निर्वाण
निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है - 'बुझा हुआ' (दीपक अग्नि, आदि)। किन्तु बौद्ध, जैन धर्म
श्रमण विचारधारा में (संस्कृत: निर्वाण;पालि: निब्बान;) पीड़ा या दु:ख से मुक्ति पाने की स्थिति है। पाली में "निब्बाण" का अर्थ है "मुक्ति पाना"- यानी, लालच, घृणा और भ्रम की अग्नि से मुक्ति।[1] यह बौद्ध धर्म का परम सत्य है और जैन धर्म का मुख्य सिद्धांत।
यद्यपि 'मुक्ति' के अर्थ में निर्वाण शब्द का प्रयोग गीता, भागवत, रघुवंश, शारीरक भाष्य इत्यादि नए-पुराने ग्रंथों में मिलता है, तथापि यह शब्द बौद्धों का पारिभाषिक है। सांख्य, न्याय, वैशेषिक, योग, मीमांसा (पूर्व) और वेदांत में क्रमशः मोक्ष, अपवर्ग, निःश्रेयस, मुक्ति या स्वर्गप्राप्ति तथा कैवल्य शब्दों का व्यवहार हुआ है पर बौद्ध दर्शन और जैन दर्शन में बराबर निर्वाण शब्द ही आया है और उसकी विशेष रूप से व्याख्या की गई है।
बौद्ध धर्म में निर्वाण
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बौद्ध धर्म की दो प्रधान शाखाएँ हैं—हीनयान (या उत्त- रीय) और महायान (या दक्षिणी)। इनमें से हीनयान शाखा के सब ग्रंथ पाली भाषा में हैं और बौद्ध धर्म के मूल रूप का प्रतिपादन करते हैं। महायान शाखा कुछ पीछे की है और उसके सब ग्रंथ सस्कृत में लिखे गए हैं। महायान शाखा में ही अनेक आचार्यों द्वारा बौद्ध सिद्धांतों का निरूपण गूढ़ तर्कप्रणाली द्वारा दार्शनिक दृष्टि से हुआ है। प्राचीन काल में वैदिक आचार्यों का जिन बौद्ध आचार्यों से शास्त्रार्थ होता था वे प्रायः महायान शाखा के थे। अतः निर्वाण शब्द से क्या अभिप्राय है इसका निर्णय उन्हीं के वचनों द्वारा हो सकता है। बोधिसत्व नागार्जुन ने माध्यमिक सूत्र में लिखा है कि 'भवसंतति का उच्छेद ही निर्वाण है', अर्थात् अपने संस्कारों द्वारा हम बार बार जन्म के बंधन में पड़ते हैं इससे उनके उच्छेद द्वारा भवबंधन का नाश हो सकता है। रत्नकूटसूत्र में बुद्ध का यह वचन हैः राग, द्वेष और मोह के क्षय से निर्वाण होता है। बज्रच्छेदिका में बुद्ध ने कहा है कि निर्वाण अनुपधि है, उसमें कोई संस्कार नहीं रह जाता। माध्यमिक सूत्रकार चंद्रकीर्ति ने निर्वाण के संबंध में कहा है कि सर्वप्रपंचनिवर्तक शून्यता को ही निर्वाण कहते हैं। यह शून्यता या निर्वाण क्या है ! न इसे भाव कह सकते हैं, न अभाव। क्योंकि भाव और अभाव दोनों के ज्ञान के क्षप का ही नाम तो निर्वाण है, जो अस्ति और नास्ति दोनों भावों के परे और अनिर्वचनीय है।
माधवाचार्य ने भी अपने सर्वदर्शनसंग्रह में शून्यता का यही अभिप्राय बतलाया है—'अस्ति, नास्ति, उभय और अनुभय इस चतुष्कोटि से विनिमुँक्ति ही शून्यत्व है'। माध्यमिक सूत्र में नागार्जुन ने कहा है कि अस्तित्व (है) और नास्तित्व (नहिं है) का अनुभव अल्पबुद्धि ही करते हैं। बुद्धिमान लोग इन दोनों का अपशमरूप कल्याण प्राप्त करते हैं। उपयुक्त वाक्यों से स्पष्ट है कि निर्वाण शब्द जिस शून्यता का बोधक है उससे चित्त का ग्राह्यग्राहकसंबंध ही नहीं है। मै भी मिथ्या, संसार भी मिथ्या। एक बात ध्यान देने की है कि बौद्ध दार्शनिक जीव या आत्मा की भी प्रकृत सत्ता नहीं मानते। वे एक महाशून्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते। बुद्ध ने निर्वाण को मन की उस परम शांति के रूप में वर्णित किया जो तृष्णा, क्रोध और दूसरी विषादकारी मन:स्थितियों (क्लेश) से परे है। ऐसा प्राणी जिसने जीवन में शांति को पा लिया है, जिसके मन में सभी के लिए दया हो और जिसने सभी इच्छाओं और बंधनों का त्याग कर दिया हो. यह शांति तभी प्राप्त होती है जब सभी वर्तमान इच्छाओं के कारण समाप्त हो जाएं और भविष्य में पैदा हो सकने वाली इच्छाओं का जड़ से नाश हो जाए. निर्वाण में तृष्णा और द्वेष के कारण जड़ से समाप्त हो जाते हैं, जिससे मनुष्य सभी प्रकार के कष्टों (पाली-दु:ख) या संसार में पुनर्जन्म के चक्र से छूट जाता है।
पाली के सिद्धांतों में निर्वाण के दूसरे दृष्टिकोण भी हैं; एक के अनुसार ये उसी तरह है जैसे किसी भी तथ्य में रिक्तताको ढूंढना. साथ ही इसे चेतना की संपूर्ण पुनर्व्यवस्था और चेतन की परतें खोलने की तरह भी दिखाया जाता है।[2] विद्वान हरबर्ट गींतर का कहना है कि निर्वाण से "आदर्श व्यक्तित्व, सच्चा इंसान" वास्तविकता बन जाता है।[3]
धम्मपद में बुद्ध कहते हैं कि निर्वाण ही "परम आनंद" है। यह आनंद चिरस्थाई और सर्वोपरि होती है जो ज्ञानोदय या बोधि से प्राप्त होने वाली शांति का एक अभिन्न अंग है। यह आनंद नश्वर वस्तुओं की खुशी से एकदम अलग होती है। निर्वाण से जुड़ा हुआ ज्ञान बोधि शब्द के माध्यम से व्यक्त होता है।
बुद्ध निर्वाण की व्याख्या को "सहज" (असंखता) मन के रूप में करते हैं। ऐसा मन जो इच्छाओं के अंत के कारण पूर्ण स्पष्टता और सुबोधगम्यता की स्थिति में पहुंच गया है। बुद्ध ने इसका वर्णन "मृत्युहीनता" (पाली: अमता या अमरावती)) तथा परम आध्यात्मिक ज्ञान, जो वह सहज परिणाम है जो सदाचारी जीवन व्यतीत करने और श्रेष्ठ आठ-सूत्रीय आदर्श पथ पर चलने पर मिलता है के रूप में किया है। ऐसे जीवन से कर्म (संस्कृत; पाली में कम्म पर नियंत्रण उत्पन्न होता है। इससे सकारात्मक परिणाम के साथ पूर्णरूप से कर्म का संचार होता है और अंत में कर्म की उत्पत्ति की समाप्ति होने लगती है जिससे निब्बाण की प्राप्ति होती है। अन्यथा, प्राणी सदैव के लिए इच्छाओं, आकार, निराकार के नश्वर क्षेत्र में पीड़ित हो सदैव भटकता रहता है, जिसे एकत्रित रूप से संसार कहते हैं।
प्रत्येक मुक्त व्यक्ति कोई नया कर्म नहीं करता, बल्कि अपने पूर्व कर्मों की धरोहर से उपजे अपने खास व्यक्तित्व को बचाए रखता है। अरहंत के बचे हुए जीवनकाल में एक मनोवैज्ञानिक-शारीरिक भाग शेष रहता है, इसी से कर्म का निरंतर प्रभाव दिखता है।[4]
जबकि निर्वाण "सहज" है, यह "अकारण" या "स्वतंत्र" नहीं है।[5] प्राचीन शास्त्र भी यही दर्शाते हैं कि वर्तमान या भविष्य के किसी जन्म में निब्बाण पाना कर्म पर निर्भर करता है और ये पूर्व-निर्धारित नहीं होता.[6] साथ ही, पाली निकायों के अनुसार मोक्ष पहले से स्थित या सदैव से रही पूर्णता को पहचानना नहीं है, बल्कि उसे पाना है जिसे अब तक प्राप्त नहीं किया जा सका हो.[7] पारंपरिक योगकारा मत भी यही कहता है, बुद्धघोष का भी यही विचार है।[8]
'निर्वाण' की व्युत्पत्ति
निर्वाण शब्द निः (निर) और वाण की संधि से बना है। निर का अर्थ है "अलग होना, दूर होना या उसके बिना" और वाण (पाली: वाति) का अर्थ है "मुक्ति" जैसे "बहती हवा" और "सूंघना, इत्यादि".[7]
अभिधर्म-महाविभाषा-शास्त्र, जो एक सर्वस्तवादी विचार है, में इस शब्द के संस्कृत से उत्पन्न सभी संभावित अर्थों का वर्णन है:
- वाण, का तात्पर्य है पुनर्जन्म का पथ, + निर, का तात्पर्य है छोड़ना या "पुनर्जन्म के पथ से दूर होना."
