नीति
उचित समय और उचित स्थान पर उचित कार्य करने की कला को नीति कहते हैं। नीति, सोचसमझकर बनाये गये सिद्धान्तों की प्रणाली है जो उचित निर्णय लेने और सम्यक परिणाम पाने में मदद करती है। नीति में अभिप्राय का स्पष्ट उल्लेख होता है। नीति को एक प्रक्रिया या नयाचार की तरह लागू किया जाता है।
भारतीय साहित्य में नीति काव्य का उद्भव
नीति काव्य का उद्भव विश्व साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद से माना गया है। इसके साथ ही ब्राह्मणों , उपनिषदों, रामायण, महाभारत में धर्म और नीति का सदुपदेश सम्मिलित है। इन नीति ग्रन्थों में तत्व ज्ञान और वैराग्य का सुन्दर सन्निवेश है। इनमें प्रायः सभी धार्मिक विश्वासों का उल्लेख और उपदेश हे। इन नीति ग्रन्थों में लोक जीवन के व्यवहार में आने वाली बातों पर विचार करने के साथ ही साथ जीवन की असारता का निरूपण कर मानव मात्र को ’मोक्ष’ के साधन का उपदेश भी है। भारतीय नीति के अन्तर्गत धर्म एवं दर्शन भी समाहित हो जाते हैं इसीलिए नीति काव्य का उद्भव स्मृति ग्रन्थों से भी माना जाता है। महाभारत के दो बड़े प्रसगों की श्रीमद्भागवद्गीता एवं विदुरनीति तो स्वयं ही नीति काव्य से सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। भगवद्गीता तो भारतीय संस्कृति का अनमोल रत्न है जिसके माध्यम से हमें जीवन की असारता, आत्मा की अमरता, निष्काम कर्मवाद आदि की शिक्षा मिलती है। इसी प्रकार विदुर नीति में भी कुल धर्म, स्वधर्म, राजधर्म, विश्व धर्म व आत्म धर्म के विविध स्वरूपों को देखा जा सकता हे। निम्नलिखित श्लोक में सद्गृहस्थ के घर में चार लोगों का निवास आवश्यक बताया गया है -
- चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रियाभिजुष्टस्य गृहस्थधर्म।
- वृद्धो ज्ञातिरवसन्नः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या॥
- अर्थात् हे तात, गृहस्थ जीवन में, आप जैसे लक्ष्मीवान् के घर में चार जन सदा निवास करते रहें - कुटुम्ब का वृद्धजन, संकट में पड़ा हुआ उच्च कुल का व्यक्ति, निर्धन मित्र और निःसंतान बहन।
नीतिकाव्य का विकास
चाणक्य नीति
नीति काव्य का सर्वप्रथम संग्रह 'चाणक्य संग्रह' है। इसी को 'चाणक्य नीति' के नाम से भी जाना जाता है। इसमें व्यवहार सम्बन्धी पद्यों के साथ राजनीति सम्बन्धी श्लोकों का सद्भाव भी प्राप्त होता है। इन नीति विषयक सदुपदेशों का सम्बन्ध चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रख्यात गुरू अमात्य चाणक्य के साथ जुड़ा है परन्तु यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि इसका लेखक अर्थशास्त्र रचयिता चाणक्य ही है। हो सकता है कि चाणक्य के एक महनीय राजनीतिवेत्ता होने के कारण इसे ’चाणक्य नीति’ के नाम से ख्याति मिली। डॉ लुडविक स्टर्नबाख ने 'चाणक्य नीति शाखा सम्प्रदाय' नामक ग्रन्थ में चाणक्य की नीति सूक्तियों की छः वाचनाओं का संग्रह सम्पादित तथा प्रकाशित किया है -
