारा छिड़कें इससे हरा काई समूल नष्ट हो जायेगा।
  • 6. इस जैविक खाद के साथ ही नत्रजन धारी रासायनिक उर्वरक का भी सीमित मात्रा में उपयोग किया जा सकता है। यदि ऐसे रासायनिक उर्वरक का उपयोग करना चाहें तो कंसा निकलने के समय या सिफारिश के मुताबिक एक तिहाई यूरिया की मात्रा को बचाकर, बाकी यूरिया के उपयोग से ज्यादा उत्पादन लिया जा सकता है।
  • 7. एक बार जिस खेत में नील हरित काई जैविक खाद का प्रयोग किया गया हो वहां यही कोशिश रहे कि उस खेत में लगातार 3 से 4 वर्षों तक इस जैविक खाद का उपयोग होता रहे। इससे आने वाले वर्षों में इस काई के पुर्नउपचार की आवश्यकता नहीं होती। साथ ही उस भूमि की उर्वरता बनी रहती है।
  • 8. जिस खेत में नील हरित काई का उपचार किया गया हो अगले उन्हारी सीजन में कोई भी फसल (विशेषकर चना) लेना अत्यंत लाभप्रद पाया गया है।

नील हरित काई के उत्पादन की विधि

इस जैव उर्वरक के उत्पादन लेने के पहले कुछ विशेष बातों पर ध्यान देना आवश्यक है जो निम्नलिखित है अन्यथा उत्पादन प्रभावित हो सकता है।

  • 1. छाया से दूर, खुला स्थान
  • 2. मातृ कल्चर
  • 3. सिंगल सुपरफास्फेट
  • 4. कीटनाशक दवाई जैसे मेलाथियान
  • 5. आवश्यकतानुसार चूना
  • 6. पास ही पानी का खेत

यद्यपि नील हरित काई का उत्पादन कई प्रकार से लिया जाता है, जैसे लोहे की ट्रे, पालीथीन चादरों से ढके कच्चे गड्ढों में, ईटों व सीमेंट से बने पक्के गड्ढों में किन्तु आर्थिक रूप से पिछड़े छोटे व सीमांत किसानों के लिये ये उपरोक्त सभी तरीके खर्चीले होते हैं। ऐसे लोगों के लिये इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय स्थित मृदा विज्ञान विभाग वैज्ञानिक द्वारा एक विशेष ग्रामीण उत्पादन तकनीक का विकास किया है जिसमें न ही पालीथीन चादरों की आवश्यकता होती है और न ही ईंट सीमेंट की। यह ग्रामीण उत्पादन तकनीकी विधि, बनाने में, उत्पादन लेने में तथा उसके रख रखाव में अत्यंत सरल, सुलभ और सभी के आर्थिक स्थिति के मुताबिक है। यहां के मौसम और जलवायु के अनुसार बताई गई उत्पादन विधि से इस कल्चर का उत्पादन फरवरी माह से जून के आखरी सप्ताह तक अच्छी तरह किया जा सकता है।

नील हरित काई कल्चर के उत्पादन की ग्रामीण तकनीक

निम्नलिखित विभिन्न चरणों में उपरोक्त विधि से सरलतापूर्वक अच्छा गुणकारी उत्पादन लिया जा सकता है।