- वाण, अर्थात 'दुर्गन्ध', + निर, अर्थात "मुक्ति": "पीड़ादायक कर्म की दुर्गन्ध से मुक्ति."
- वाण, अर्थात "घने वन", + निर, अर्थात "छुटकारा पाना"="पांच स्कंधों के घने वन से स्थाई मुक्ति" (पंच स्कंध), या "मोह, द्वेष तथा माया" (राग, द्वेष, अविद्या) या "अस्तित्व के तीन लक्षणों" (अस्थायित्व, अनित्य, असंतोष, दु:ख, आत्मविहीनता, अनात्मन) से मुक्ति.
- वाण, अर्थात "बुनना", + निर, अर्थात "गांठ"="कर्म के पीड़ादायी धागे की गांठ से मुक्ति."
विवरण
सूत्रों में निर्वाण को कभी भी एक स्थान के रूप में नहीं माना गया है (जैसे स्वर्ग को एक स्थान माना जाता है), बल्कि इसे संसार का ही विरोधाभास (नीचे पढ़ें) माना गया है, जो वास्तव में अज्ञानता का पर्याय है। (अविद्या, पाली अविज्जा). कहा गया है:
- "निब्बाण का अर्थ है वह मुक्त मन (चित्त) जिसका जुड़ाव समाप्त हो चुका हो" (मज्झिमा निकाय 2-Att. 4.68).
निर्वाण का सटीक अर्थ है- ज्ञान की प्राप्ति- जो मन (चित्त) की पहचान को खत्म करके मूल तथ्य से जुड़ाव पैदा करता है। सैद्धांतिक तौर पर निब्बाण एक ऐसे मन को कहा जाता है जो "न आ रहा है (भाव) और न जा रहा है (विभाव)" और उसने शाश्वतता की स्थिति को प्राप्त कर लिया है, जिससे "मुक्ति" (विमुक्ति) मिलती है।
स्थिरता, शीतलता और शांति भी इसके अर्थ हैं। निर्वाण की प्राप्ति की तुलना अविद्या (अज्ञानता) के अंत से की जाती है। जिससे उस मन:स्थिति की इच्छा (चेतना) जागृत होती है जो जीवन चक्र (संसार) से मुक्ति दिलाती है। संसार मूलत: तृष्णा और अज्ञानता की उपज है (देखें आश्रित उत्पत्ति). व्यक्ति बिना मृत्यु के भी निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है। जब निर्वाण प्राप्त कर चुके व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो उस मृत्यु को मोक्ष [[|parinirvāṇa]](पाली: परिनिब्बाण) कहते हैं, क्योंकि वह जीवन-मरण और पुनर्जन्म (संसार) के आखिरी जुड़ाव से पूर्ण रूप से छूट जाता है और उसका फिर से जन्म नहीं होता. बौद्ध धर्म सांसारिक अस्तित्व (पैदा होने और मरने और कभी अपनी खोजन कर पाने) के अंत को परम लक्ष्य मानता है और यही निर्वाण की प्राप्ति है; ऐसे व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात क्या होता है,parinirvāṇa ये समझाया नहीं जा सकता, क्योंकि ये अनुभव मनुष्य की समझ की सीमा से परे है। कई प्रश्नों की एक श्रृंखला के माध्यम से शरिपुत्त ने एक भिक्षु से मनवाया कि तथागत को अपने वर्तमान जीवन में भी सत्य या वास्तविकता नहीं माना जा सकता, ऐसे में अरहंत की मृत्यु के पश्चात की स्थिति पर अटकलें लगाना सही नहीं होगा.[9] देखें तथागत#इनस्क्रूटेबल
एक स्तर का ज्ञान प्राप्त करने के बाद व्यक्ति निर्वाण को मानसिक चेतना की तरह अनुभव करता है।[10][11] कुछ धारणाओं के अनुसार अगर निब्बाण के रास्ते पर चला जाए तो ये अरहंत को ज्ञान प्राप्ति और समाधि की ओर ले जाता है।[12] अंत:करण के विकास से इस स्थिति पर पहुंचने पर यदि योगी को ये पता चलता है कि ये स्थिति बनावटी है और इसलिए नश्वर है, तो सभी बंधन खत्म हो जाते हैं, व्यक्ति अरहंत बन जाता है और निब्बाण की प्राप्ति होती है।[13]
उत्कृष्ट ज्ञान
मन जागरूक है; यह चेतन है। निर्वाण से चेतना खुलती है और मन इस असहज विश्व के सभी बंधनों से मुक्त होकर जागरुक होता है। बुद्ध ने इस बात का कई तरह से वर्णन किया है। इनमें से एक इस प्रकार है:
चेतना निराकार है, इसका कोई अंत नहीं है और ये सभी तरफ से तेजस्वी है।[14][15]
अजान पसन्नो और अजान अमारो (Ajahn Pasanno and Ajahn Amaro) लिखते हैं कि विज्ञान (पाली: विंञाण) शब्द चेतन की गुणवत्ता के सन्दर्भ में देखा जाता है। उनके मुताबिक "विंञाण" को उसके शाब्दिक अर्थ से कहीं अधिक समझा जाना चाहिए: "बुद्ध ने अपने समकक्ष कई दार्शनिकों की तरह विद्या के आडंबर और पाखंड के बजाय एक बड़े दायरे में आम लोगों की समझ में आने वाली भाषा का प्रयोग किया, जिससे उनका संदेश अधिक से अधिक समझा जा सके. इसलिए 'विंञाण' को यहां पर 'जानने' के अर्थ में लिया जा सकता है, लेकिन आंशिक टूटा-फूटा, भेदभावपरक (वि-) जानना (-ज्ञान) नहीं, जो आमतौर पर इसका अर्थ लगाया जाता है। बल्कि इसका अर्थ होना चाहिए प्रारंभिक और उत्कृष्ट ज्ञान, नहीं तो जिस सन्दर्भ में इसकी बात हो रही है, वहां विरोधाभास दिखाई देगा." फिर उन्होंने आगे बताया कि इन शब्दों के चयन के पीछे क्या कारण रहा होगा.[16] ये "अप्रकट चेतना" छह इंद्रियों की चेतना से भिन्न है, बाकी चेतनाओं की एक "सतह" होती है, जिनकी वजह से प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है।[14] पीटर हार्वे के अनुसार प्राचीन ग्रंथों में इस मुद्दे पर दो राय है कि "चेतन" शब्द सटीक है या नहीं.[17] एक मुक्त व्यक्ति इसका सहज रूप से अनुभव करता है।[14][18]