- वृद्धचाणक्य (1-2 तक ) दो वाचनाएँ
- चाणक्य नीति शास्त्र,
- चाणक्य सार संग्रह
- लघु चाणक्य,
चाणक्य राजनीति शास्त्र
- (अ) वृद्ध चाणक्य - इसके अन्तर्गत दो वाचनाएं हैं : प्रथम को सामान्य वाचना तथा द्वितीय का अलंकृत वाचना कहा गया है। प्रथम वाचना में आठ अध्याय है तथां द्वितीय वाचना में सत्रह अध्याय हैं। श्लोक प्रायः अनुष्टप छन्द में है।
- (आ) चाणक्य नीतिशास्त्र - तृतीय वाचना का नाम चाणक्य नीतिशास्त्र है , इसकी अवतरणिका में इसे नाना प्रकार के शास्त्रों से उद्धृत राजनीति का समुच्चय तथा समस्त शास्त्रों का बीज बताया गया है
- नाना शास्त्रोद्धृतं वक्ष्ये राजनीति समुच्चयम्
- सर्वबीजमिदं शास्त्रं चाणक्यं सारसंग्रहम्॥
इसमें अनुष्टुप छन्द में निबद्ध 108 श्लोक हैं।
चाणक्यसार संग्रह
इसमें तीन शतक हैं। प्रत्येक शतक में पूरे एक सौ अनुष्टुप विद्यमान है। इसमें राजनीति के विस्तृत उपदेशों के साथ ही साथ लोक नीति की भी सुन्दर शिक्षा दी गई है-
- असारे खलु संसारे सारमेतच्चतुष्टयम्
- काश्यां वासः सतां संगो गंगारम्भः शम्भु सेवनम् ॥
उपर्युक्त श्लोक में काशी वास को प्राथमिकता दी गई है। हो सकता है कि इसका संग्रहकर्ता कोई काशीवासी हो।
लघु चाणक्य
पंचम वाचना लघु चाणक्य नाम से प्रसिद्ध है। इसके प्रत्येक अध्याय में 10 से 13 तक श्लोक हैं। यह वाचना भारत में अल्पज्ञात ही रही परन्तु यूरोप में यह काफी प्रख्यात रही। गेल नेस नामक यूनानी संस्कृतज्ञ ने मूल संस्कृत का यूनानी भाषा में अनुवाद करके 1825 ई0 में इस प्रकाशित किया।
चाणक्य राजनीति शास्त्र
यह वाचना भी भारत में प्रसिद्ध नहीं हुई अपितु नवम शताब्दी में तिब्बती तंज रू में अनुदित होकर संग्रहीत हुई। इस तिब्बती अनुवाद का पुनः संस्कृत में अनुवाद शान्ति निकेतन से प्रकाशित हुआ है। इसमें 8 अध्याय हैं तथा 5382 श्लोक हैं परन्तु 3972 श्लोक ही उपलब्ध हैं।
यह कहना अति कठिन है कि इन सभी ग्रन्थों के रचयिता महात्मा चाणक्य ही थे परन्तु इन ग्रन्थों में दी गई शिक्षा, उपदेश व नीति वाक्य मानव जीवन के लिए सर्वथा उपादेय हैं : सार्वभौम हैं तथा इनमें अनुभव एवं बुद्धि की सूक्ष्माभिव्यक्ति हुई है। यथा -
- नास्ति विद्यासमं चक्षुनास्ति सत्यसमं तपः
- नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम् ॥
- अर्थात् विद्या के समान नेत्र नहीं है , सत्य के समान तप नहीं है , राग के समान अन्य कोई दुःख नहीं है तथा त्याग के समान अन्य कोई सुख नहीं है।
- नात्यन्त सरलैभाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्
- छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः ॥
- अर्थात् अत्यन्त सरल (सीधा) नहीं होना चाहिए। यह कथन कितना सटीक है क्योंकि यदि हम वन में जाकर देखते हैं तो ज्ञात होता है कि सीधे वृक्ष तो लोगों द्वारा काट दिए जाते हैं परन्तु टेढे मेढे वृक्ष नहीं काटे जाते।
- भाव यह है कि संसार में छद्म प्रवृति के लोगों के द्वारा प्रायः सीधे सादे लोग शोषित ही होते हैं।