  • 1. छाया से दूर किसी भी खुले स्थान पर जहां पानी का स्रोत नजदीक हो वहां 5 से 10 मीटर अपनी आवश्यकतानुसार लम्बा 1 से 1.5 मीटर चौड़ा तथा करीब 15 सें.मी. गहरा गड्ढा तैयार करें। उस गड्ढे से निकाली गई मिट्टी को गड्ढे के चारों ओर पाल पर जमाकर रख दें ताकि गड्ढे की गहराई करीब 5 सें.मी. और बढ़ जाये। इस प्रकार के दो गड्ढों के बीच करीब 60 सें.मी. जगह छोड़ दें जिससे अवलोकन और दूसरे कार्यों के लिये आने जाने की सुविधा बन सकें।
  • 2. इस गड्ढे में लगातार 2-3 दिनों तक पानी भरते रहें। एक समय ऐसा आयेगा जब पानी का रिसना कम हो जायेगा। ऐसी स्थिति में उस गड्ढे में पानी भरकर खूब मचा ले इससे रिसने वाले मिट्टी के छोटे छोटे छिद्र बंद हो जायेंगे।
  • 3. ऐसी स्थिति आने पर खाली गड्ढे में 100 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से पूरे गड्ढे में नापकर सुपरफास्फेट या रॉक फास्फेट छिड़ककर उसे मिट्टी में हाथ से मिला दें। यदि काली मिट्टी वाली जगह हो तो करीब 25 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से चूना भी मिला दें।
  • 4. तत्पश्चात उक्त गड्ढे में 15 सें.मी. तक पानी भर दें।
  • 5. गड्ढे में भरा पानी जब स्वच्छ लगे तो उसमें 100 ग्राम नील हरित काई का मातृ कल्चर प्रतिवर्ग मीटर के हिसाब से मापकर पूरे गड्ढे में छिड़क दें साथ ही इस मौसम में उत्पन्न होने वाले कीड़ों को नष्ट करने के लिये 1 मिली लीटर मेलाथियान या कार्बोफ्यूरान 3 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से डाल देना चाहिये।
  • 6. नील हरित काई से उपचारित इस गड्ढे पर इतना ध्यान रखें कि गड्ढा कभी भी सुखने न पाये। पानी की कमी होने के स्थिति में उसमें सुबह या शाम के समय पानी भरकर 10-15 सें.मी. तक जलस्तर रखें।
  • 7. ध्यान से देखने पर इस गड्ढे पर 3-4 दिनों के भीतर ही उसके सतह का रंग बदलने लगता है और पतली तह के रूप में नील हरित काई का बनना प्रारंभ हो जाता है जो धीरे-धीरे 10-15 दिनों में मोटी तह के रूप में यह कल्चर उभरने लगता है।
  • 8. यही मोटी तह पूरी जमीन की सतह में उभर जाती है अथवा उसका कुछ भाग गर्मी के दिनों में पानी के ऊपर तैरने लगता है। इस तैरते हुये कल्चर को इकट्ठा कर जिसमें मिट्टी का अंश नहीं के बराबर होता है, इसे पुनः मातृकल्चर के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है।
  • 9. गड्ढे में उत्पादित इस कल्चर को दो प्रकार से निकाला जा सकता है। या तो इस गड्ढे को दो दिन तक पूरी तरह सूखने दीजिये और वहां की सूखे पपड़ी को इकट्ठा कर स्वच्छ थैलियों में रखते जाईये। दूसरे प्रकार में गीली अवस्था में ही मोटी तह को बड़े झारे से निकाल कर पूरी तरह सूखाकर इसे इकट्ठा करते जाइये। यही सूखा कल्चर नील हरित काई जैव उर्वरक है।

उत्पादन में ध्यान रखने योग्य बातें

  • 1. पानी का स्रोत ज्यादा दूर न हो।
  • 2. गड्ढा कभी सुखने न पाये। हमेशा गड्ढा में कम से कम 10-15 से.मी. पानी बना रहना चाहिये।
  • 3. किसी भी गड्ढे से तीन बार उत्पादन लेने के पश्चात् पुनः रॉक फास्फेट का आधा भाग याने 100 ग्राम रॉक फास्फेट प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से दुबारा डाले। इससे आशातीत उत्पादन लिया जा सकता है।
  • 4. किसी भी गड्डे में कीड़े दिखने की अवस्था में ऊपर बताये कोई भी कीटनाशक का अवश्य छिड़काव करें अन्यथा उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
  • 5. किसान अपने खेत में जो काई देखते हैं वह 'नील हरित काई' न होकर 'हरी काई' होता है। गहरे रंग की रेशेदार यह काई पानी के ऊपर ही फैलती है जो धान के पौधे के लिये नुकसानदायक होता है। इसे नष्ट कर देना ही हितकर होता है। इसे नष्ट करने का भी सुलभ सरल और कम लागत वाला तरीका ईजाद किया गया है। जहां भी हरी काई दिखें वहीं 1 ग्राम नीलाथोथा को 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़क दें। इससे हरी काई 3-4 दिनों में नष्ट हो जाती है। चूँकि यह हरी काई कुछ दिनों बाद फिर से दिखने लग जाती है इसलिये नीलाथोथा का छिड़काव समयानुसार करते रहना चाहिए। ध्यान रहे किसी भी हालत में नीलाथोथा की मात्रा ज्यादा न हो अन्यथा यह धान फसल पर विपरीत प्रभाव डाल सकता है।
  • 6. नील हरित काई के उत्पादन के लिये कम से कम 30 सेल्सियस तापमान का होना आवश्यक होता है साथ ही खुला सूर्य का प्रकाश भी उस पर पड़ना चाहिये। 45 सें.ग्रे. से ऊपर के तापमान में इसका उत्पादन प्रभावित होता है इसीलिये बदली वाले खरीफ, ठंड के दिनों तथा छायायुक्त जगह में इसका उत्पादन नहीं होता।
  • 7. मिट्टी का स्वभाव भी उत्पादन को प्रभावित करता है। अम्लीय मिट्टी नील हरित काई के उत्पादन के लिये उपयुक्त नहीं पायी गई है। उदासीन अथवा थोड़ी क्षारीय भूमि में इस कल्चर की अच्छी वृद्धि होने की संभावना रहती है

सन्दर्भ

  1. अहोरेन ओरेन (२००४). "A proposal for further integration of the cyanobacteria under the Bacteriological Code". Int. J. Syst. Evol. Microbiol. 54: 1895–1902. PMID 15388760. डीओआइ:10.1099/ijs.0.03008-0.

बाहरी कड़ियाँ