एक व्याख्या के अनुसार, "प्रकाशवान चेतन" निर्वाण के समान है।[19][20] दूसरे इससे सहमत नहीं है, उनके अनुसार ये निर्वाण नहीं है, बल्कि ये एक प्रकार की चेतना है जो केवल अरहंतको ही प्राप्त होती है।[21][22] मज्झिमा निकाय में इसे रिक्त स्थान की तरह बताया गया है।[23] मुक्त व्यक्तियों के लिए निब्बाण से जुड़ी हुई प्रकाशवान सहज चेतना, मानसिक चेतना के ध्यान की आवश्यकता नहीं होती और ये मानसिक चेतना के सभी भागों से उत्कृष्ट होती है।[10][13] यह बुद्ध पूर्व के उपनिषदऔर भगवद्गीताके आत्मज्ञान की अवधारणा से पूर्णत: भिन्न है, जो व्यक्ति की अंतर्मन की चेतना को जगाने की बात करते हैं, जबकि इसमें इस पहलू पर जोर नहीं दिया गया है और इसमें किसी भी तरह "स्व" से भ्रमित नहीं होना चाहिए. इसके अलावा, बुद्ध के छठे ध्यानके अनुसार, ये असीमित चेतना के क्षेत्र में उत्कृष्ट होता है, जो स्वयं "मैं" के मिथ्याभिमान पर समाप्त नहीं होता.[24]
नागार्जुन ने भी दिग्निकाय में चेतना के स्तर पर दो स्थानों पर संकेत दिए हैं।[25] उन्होंने लिखा है:
साधु ने घोषणा की कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु, लंबा, छोटा, महीन और कड़ा, अच्छा इत्यादि सभी चेतना में बुझ जाते हैं।.. यहां लंबा और छोटा, महीन और सख़्त, अच्छा और बुरा ये सभी नाम और रूप समाप्त हो जाते हैं।[26]
इसी से जुड़ा विचार, जिसे पाली सिद्धांत और समकालीन थेरवाद में समर्थन मिला है, जबकि थेरवाद भाष्य और अभिधम्म में इसका उल्लेख नहीं दिखता, ये कहता है कि अरहंत का मन ही निब्बाण है।[27]
निर्वाण और संसार
महायानबौद्ध धर्म में, निर्वाण और संसार को जब धर्मकायकी परम प्रकृति के तौर पर देखा जाता है, तो ये दोनों पृथक-पृथक नहीं हैं। एक व्यक्ति बौद्ध पथ से निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है। अगर ये दोनों एकदम अलग होते तो ऐसा संभव नहीं होता. यानी निर्वाण और संसार का द्वैतवाद पारंपरिक तौर पर ही सटीक है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने का एक और रास्ता यह विश्लेषण है कि सभी तथ्य एक आवश्यक पहचान से रिक्त होते हैं, इसलिए पीड़ा किसी भी परिस्थिति में जन्मजात नहीं होती. इसलिए दु:ख और उसके कारणों से मुक्ति कोई अभौतिक प्रक्रिया नहीं है। इस विचार की और व्याख्या के लिए द्विसत्य सिद्धांत को देखें.
थेरवादमत संसार और निब्बाण के बीच परस्पर विरोधाभास को दर्शाता है, जहां से मुक्ति की खोज शुरू होती है। साथ ही, यही विरोधाभास परम लक्ष्य की ओर भी ले जाता है, जो वास्तव में संसार में उत्कृष्ट होना और निब्बाण के रास्ते मुक्ति की प्राप्ति है। थेरवादकई मायनों में महायान मत से भिन्न है, जो खुद भी संसार और निर्वाण के द्वैतवाद से शुरू होता है, इस ध्रुवीकरण को यह सिर्फ एक आरंभिक पाठ के तौर पर नहीं दिखाता है, बल्कि आगे जाकर ये अद्वैतवाद के वृहद अनुभव की ओर ले जाता है।[] पाली सूत्र के दृष्टिकोण से बुद्ध और अरहंत की पीड़ाएं और ठहराव, यानी संसार और निब्बाण पृथक-पृथक हैं।
दोनों ही मत इस बात पर सहमत है कि शाक्य मुनि बुद्ध इसी संसार में रहते हुए निर्वाण को प्राप्त हुए, क्योंकि उन्हें सभी ने संसार से मुक्त होते हुए देखा था।
पाली सिद्धांत में निर्वाण के पथ
विशुद्धिमार्ग Ch. I, v. 6 (बुद्धघोषÑāṇamoli, 1999, pp. 6–7), बुद्धघोष ने निर्वाण[28] के पथ के लिए पाली सिद्धांत में कई विकल्प दिखाए हैं, जिनमें शामिल हैं:
- अंतरदृष्टि (विपस्सना) से ही (देखें Dh.277)[29]
- ज्ञान एवं समझ से (see डीएच. (Dh.) 372)[30]
- कर्म, दर्शन और साधुता के द्वारा (देखें एमएन (MN) iii.262)सन्दर्भ त्रुटि:
<ref>
टैग के लिए समाप्ति</ref>
टैग नहीं मिला - पुण्य, चेतना और समझ (7एसएन (SN) i.13)[31]
- पुण्य, समझ, एकाग्रता और प्रयास से (देखें एसएन (SN) i.53)[32]
- पूर्ण मन की स्थिति के चार स्तंभ द्वारा (सतिपट्ठाना सुत्त, ii.290 डीएन (DN))[33]
किसी के विश्लेषण के आधार पर, ये सभी विकल्प बुद्ध के बताए गुणों, मानसिक विकास[34] और ज्ञान के तीन सूत्रीय शिक्षा को ही नए सिरे से दिखलाता है।
निर्वाण पर महायान दृष्टिकोण
निर्वाण को विशुद्ध, गैर द्वैतवादी 'उत्कृष्ट मन' की तरह दिखाने का विचार महायान/तांत्रिक ग्रंथों में भी मिलता है। संपुत (Samputa), उदाहरण के लिए, यह वर्णन करता है:
'वासना और भावनात्मक दोष से रिक्त, जिस पर द्वैतवादी दृष्टिकोण के बादल न हों, ऐसा उत्कृष्ट मन ही वास्तव में परम निर्वाण है।'[35]
कुछ महायान परंपराओं के अनुसार बुद्ध को मरीचिका (docetic प्रकार) में देखते हैं, जिसमें प्रत्यक्ष दिखने वाले को निर्वाण की स्थिति से ऊपर उठने की तरह दिखाया है। प्रोफेसर एटियन लमोटे (Étienne Lamotte) के अनुसार, बुद्ध हमेशा और हर समय निर्वाण में रहते हैं और उनका भौतिक शरीर और धरती पर रूप वास्तव में छद्म है। लमोटे बुद्ध के बारे में लिखते हैं: 'उनका जन्म हुआ, वो संबोधि को प्राप्त हुए, उन्होंने धर्म चक्र को चलाया और निर्वाण की प्राप्ति की. हालांकि ये सब भ्रम है: बुद्ध के प्राकट्य में आने, ठहरने और जाने की अवस्थाओं का लोप है; उनके निर्वाण ये दर्शाते हैं कि वो हमेशा और हर समय निर्वाण की स्थिति में रहते हैं।'[36]