नीतिद्विषष्ठिका
सुन्दर पाण्ड्य द्वारा रचित नीतिद्विषष्ठिका ही नीति विषय प्राचीन ग्रन्थ है जिसके विषय में हमें निश्चित जानकारियां मिलती है। इसमें उपदेशात्मक शैली में 116 श्लोक है। सुभाषित ग्रन्थकारों न इस रचना के कई श्लोक उद्धृत किये हैं परन्तु ग्रन्थ का नामोल्लेख नहीं किया है। परन्तु कुछ अन्य विद्वानों के इनका उल्लेख किया है जिसका विवरण निम्नलिखित है-
- 1. जनाश्रय (600 ई0 ) ने इसकी एक पंक्ति अपने छन्दोविचित में उदधृत की है।
- 2. कुमारिल (650 ई0) एवं शंकराचार्य ने उनके अन्य ग्रन्थों के भी श्लोक उद्धृत किये हैं।
- 3. बोधिचर्यावतार - शांतिदेव जिनका समय 600 ई0 के लगभग है , द्वारा रचित बोधिचर्यावतार ग्रन्थ भी नीतिकाव्य है। इसमे बोधिसत्व (ज्ञानप्राप्ति के इच्छुक ) के कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है। मानव मात्र से प्रेम करने के महत्व पर विशेष बल दिया गया है। इस ग्रन्थ पर कई टीकाएं भी लिखी गईं। शांतिदेव ने 6 शिक्षा समुच्चय व सूत्र समुच्चय भी लिखे परन्तु ये रचनाएं कम प्रसिद्ध हुईं।
नीति शतक
भर्तृहरि विरचित नीति शतक, नीति काव्यों में श्रेष्ठ स्थान रखता है। इन पद्यों में उन्होने अपन लौकिक व्यावहारिक ज्ञान का सूक्ष्म परिचय देते हुए अपने अनुभवों को अत्यन्त सहज , सरल , स्वाभाविक एवं सुन्दर शब्दों में प्रस्तुत किया है। मानव जीवन से सम्बन्धित ऐसा कोई भी विषय , कोई भी समस्या नहीं है जिसकी चर्चा इस ग्रन्थ में न की गई हो उनकी दृष्टि में सच्चा मानव वही है जो अपने मन में परम संतोष की अनुभूति करता हो। वे एक ओर तो कर्म सिद्वान्त की वकालत करते हैं तो दूसरी और भाग्य को भी अनदेखा नहीं करते हैं। कुछ विषयों पर उनकी धारणा आज भी सत्य प्रतीत होती है। यथा - इस संसार में सभी का उपचार संभव है परन्तु मूर्ख का नहीं।
- सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्
विवेक का परित्याग करने वालों का पतन सैकड़ो प्रकार से होता है। यथा - विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः
शरीर को आभूषण नहीं सुसज्जित करते अपितु सुसस्ंकृत वाणी ही असली आभूषण है -
- वाण्येकाष् समलंकरोति पुरूषं या संस्कृतार्धायते
- क्षीयन्ते खलुभूषणानि सततंवाग्भूषणंं भूषणम्।
मानवीय व्यवहारों और प्रवृतियों और सदाचार का भर्तृहरि ने इतना सूक्ष्म और व्यापक अध्ययन किया कि उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। इन तत्वों को कवि ने आत्मसात् किया था और स्वयं के जीवन में उनका आचरण किया था। यही कारण है कि संस्कृत साहित्य में उनके नीति वचनों का साहित्य में उनके नीतिवचनों का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ। शब्द रचना, अलंकार विधान, छन्दों विरचना आदि सभी दृष्टियों से यह शतक परिपुष्ट है।
वैराग्य शतक
वैराग्य शतक उत्कृष्ट शैली में लिखा गया नीति काव्य है। इसमें इस शिक्षा पर विशेष बल दिया गया है कि मनुष्यो में साधारणतः होने वाले दुर्गुणों को केसे दूर किया जाए-
- चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चलं जीवित यौवनम्
- चलाचले च संसारे धर्म एकोति निश्चलः ॥
इसमें शिव भक्ति पर बल देते हुए सन्यास की प्रशंसा की गई है -
- कदा संसार जालान्तर्बद्धं त्रिगुणारार्ज्जुभिः
- आत्मानं मोचयिष्यामि शिवभक्तिशलाकया॥
मोहमुद्गर
यह रचना आदि शंकराचार्य द्वारा विरचित मानी गई है। इसमें सांसारिक विषय को छोड़्ने और मायाजाल से मुक्त होने के उपदेश दिया गया है। इसमें नैतिक और दार्शनिक भाव हैं।
कुट्ट्नीमत
कश्मीर के राजा जयापीड (779 - 813 ई0 ) के आश्रित एवं अमात्य कवि दामोदर गुप्त द्वारा विरचित कुट्टनीमत भी समाज को शिक्षा देने वाला नीति काव्य है। इसे वेश्याओं का शिक्षा ग्रन्थ भी कह सकते हैं।
आर्याछन्द में निबद्ध यह काव्य अपनी मधुरता तथा स्निग्धता के कारण संस्कृत साहित्य में चिरस्मणीय रहेगा। प्रस्तुत श्लोक में वेश्याओं की तुलना चुम्बक से की गई है -
- परमार्थ कठोरा अपि विषयगतं लोहकं मनुष्यं च
- चुम्बक पाषाणशिलारूपाजीवाश्च कर्षन्ति ॥
अर्थात् जिस प्रकार चुम्बक पत्थर अपनी पहुँच में आये हुए लोहे को अपनी और खींचता है उसी प्रकार रूप से जीविका प्राप्त करने वाली वेश्याएं विषयो में आसक्त मनुष्यों को अनिवार्य रूप से खींचती हैं।
सुभाषितरत्नसन्दोह
जैन लेखक अमितगति ने 994 ई0 में सुभाषितरत्नसन्दोह रचना रची। इसमें 32 अध्याय हैं। इसमें जैन साधुओं , देवताओं और हिन्दुओं के व्यवहारों पर कटु आक्षेप हैं।
धर्मपरीक्षा
यह रचना भी अमित गति जी की है। उन्होने इस रचना में हिन्दू धर्म की अपेक्षा जैन धर्म का उत्कृष्ट बताया है।
कला विलास
महाकवि क्षेमेन्द्र ( 1050 ई0 ) ने अपनी तीव्र निरीक्षण शक्ति के द्वारा तत्कालीन समाज व धर्म का अनुशीलन कर नीतिपरक रचनाएं रची जिनमें से कला विलास प्रमुख स्थान रखता है। इसमें 10 अध्याय हैं। क्षेमेन्द्र ने इसमे जनता द्वारा अपनाए गए आजीविका के विभिन्न साधनों (कलाओं ) का वर्णन किया है। ये कलायें अनेक रूप धारण कर मानवों को ठगती हैं। अतएव इनकी पूरी जानकारी एवं बचने के उपाय इस काव्य में हैं। कला विकास के अतिरिक्त क्षेमेन्द्र की अन्य रचनाएं इस प्रकार हैं -
- दर्पदलन, चारुचर्या, चतुर्वर्गसग्रह, सेव्यसेवकोपदेश, समयमातृका, देशोपदेश, नर्ममाला
दर्पदलन
इसमें सात अध्याय हैं , जिसमें कवि ने उच्च कुल, धन, विद्या तथा सौन्दर्य, साहस दान तथा तपस्या से उत्पन्न तप की निःसारता दिखाई है। यथा -
- कुलं कितं श्रुतं शौर्य दानं तपस्तथा।
- प्राधान्येन मनुष्याणां सप्तैत मे नहेतवः॥
इसमें सात विचार हैं जिनके आरम्भ में तद्विषयक उपदेशात्मक सूक्तियाँ तथा उनकी उपादेयता स्पष्ट करने हेतु प्रधान पात्र द्वारा नीतियों का महत्व स्पष्टतः दर्शाया गया है।
चारूचर्या
यह सदाचार विषयक शतक है। इसके माध्यम से कवि ने सुन्दर व्यवहार हेतु आवश्यक नियमा ( नीतियों ) का वर्णन किया है।
चतुर्वर्गसग्रह