कुछ महायान सूत्र आगे जाकर निर्वाण की प्रकृति की विशेषताएं बताने का प्रयत्न करते हैं। महायान महापरिनिर्वाण सूत्र, के मुख्य विषयों में मूलत: निर्वाण की सीमा या धातु ही है, इसमें बुद्ध चार आवश्यक घटकों की चर्चा करते हैं जिससे निर्वाण का निर्माण होता है। जिनमें से एक है 'स्व' (आत्मन), जिसे बुद्ध के स्थायी स्वयं के रूप में विश्लेषित किया जाता है। महायान के आधार पर निर्वाण को समझाते हुए विलियम एडवर्ड सूथिलऔर लुई होडस कहते हैं:
'निर्वाण सूत्र ये दावा करते हैं कि प्राचीन विचार जैसे स्थायित्व, परमानंद, व्यक्तित्व, शुद्धता ही उत्कृष्ट निर्वाण की ओर ले जाते हैं। महायान ये घोषणा करता है कि हीनयान, ये नकारते हुए कि उत्कृष्ट क्षेत्र में कोई व्यक्तित्व ही नहीं होता, दरअसल बुद्ध के अस्तित्व को ही नकारते हैं। महायान में, अंतिम निर्वाण उत्कृष्ट है और इसे परमकी संज्ञा दी गई है।'[37]
जब ये शास्त्र लिखा गया, तब पहले से ही निर्वाण और बुद्ध के बारे में काफी सकारात्मक बातें कही जा चुकी थीं।[38] बौद्ध धर्म के शुरुआती विचार के अनुसार, निर्वाण को स्थायित्व, हर्ष और शुद्धता से दर्शाया गया है। उसे "मैं हूं" की मुद्रा का प्रतिकार करते हुए दिखाया गया है और ये स्वभ्रांति की सभी संभावनाओं से परे है।[8][39] महापरिनिर्वाण सूत्र, जो महायान का लंबा और वृहद शास्त्र है[40], बुद्ध को गैर-बौद्ध लोगों पर विजय के लिए "स्वयं" का प्रयोग करते हुए दिखाया है।[41] इसी से आगे कहा गया है: "बुद्ध की प्रकृति स्वयं की नहीं है। संवेदनशील प्राणियों के मार्गदर्शन के लिए स्वयं का प्रयोग किया गया है।"[42]
इसी से जुड़ा शास्त्र रत्नगोत्र विभाग, कहता है कि तथागतगर्भ की शिक्षाएं संवेदनशील प्राणियों को जीतने की दृष्टि से और "स्वयं से जुड़ाव" को समाप्त करने के लिए है - गैर बौद्ध शिक्षा की पांच में से एक कमी. लंकावतार सूत्र में योरू वैंग ने भी ऐसी ही भाषा का प्रयोग पाया है, फिर लिखते हैं: "ये देखते हुए कि ये सन्दर्भ आवश्यक है। ये हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचने से रोकेगा कि तथागतगर्भ के विचार से ये सिर्फ एक पारलौकिक कल्पना भर थी।"[42] हालांकि, कुछ[कौन?] लोगों ने महापरिनिर्वाण सूत्र से जुड़े इस निष्कर्ष पर आपत्ति की है और दावा किया है कि बुद्ध ने इन पंक्तियों में स्वयं की वास्तविकता पर बल देते हुए घोषणा की है कि वो ही स्वयं हैं:
'कई कारणों और परिस्थितियों के चलते मैंने भी ये शिक्षा दी कि स्वयं ही स्वयं से परे है। जबकि वास्तव में स्वयं है, मैंने ये सिखाया कि कोई स्वयं नहीं है लेकिन इसमें कुछ गलत भी नहीं है। बुद्ध-धातु स्रवयं रहित है। जब तथागत ये शिक्षा देते हैं कि कोई स्वयं नहीं है, तो वो ऐसा अनादि के कारण करते हैं। तथागत स्वयं हैं और वो स्वयं नहीं होने की शिक्षा देते हैं क्योंकि उन्होंने संप्रभुता (ऐश्वर्य) की प्राप्ति कर ली है।'[43]
निर्वाण सूत्र में बुद्ध ने कहा है कि अब वह अब तक गोपनीय रखे गए सिद्धांतों (निर्वाण समेत) की शिक्षा देंगे और गैर-स्वयं पर उनकी पहले दी गई शिक्षा औचित्य के आधार पर ही थी। डॉ कोशो यममोटो लिखते हैं:
'वह कहते हैं कि गैर-स्वयं जो उन्होंने पहले सिखाया था वो कुछ और नहीं बल्कि उस परिपेक्ष्य में औचित्य भर है।..उन्होंने ये भी बताया कि अब वो गोपनीय ज्ञान के बारे में बात करने के लिए तैयार हैं। व्यक्ति सिरे से उलट विचारों का भी पालन करता है। तो अब वह निर्वाण के सकारात्मक गुणों की बात करेंगे, जो कुछ और नहीं बल्कि शाश्वत, हर्ष और शुद्ध ही हैं।'[44]
कुछ विद्वानों के अनुसार, तथागतगर्भ प्रकृति के सूत्रों में जिस भाषा का प्रयोग किया गया है उनमें सकारात्मक भाषा में आश्रित उत्पत्ति से बौद्ध शिक्षा पर जोर दिखता है जिससे लोग बौद्ध धर्म से दूर न होने लग जाएं और इस शिक्षा को निहिलिज्म (nihilism) के समान न समझ बैठें. उदाहरण के लिए, कुछ सूत्रों में गैर-स्वयं के पूर्ण ज्ञान को ही सच्चा स्वयं कहा गया है; इस पथ के परम लक्ष्य को फिर काफी सकारात्मक भाषा से समझाया गया है जो भारत के दर्शन शास्त्र में उपयोग की जाती रही है, लेकिन अब इसे नई बौद्ध शब्दावली का हिस्सा बना लिया गया जिससे उस व्यक्ति के बारे में समझाया जा सके जिसने बौद्ध पथ को सफलतापूर्वक पूर्ण कर लिया हो.[45]
डॉ॰ यममोटो बताते हैं कि निर्वाण का 'सकारात्मक' चित्रण असल में एक उच्च कोटि के निर्वाण से जुड़ा हुआ है - जिसे 'महानिर्वाण' कहते हैं। निर्वाण सूत्र के 'बोधिसत्व महान परमात्मा राजा' पाठ के बारे में बात करते हुए यममोटो खुद ही धर्मग्रंथ का सहारा लेते हैं: 'निर्वाण क्या है? ...ये कुछ इसी प्रकार है कि भूखे व्यक्ति को वो शांति और हर्ष मिल जाए जैसे उसके पेट में कुछ भोजन चला गया हो.' [46] यममोटो उद्धरण जारी रखते हैं, साथ ही अपनी टिप्पणी भी जोड़ते हैं:
"लेकिन, ऐसे निर्वाण को "महानिर्वाण" नहीं कहा जा सकता". और वो [यानी बुद्ध के निर्वाण के संबंध में नए रहस्योद्धाटन] "महा स्वयं", "महा हर्ष" और "महा शुद्धता" पर भी चिंतन करते हैं जो सभी सनातन की तरह ही महा निर्वाण के चार गुण हैं।'[47]
कुछ विद्वानों के अनुसार, "स्वयं" की यहां और संबंधित सूत्रों में व्याख्या असल में पर्याप्त स्वयं का प्रतिनिधित्व नहीं करती है। दरअसल, यह एक सकारात्मक भाषा में रिक्तता की अभिव्यक्ति है और बौद्ध प्रथाओं के माध्यम से बुद्धत्व की प्राप्ति का सूचक है। इस दृष्टिकोण में 'तथागतगर्भ'/बुद्ध की शिक्षा का ध्येय मुक्ति-शास्त्रवादी है न कि सैद्धांतिक.[48]
बहरहाल, ये व्याख्या विवादास्पद है। सभी विद्वानों का यह मत नहीं है। निर्वाण सूत्र और संबंधित शास्त्रों में तथागतगर्भ सिद्धांत के विविध ज्ञान पर लिखते हुए, डॉ॰ जेमी हबर्ड कहते हैं कि किस तरह कुछ विद्धान तथागतगर्भ में परम तत्ववाद और अद्वैतवाद की प्रकृति की तरफ झुकाव पाते हैं [वो प्रकृति जिसे जापानी विद्वान मात्सुमोतो ने गैर-बौद्ध कहकर दंडनीय करार दिया]. डॉ॰ हबर्ड की टिप्पणियां:
'मात्सुमोतो [ने पाया] कि बेहद सकारात्मक भाषा और तथागतगर्भ शास्त्र में ज्ञान के प्रेरक तरीके में कई समानताएं हैं। साथ ही उन्हें आत्मन/ब्राह्मण परंपरा में पर्याप्त अद्वैतवाद दिखा. जाहिर है, मात्सुमोतो ने ही सिर्फ इस समानता का उल्लेख किया है, ऐसा नहीं है। उदाहरण के लिए, ताकासाकी जिकिडो जो तथागतगर्भ परंपरा के प्रकांड विद्वान माने जाते हैं, उन्होंने तथागतगर्भ और महायान के सिद्धातों में अद्वैतवाद को देखा...ओबरमिलर ने अपने अनुवाद में अद्वैत परम सिद्धांत की धारणा को तथागतगर्भ परंपरा से जोड़कर देखा और उन्होंने रत्नगोत्र पर टिप्पणी की, जिसका उन्होंने बड़े ही सटीक तरीके से "बौद्ध अद्वैतवाद की नियम पुस्तिका" के तौर पर नामकरण किया।..लमोटे और फ्रॉवॉलनर ने तथागतगर्भ सिद्धांत को मध्यमिका से ठीक उलट बताया और उन्होंने उसे आत्मन/ब्राह्मण के अद्वैतवाद से जुड़ा हुआ बताया, जबकि नगाओ, सीफोर्ट रॉयग और जॉनस्टन (रत्नगोत्र के संपादक) जैसे कुछ लोगों ने सिर्फ अपने संदेह जाहिर किए और कहा कि ये वेदों के समय के बाद के अद्वैतवाद से मेल खाता है। एक और मत जिसका प्रतिनिधित्व यामागूची सुसुमू और उनके छात्र ओगावा इचिजो करते हैं, उन्होंने तथागतगर्भ को वैदिक विचारों के बिना ही समझने में सफलता पाई और उन्होंने उसे रिक्तता और कारणत्व की बौद्ध परंपरा में ही पाया जो किसी भी तरह के अद्वैतवाद को सिरे से नकारते हैं। जाहिर है, तथागतगर्भ और बौद्ध परंपरा की अद्वैतवाद या शाश्वत प्रकृति से जुड़े प्रश्न जटिल हैं।[49]
डॉ॰ हबर्ड इन शब्दों के साथ तथागतगर्भ के सिद्धांतों पर अपने शोध का सार रखते हैं:
'तथागतगर्भ का ज्ञान हमेशा से ही बहस का मुद्दा है, क्योंकि वह सत्य और ज्ञान के लिए बेहद मौलिक सकारात्मक दृष्टिकोण रखता है, वास्तविकता का वर्णन नकारात्मक सन्दर्भ में नहीं यानी जो उसमें कमी है या रिक्तता है उसके सन्दर्भ में नहीं (अपोफैटिक या नकारात्मक वर्णन, जैसा परफेक्शन ऑफ विस्डम कॉर्पस और माध्यमिका परंपरा में है), बल्कि सकारात्मक वर्णन जैसा (कैटाफैटिक वर्णन यानी ईश्वर को परम सत्य बताना, जो भक्ति, तांत्रिक, महापरिनिर्वाण और लोटस सूत्र परंपरा और पारंपरिक ब्राह्मण प्रणाली के अद्वैतवाद में भी दिखता है)'[50]
पॉल विलियम्स के अनुसार, आत्मन/ब्राह्मण विचार के अद्वैतवाद में एकरूपता समझाई जा सकती है। जब निर्वाण सूत्र गैर बौद्ध साधुओं को जीतने के लिए अपनी शिक्षा सामने रखे:
इस समय बौद्ध धर्म पर हिंदू प्रभाव के बारे में बड़ा रोचक लगता है। लेकिन सिर्फ प्रभावों की बात करना बेहद आसान है।.. ये कहते हुए महापरिनिर्वाण सूत्र खुद ही एक प्रकार से हिंदू प्रभाव की बात मानता है, जब वो बुद्ध को 'स्वयं' का इस्तेमाल करते हुए गैर-बौद्ध साधुओं को जीतने की बात करता है। फिर भी, ये सोचना गलत होगा कि अद्वैत वेदांत के उत्कृष्ट स्वयं ब्राह्मण इस समय बौद्ध धर्म को प्रभावित करते हैं। ये कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि स्वयं जिसका महापरिनिर्वाण सूत्र में अर्थ है स्वयंरहित की कहीं भी अद्वैत ब्राह्मण से तुलना की जा सकती है और वैसे भी ये तथागतगर्भ सूत्र गौड़ पद (सत्रहवीं शताब्दी), जिसे हिंदू अद्वैत मत का संस्थापक कहा जाता है, उससे भी पुराना है।[38]
सूत्र ये भी कहता है कि बुद्ध की प्रकृति वास्तव में स्वरहित है, लेकिन बातचीत के आधार पर ये स्वयं कहलाती है।[51] इसी सूत्र के दूसरे खंड में, यह कहा गया है कि तीन तरीके हैं, जिनसे व्यक्ति कुछ "पा" सकता है; पूर्व में पाना, वर्तमान में पाना और भविष्य में पाना. उसमें कहा गया है कि "सभी में बुद्ध की प्रकृति है" का आशय है कि सभी भविष्य में जा कर बुद्ध बन जाएंगे.[52]. हालांकि, डोजन ने साफ कहा है कि बुद्ध की प्रकृति कुछ सन्दर्भों में वर्तमान में भी मौजूद है यहां तक कि गैर-बौद्ध में भी: असल में वास्तविकता को वर्तमान से तुलना करना (अथवा "जो निरंतर न हो") इसे बुद्ध प्रकृति से जोड़ा गया, जिसमें घास, पेड़, मन और शरीर सभी को शामिल किया गया। डोजन के लिए किसी भी वस्तु को देखना अथवा बुद्ध की प्रकृति को देखना है। जबकि चिनुल का मत है कि ये शरीर में सूंघने और देखने की क्षमता की तरह विद्यमान है। महत्वपूर्ण लंकावतार सूत्र में कहा गया है कि सभी कार्य बुद्ध की प्रकृति के कारण हैं, हर कर्म की नियति यही कारण और जड़ है।