यह पुरूषार्थ चतुष्टय का विवरण देने वाला काव्य है। इसमें चार परिच्छेद हैं जिनमें धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्रशंसा निविष्ट की गई है।
सेव्यसेवकोपदेश
क्षेमेन्द्र ने इसमें सेवक की दीन दशा एवं स्वामिजनों द्वारा किए जाने वाले दुर्व्यवहारों का वर्णन बड़े ही रोचक ढंग से किया है। इयके कुल 61 श्लोक हैं। अनेकों छन्दो में निबद्ध इस काव्य की शैली प्रसादमयी है।
समयमातृका
इसमें आठ अध्याय हैं। इसमें वेश्याओं के प्रपंचों का वर्णन है। इसमें वेश्याओं के जाल से बचन की शिक्षा दी गई है।
देशोपदेश
इसमें तथा 'नर्ममाला' में कवि ने हास्योपदेश के रूप में नीति परक उपदेश दिये हैं। देशोपदेश में आठ उपदेश हैं। कवि का प्रधान लक्ष्य है कि हास से लज्जित होकर कोई भी पुरूष दोषों में प्रवृत नहीं होगा -
- हासेन लज्जितोऽत्यन्तं न दोषेषु प्रवर्तते।
- जनस्तदुपकाराय ममायं स्वमुद्यमः ॥
नर्ममाला
इसमें तीन परिच्छेद हैं।
योगशास्त्र
जैन कवि हेमचन्द्र ( 1088- 1172 ई0) ने इस रचना मे जैनों के कर्तव्यों तथा जैन साधुओं द्वारा अपनाये जाने वाले कठोर नियमों का वर्णन किया गया है।
मुग्धोपदेश
कवि जल्हण (1130 ई0 ) ने इस रचना में वेश्याओं के छल प्रपंच से बचने की शिक्षा दी गई है।
शान्तिशतक
शिल्हण ( 1205 ई0) द्वारा रचित इस शतक में मानसिक शान्ति की प्राप्ति के लिए विशेष बल दिया है। इस रचना पर भर्तृहरि विरचित नीति शतक, वैराग्य शतक का प्रभाव स्पष्टतः झलकता है।
शृंगारवैराग्यतरङ्गिणी
सोमप्रभ ने 1267 ई0 में यह रचना रची। इसमें स्त्रियों के संसर्ग से हानियां व वैराग्य के लाभों को बताया गया है।
सुभाषित नीवी
वेदान्तदेशिक (1268- 1269 ई0) द्वारा रचित इस रचना में 145 सुभाषित श्लोकों का संग्रह है। यह रचना भर्तृहरि के नीतिशतक से पूर्णतः प्रभावित है। इसके साथ ही इस कवि ने 'वैराग्य पंचक' नामक रचना भी रची है।
दृष्टान्तकलिकाशतम्
कवि कुसुम देव द्वारा रचित यह काव्य अनुष्टप छन्द में रचित है। वल्लभ देव (1500 ई0 ) न इस कवि का उल्लेख किया है। अतः कुसुमदेव का काल इस समय से पूर्व का ही है। इस काल के पूर्वाध में नीति कथन है तथा उत्तरार्ध में उसकी पुष्टि दृष्टान्त द्वारा की है।
नीति मञ्जरी
द्याद्विवेद ने 1492 ई0 में 'नीति मंजरी' की रचना की। इसमें वृद्ध देवता आदि प्राचीन ग्रन्थों के उदाहरणों के माध्यम से दिया गया है। कतिपय स्थलों पर वेद मन्त्रों की व्याख्या भी की है।
भामिनी विलास
पण्डितराज जगन्नाथ ( 1590 - 1665 ई ) द्वारा रचित भामिनी विलास में क्रमशः चार भाग हैं - अन्योक्ति, शृंगार, करूण और शान्त। इनमें क्रमशः 101 , 100 , 19 और 32 श्लोक हैं। पण्डितराज पाण्डित्य के पारा प्रवीण हैं। स्थान-स्थान पद काव्य सौन्दर्य , अलंकृत पदावली, भाव सौन्दर्य, रस प्रवणता, ज्ञानगरिमा और हृदयग्राहिता का दर्शन होता है। यथा -
- सपदिविलयेतु राज्यलक्ष्मीरूपरि पतन्त्वथवा कृपाण धारा
- अपद्दरतुतरां शिरः कृतान्तो मे तु मतिर्न मनागपैतु धर्मात् ॥