जैसा कि ऊपर सुझाया गया है जापानी जेन गुरु डोजन ने बुद्ध प्रकृति की बिल्कुल अलग व्याख्या की है, जिसमें 'संपूर्ण स्वरूप' को बुद्ध प्रकृति के तौर पर देखा जाता है और कुछ भी (यहां तक स्थिर वस्तुएं भी) इससे अलग नहीं. बुद्ध की प्रकृति सिर्फ 'बुद्ध होने की क्षमता' भर नहीं है, बल्कि संसार की हर वस्तु की प्रकृति यही है। सभी वस्तुएं अपने अस्थायित्व में बुद्ध प्रकृति की तरह देखी गई हैं[53] और वो किसी बुद्ध प्रकृति के लिए 'क्षमता' का प्रमाण नहीं है। डॉ॰ मसाओ आबे इस समझ पर लिखते हैं:
'... डोजन की समझ में, बुद्ध प्रकृति किसी क्षमता का प्रमाण नहीं, वो कोई बीज नहीं है जो हर संवेदनशील व्यक्ति के पास हो. बल्कि हर संवेदनशील व्यक्ति, या कहें हर वस्तु, जीवित या मृत असल में बुद्ध प्रकृति ही है। ये कोई क्षमता नहीं है जो भविष्य में रूप दिखाएगी, हर वस्तु की मूल प्रकृति यही है।[54]
डोजन ने इस तरह बुद्ध प्रकृति और 'संवेदनशील व्यक्तियों' के विचार के दायरे को बढ़ाते हुए, लगभग सारी चीजों को समेट लिया, वो सारी चीजें जो जीवित हैं, जिनमें बुद्धि है और जो बुद्ध प्रकृति ही हैं। डॉ॰ मसाओ आबेइसकी व्याख्या करते हैं:
'... डोजन ने न सिर्फ बुद्ध प्रकृति के अर्थ का दायरा बढ़ाया है, बल्कि संवेदनशील व्यक्तियों (शूजो) को भी वृहदता प्रदान की है। " बूशो (Bussho)" में, "संपूर्ण व्यक्तित्व ही बुद्ध की प्रकृति है।" ये कहने के फौरन बाद वो कहते हैं, "मैं संपूर्ण व्यक्ति की 'संवेदनशील प्राणियों' की इकाई को अविभाज्य मानता हूं"... यानी डोजन ने शूजो (संवेदनशील प्राणियों) का दायरा बढ़ा दिया है, जो पारंपरिक रूप से केवल जीवित या संवेदशनशील व्यक्तियों के लिए उपयोग में लाया जाता था, अब इसमें मृत और असंवेदनशील वस्तुएं भी शामिल हैं। दूसरे शब्दों में, उन्होंने मृत वस्तुओं में जीवन देकर असंवेदनशील वस्तुओं में भावनाएं देकर और अंत में सभी में बुद्ध और बुद्ध प्रकृति देने की बात कही है।'[55].
उद्धरण
- गौतम बुद्ध:
- "निर्वाण ही परम आनंद है।" [डीपी (Dp) 204]
- "जहां कुछ भी नहीं है, जहां कुछ भी समझा नहीं जा सकता, जहां एक टापू के अलावा कुछ भी नहीं है। उसे ही मैं निर्वाण कहता हूं-- जहां बूढ़ा होना और मरना विलुप्त हो जाता है।"
- "जहां, भिक्षु हैं, जो अजन्मे - जो कभी हुए भी नहीं - जिन्र्हें कभी बनाया भी नहीं गया - न जिन्हें गढ़ा गया हो. अगर वो ऐसे जो अजन्मे - जो कभी हुए भी नहीं - जिन्र्हें कभी बनाया भी नहीं गया - न जिन्हें गढ़ा गया हो, न होते तो जन्म- होने- बनने - गढ़ने से मुक्ति के बारे में सोचा नहीं जा सकता. लेकिन, असल में क्योंकि एक अजन्मा- बिना हुआ- बिना बना- बिना गढ़ा कोई है, इसीलिए जन्मे- हुए - बने और गढ़े गए के बारे में सोचा जा सकता है।" [उडान VIII.3]
- यह कहा गया: 'मुक्त मन/इच्छा (चित्त) जिसमें जुड़ाव नहीं है, उसी का अर्थ निब्बाण है" [एमएन2-एटीटी. (MN2-Att.) 4.68]
- "होने पर ही विजय का अर्थ निर्वाण है; इसका मतलब हुआ कि पांच मूल पर विजय ही निर्वाण है।" [एसएन-एटीटी. (SN-Att.) 2.123]
- अग्गि वच्छगोत्त सुत्त में बुद्ध ने निब्बाण को ऐसी अग्नि को बुझाने वाला बताया है जहां से जीविका के सभी साधन हटा दिये जाते हैं: " गहन, वच्छ, इस क्रिया को देखना, समझना बहुत मुश्किल है, ये शांत है, निर्मल है, इसका अनुमान लगाया जाना नामुमकिन है, सूक्ष्म है और केवल बुद्धिमान ही इसका अनुभव करते हैं।"
- "उन्होंने कहा कि वो आयाम जहां न तो पृथ्वी है, न जल, न ही अग्नि और न ही हवा है, न अंतरिक्ष की अनन्तता के आयाम और न ही चेतना की अनन्तता के आयाम और न ही शून्यता के आयाम और न ही धारणा और न ही धारणा नहीं होने से जुड़े आयाम; न तो इस दुनिया में, न ही अगली दुनिया में, न ही सूरज और न ही चांद. और वहां, मैं कहता हूँ, न तो कोई आ रहा है और न ही कोई जा रहा है, न ही तंद्रा; न तो दूर जाना और न ही उत्पन्न होना, जो निरुद्देश्य हो, जिसकी कोई नींव न हो और न ही उसको कोई सहारा हो [किसी मानसिक वस्तु का]. यही तनाव का अंत है।"
- गौतम बुद्ध की सांसारिक मृत्यु के ठीक बाद कहा गया, जब उनका मन (चित्त) =parinirvāṇa=मोक्ष का सार है:
- [डीएन (DN) 2.157] "ना अब जीवन यापन के लिए सांस लेने की आवश्यकता है न बाहर छोड़ने की, यानी अब वही हैं (गौतम) जो मन (चित्त) से दृढ़ हैं, उस महान साधु ने सभी इच्छाओं पर विजय प्राप्त कर ली है और सबको पीछे छोड़ दिया है। मन (चित्त) के सभी सीमाओं से परे हो जाने के बाद अब उन्हें कोई संवेदना नहीं होती; आलौकिक और बंधनों से मुक्त (निब्बाण), उनका मन (चित्त) निश्चय ही (अहु) मुक्त है।"
- सुत्त निपात, tr. रून जोहानसन:
- accī yathā vātavegena khitto
atthaṁ paleti na upeti sankhaṁ
evaṁ muni nāmakāyā kimutto
atthaṁ paleti na upeti sankhaṁ - atthan gatassa na pamāṇam atthi
ynea naṁ vajju taṁ tassan atthi
sabbesu dhammesu samūhatesu
samūhatā vādapathāpi sabbe - जिस तरह तेज हवा का झोंका लौ को बुझा देता है और फिर लौ इस प्रकार शांत पड़ जाती है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता, इसी तरह साधु भी नाम और शरीर के बंधन से मुक्त हो जाता है और ऐसी आराम की स्थिति को प्राप्त करता है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता.