अर्थात चाहे राज्यलक्ष्मी चली जाए, चाहे तलवार की चोट सही पड़े, चाहे मृत्यु आ जाए, परन्तु मन कभी भी धर्म का परित्याग न करे।
कलि विडम्बन
नीलकण्ठ दीक्षित (1630 ई0 ) ने चार रचनाएं रची। जिनमें प्रथम कलि विडम्बन है। इसमें कलियुग की विडम्बना का उत्कृष्ट चित्रण है। यह एक व्यंग्यप्रधान काव्य है। यथा -
- यत्र भार्यागिरो वेदाः यत्र धर्मोऽर्थसाधनम्
- यत्र स्वप्रतिभा मौनं तस्मै श्रीकलये नमः
सभारञ्जनशतक
नीलकण्ठ दीक्षित जी की अन्य कृति इस शतक में यह बताया गया है कि किस प्रकार विद्वन्मण्डली को तथा राज्य सभा के व्यक्तियों को प्रसन्न करना चाहिए।
शान्ति विलास
दीक्षित जी की तृतीय कृति शान्ति विलास में 51 श्लोक हैं जो मन्दाक्रान्ता छन्द में विरचित हैं। इस काव्य में भौतिक जीवन की अनित्यता का चित्रण बड़े ही रोचक ढंग से किया गया है। साथ ही मोक्ष प्राप्ति हेतु शिव से प्रार्थना भी की गई है।
वैराग्य शतकम्
दीक्षित जी की चतुर्थ कृति वैराग्य शतक में वैराग्य पूर्ण जीवन व्यतीत करने के अनेकानेक लाभ बताये गए हैं।
उपदेश शतक
अल्मोड़ा निवासी पर्वतीय कवि जिनका समय 18वीं शताब्दी का उत्तरार्द्व है, ने उपदेश शतक नामक काव्य आर्या छन्द में रचा है। इसके जनोपयोगी उपदेश स्वरूप 100 श्लोक हैं।
सुभाषित कौस्तुभ
वे कटाध्वरी ( 1650 ई0 ) रचित प्रस्तुत काव्य भी उपदेशात्मक शैली में रचित नीति काव्य है।
लोकोक्ति मुक्तावली
दक्षिणा मूर्ति नामक कवि द्वारा रचित यह काव्य नाना छन्दो में निबद्ध है। इसमें 94 श्लोक हैं जिनमें विद्वत्प्रशंसा, दुर्जन, त्याग , द्वैत निन्दा , शिक्षा पद्वति , विषाद पद्धति तथा ज्ञान पद्धति में वर्ण्य-विषय का विभाजन है।
हिन्दी का नीतिसाहित्य
हिन्दी साहित्य में भी नीति काव्य खूब लिखा गया है। तुलसीदास, रहीम आदि के नीति के दोहे प्रसिद्ध हैं-
- धीरज धरम मित्र अरु नारी। आपद काल परखिए चारी॥ (तुलसीदास)
- कह रहीम कैसे निभै बेर केर को संग।
- वे डोलत रस आपने उनके फाटत अंग॥ (रहीम)
- चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय।
- दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय॥ (कबीरदास)
कुछ प्रमुख नीतियाँ
इन्हें भी देखें
- नीतिशास्त्र
- अर्थशास्त्र (ग्रन्थ)
- नीतिकथा
- सदाचार (morality)
- शुक्रनीति
- कामन्दकीय नीतिसार
- सोमदेव सूरि कृत नीतिवाक्यामृतम्
बाहरी कड़ियाँ
- नीतिसारः
- पॉलिसी प्रपोज़ल्स फॉर इण्डिया (हिन्दी में)
- आजादी में - भारत के लिये उदारवादी नीतियों की वकालत
- मानव जीवन में नीति की प्रासंगिकता
- AARP Public Policy Institute (United States)
- Global Public Policy Institute
- National Association of Schools of Public Affairs and Administration
- Policy Studies Organization
- The Hoover Digest
- Visualization of the policy cycle
- Ethics and Public Policy Center
- Institute for Research on Public Policy
- Instituto de Políticas Públicas, Argentina