वो जो विश्राम के लिए चले गए हैं, ऐसा कोई पैमाना नहीं है जिससे उनका वर्णन किया जा सके, वो इन सब से परे हैं। जब सब (धर्म) चले गए हैं, तो पहचान के सभी लक्षण भी चले गए हैं।[56]
- accī yathā vātavegena khitto
- आदरणीय सरीपुत्त:
- लालच, घृणा और भ्रम का नाश ही निर्वाण है।
जैन धर्म में निर्वाण
जैन धर्म |
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जैन धर्म प्रवेशद्वार |
जैन धर्म में इसका अर्थ है कर्म के आखिरी बंधन खोल देना. जब एक प्रबुद्ध मानव जैसे कि एक अरिहंत (जिन्होंने ४ प्रकार के घातीय कर्मों को नष्ट किया है) या तीर्थंकर अपने शेष अघातीय कर्मों को नष्ट कर देते हैं इस तरह अपने सांसारिक अस्तित्व को समाप्त करते हैं, तब इस अवस्था को निर्वाण कहा जाता है। तकनीकी तौर पर, एक अरिहंत के शरीर को त्याग देने को अथवा उनके शरीर की मृत्यु को निर्वाण कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने संसार में अपने अस्तित्व को समाप्त करके मुक्ति को पा लिया है। मोक्ष यानी, मुक्ति के बाद निर्वाण की प्राप्ति होती है। निर्वाण की प्राप्ति के बाद एक अरिहंत सिद्ध बन जाते हैं, एक मुक्त व्यक्ति.
जैन धर्म में निर्वाण का अर्थ है:
- एक अरिहंत अथवा एक साधारण जीव के सांसारिक अस्तित्व की समाप्ति जो बाद में मुक्त हो जाता है और
- मोक्ष (जैन धर्म)
तीर्थंकर के निर्वाण का जैन ग्रंथों में वर्णन
जैन धर्म को मानने वाले दीवाली को २४वें तीर्थंकर महावीर भगवान के निर्वाण कल्याणक दिवस के रूप में मनाते हैं। निर्वाण दिवस को जैनागम में 'निर्वाण कल्याणक दिवस के रूप में वर्णित किया गया है।
श्वेताम्बर मान्यता अनुसार कल्पसूत्र में भगवान महावीर के निर्वाण पर विस्तृत जानकारी है।[57]
मोक्ष के रूप में निर्वाण
श्वेताम्बर मान्यता अनुसार उत्तरध्यान सूत्र में बताया गया है कि किस तरह गणधर गौतमस्वामी ने केसी गणधर को, जो भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य थे, निर्वाण का अर्थ समझाया.[58]
इन्हें भी देखें
टिप्पणी
- ↑ रिचर्ड गोमब्रिच, थेरवाद बुद्धिज्म: अ सोशल हिस्ट्री फ्रॉम एनशिएंट बनारस टू मॉ़डर्न कोलंबो (Theravada Buddhism: A Social History from Ancient Benares to Modern Colombo). राउटलेज और कीगन पॉल, 1988, पृष्ठ 63: "निब्बाण का अर्थ है 'उड़ा देना.' जिसे उड़ा दिया जाना चाहिए वो है लालच, घृणा और भ्रम की तीन गुनी अग्नि. "
- ↑ पीटर हार्वे, कॉन्शियसनेस मिस्टिसिज्म इन द डिस्कोर्स ऑफ द बुद्ध (Consciousness mysticism in the discourses of the Buddha). कैरेल वर्नर की, द योगी एंड द मिस्टिक; स्टडीज इन इंडियन एंड कंपेयरेटिव मिस्टिसिज्म (The Yogi and the Mystic; Studies in Indian and Comparative Mysticism)."राउटलेज, 1995, पेज 82; books.google.com Archived 2014-06-27 at the वेबैक मशीन
- ↑ गींतर, द प्रॉब्लम ऑफ द सोल इन अर्ली बुद्धिज्म, कर्ट वेलर वेरलग, कॉन्सटांज, 1949, pp. 156-157.
- ↑ स्टीवन कॉलिन्स, सेल्फलेस पर्सन्स: इमेजरी एंड थॉट इन थेरवाद बुद्धिज्म (Selfless Persons: Imagery and Thought in Theravada Buddhism). कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1982, पृष्ठ 207.
- ↑ डेविड कलुपहाना, मुलामध्यमाकाकरिका ऑफ नागार्जुन (Mulamadhyamakakarika of Nagarjuna). मोतीलाल बनारसीदास, 2006, पृष्ठ 41.
- ↑ पीटर हार्वे, "द सेल्फलेस माइंड" ("The Selfless Mind"). कर्जन प्रेस 1995, पृष्ठ 87.
- ↑ काशीनाथ उपाध्याय, अर्ली बुद्धिज्म एंड द भगवदगीता (Early Buddhism and the Bhagavadgita). मोतीलाल बनारसीदास पब्लिकेशंस, 1998, पृष्ठ 352.
- ↑ अ आ डान लुसथॉस, बुद्धिस्ट फिनॉमेनोलॉजी (Buddhist Phenomenology). राउटलेज, 2002, पृष्ठ 126 और नोट 7, पृष्ठ 154.
- ↑ यमक सुत्त, एसएन (SN) 22.85.
- ↑ अ आ थानीस्सरो भिक्खू की ब्रह्म-निमंतंतिका सुत्त पर टिप्पणी, Access to Insight: Readings in Theravada Buddhism. Archived 2010-02-02 at the वेबैक मशीन
- ↑ उदाहरण के लिए ध्यान सुत्त देखें, Access to Insight: Readings in Theravada Buddhism. Archived 2010-05-07 at the वेबैक मशीन
- ↑ पीटर हार्वे, कॉन्शियसनेस मिस्टिसिज्म इन द डिस्कोर्सेज ऑफ द बुद्ध (Consciousness Mysticism in the Discourses of the Buddha). कैरेल वर्नर में, ed., द योगी एंड द मिस्टिक (The Yogi and the Mystic). कर्जन प्रेस 1989, पृष्ठ 91.
- ↑ अ आ पीटर हार्वे, कॉन्शियसनेस मिस्टिसिज्म इन द डिस्कोर्सेज ऑफ द बुद्ध (Consciousness Mysticism in the Discourses of the Buddha). कैरेल वर्नर में, ed., द योगी एंड द मिस्टिक (The Yogi and the Mystic). कर्जन प्रेस 1989, पृष्ठ 93.
- ↑ अ आ इ थनीस्सरो भिक्खू, Access to Insight: Readings in Theravada Buddhism. Archived 2010-12-22 at the वेबैक मशीन
- ↑ पीटर हार्वे, कॉन्शियसनेस मिस्टिसिज्म इन द डिस्कोर्सेज ऑफ द बुद्ध (Consciousness mysticism in the discourses of the Buddha). कैरेल वर्नर में, द योगी एंड द मिस्टिक; स्टडीज इन इंडियन एंड कंपेयरेटिव मिस्टिसिज्म (The Yogi and the Mystic; Studies in Indian and Comparative Mysticism)."राउटलेज, 1995, पृष्ठ 82, [1] Archived 2014-06-27 at the वेबैक मशीन
- ↑ अजान पसन्नो और अजान अमारो (Ajahn Pasanno and Ajahn Amaro), द आयलैंड: एन एंथोलॉजी ऑफ द बुद्धाज टीचिंग्स ऑन निब्बाण (The Island: An Anthology of the Buddha’s Teachings on Nibbāna), पेज 131.[2] Archived 2010-05-23 at the वेबैक मशीन पर ऑनलाइन उपलब्ध.
- ↑ पीटर हार्वे, कॉन्शियसनेस मिस्टिसिज्म इन द डिस्कोर्सेज ऑफ द बुद्ध (Consciousness mysticism in the discourses of the Buddha).कैरेल वर्नर में, ed., द योगी एंड द मिस्टिक (The Yogi and the Mystic).कर्जन प्रेस 1989, पेज 87, 90.
- ↑ थनीस्सरो भिक्खू की ब्रह्म-निमंतंतिका सुत्त पर टिप्पणी, Access to Insight: Readings in Theravada Buddhism. Archived 2010-02-02 at the वेबैक मशीन
- ↑ थनीस्सरो भिक्खू, Access to Insight: Readings in Theravada Buddhism Archived 2010-12-22 at the वेबैक मशीन, Access to Insight: Readings in Theravada Buddhism Archived 2010-02-02 at the वेबैक मशीन.
- ↑ पीटर हार्वे, द सेल्फलेस माइंड (The Selfless Mind) भी देखें.
- ↑ अजान ब्रह्माली,[3] Archived 2009-08-06 at the वेबैक मशीन .
- ↑ रूपर्ट गेथिन हार्वे के कुछ तर्कों पर असहमति जताते हैं; [4] Archived 2010-06-16 at the वेबैक मशीन
- ↑ पीटर हार्वे, कॉन्शियसनेस मिस्टिसिज्म इन द डिस्कोर्सेज ऑफ द बुद्ध (Consciousness Mysticism in the Discourses of the Buddha). कैरेल वर्नर में, ed., द योगी एंड द मिस्टिक (The Yogi and the Mystic). कर्जन प्रेस 1989, पृष्ठ 88. पंक्ति है एमएन (MN) I, 127-128.
- ↑ काशीनाथ उपाध्याय, अर्ली बुद्धिज्म एंड द भगवदगीता (Early Buddhism and the Bhagavadgita) मोतीलाल बनारसीदास पब्लिकेशंस, 1998, पृष्ठ 354-356. [5] Archived 2014-06-27 at the वेबैक मशीन
- ↑ देखें, Access to Insight: Readings in Theravada Buddhism, DN 11 Archived 2010-12-22 at the वेबैक मशीन
- ↑ क्रिस्चियन लिंडनर, मास्टर ऑफ विस्डम (Master of Wisdom). धर्मा पब्लिशिंग, 1997, पृष्ठ 322. लिंडनर का कहना है कि नागार्जुन डीएन (DN) का सन्दर्भ देते हैं।
- ↑ पीटर हार्वे, कॉन्शियसनेस मिस्टिसिज्म इन द डिस्कोर्सेज ऑफ द बुद्ध (Consciousness Mysticism in the Discourses of the Buddha). कैरेल वर्नर में, ed., द योगी एंड द मिस्टिक (The Yogi and the Mystic). कर्जन प्रेस 1989, पृष्ठ 100.
- ↑ नीचे सन्दर्भित कई सुत्त में और बुद्धघोष ने भी कभी सीधे तौर पर निर्वाण का सन्दर्भ नहीं लिया बल्कि "शुद्धि के मार्ग" (पाली: विशुद्धिमग्ग) की बात की. विशुद्धिमग्ग, Ch. I, v. 5, बुद्धघोष ने कहा: "यहां, विशुद्धिकरण को निब्बाण समझना चाहिए, जिस पर कोई दाग नहीं होते और जो बेहद पवित्र होता है" (बुद्धघोष और Ñāṇamoli, 1999, p. 6).
- ↑ देखें Access to Insight: Readings in Theravada Buddhism, Buddharakkhita (1996a). Archived 2006-07-08 at the वेबैक मशीन परमता-मंजूषा (विशुद्धिमार्ग व्याख्या), vv. 9-10, में "केवल अंतरदृष्टि से ही" के विकल्प पर ये चेतावनी दी गई है:
- 'केवल अंतरदृष्टि से ही' शब्दों का अर्थ है सबको छोड़ना, पुण्य नहीं इत्यादि, लेकिन शांतचित्तता (यानी ध्यान), ... [जैसा परिलक्षित होता है] जोड़े में, शांतचित्तता और अंतरदृष्टि... 'केवल' शब्द असल में महज विशिष्टता के साथ ध्यान को छोड़ना है [ध्यान का समावेश]; क्योंकि ध्यान को दोनों श्रेणियों, अभिगम [या क्षणिक] और समावेश में देखा जाता है।... अगर इन पंक्तियों को उन लोगों के लिए एक सीख की तरह देखें जो अंतरदृष्टि का रास्ता अपनाते हैं तो इसका अर्थ ये नहीं है कि ध्यान है ही नहीं; क्योंकि बिना क्षणिक ध्यान के अंतरदृष्टि आ ही नहीं सकती। और फिर, अंतरदृष्टि को अस्थायित्व, पीड़ा और स्वयं नहीं [तिलक्खना देखें] के अभिप्राय में समझा जाना चाहिए; न कि केवल अस्थायित्व के परिप्रेक्ष्य में (बुद्धघोष & Ñāṇamoli, 1999, p. 750, n . 3).
- ↑ देखें, Access to Insight: Readings in Theravada Buddhism, Buddharakkhita (1996b). Archived 2010-04-29 at the वेबैक मशीन
- ↑ एसएन (SN) i.13 ने विशुद्धिमग्ग व्याख्या के आधार पर जो विकल्प सुझाया है। यह विशुद्धिमग्ग का पहला अनुच्छेद ही है जो कहता है:
- जब कोई बुद्धिमान व्यक्ति, जो पुण्य में अच्छी तरह मान्य हो,
- चेतना और समझ विकसित करता है,
- तब एक दूरदर्शी और उत्साही भिक्खू की तरह
- वह इस उलझन को सुलझाने में सफल होता है। बुद्धघोष और Ñāṇamoli 1999, p. 1) विशुद्धिमग्ग में, Ch. I, पद्य 2, बुद्धघोष टिप्पणी करते हैं है कि इस उलझन का अर्थ है "तृष्णा का जाल." पद्य 7 में, बुद्धघोष कहते हैं कि चेतना और समझ विकसित करने का मतलब है "एकाग्रता और अंतर्दृष्टि दोनों विकसित होना." बुद्धघोष और Ñāṇamoli 1999, pp. 1, 7)
- तब एक दूरदर्शी और उत्साही भिक्खू की तरह
- चेतना और समझ विकसित करता है,
- जब कोई बुद्धिमान व्यक्ति, जो पुण्य में अच्छी तरह मान्य हो,
- ↑ बुद्धघोष और Ñāṇamoli (1999), पृष्ठ. 7, एसएन (SN) i.53 को इस प्रकार अनुवाद करें:
- वह जो हमेशा पुण्य में लगा है,
- जिसमें समझ है और ध्यान में है,
- जो उत्साह से परिपूर्ण और परिश्रमी भी है,
- जो कठिन से कठिन बाढ़ से भी पार पा सकता है।
- जो उत्साह से परिपूर्ण और परिश्रमी भी है,
- जिसमें समझ है और ध्यान में है,
- वह जो हमेशा पुण्य में लगा है,
- ↑ देखें Thanissaro (2000). Archived 2010-04-25 at the वेबैक मशीन इस सूत्र की 290वीं पंक्ति को थनिस्सारो ने इस रूप में अनुवाद किया है:
- पवित्र आत्मा ने कहा: "ये शुद्धीकरण का सीधा पथ है, दु:ख और विलाप से उबरने का रास्ता है, कष्ट और व्यथा की समाप्ति का, सही पथ की प्राप्ति का और
- ↑ निकायों में मानसिक विकास का आमतौर पर अर्थ है ध्यान अवशोषण की प्राप्ति होना, हालांकि जैसा कि ऊपर "केवल अंतर्दृष्टि" के सन्दर्भ में कहा गया है; कुछ परिपेक्ष्य में इसे पूर्ण अवशोषण के बिना "शुरुआती" या "क्षणिक" ध्यान के लिए भी उपयोग किया जा सकता है।
- ↑ ताकपो ताशी नामग्याल, महामुद्रा शंभाला (Mahamudra Shambhala), बोस्टन और लंदन, 1986, p.219
- ↑ प्रोफेसर एटियन लमोटे, tr. सारा बोइन-वेब, सुरमगमसमाधिसूत्र (Suramgamasamadhisutra), कर्जन, लंदन, 1998, p.4
- ↑ विलियम एडवर्ड सूथिल, लुईस होडस, अ डिक्शनरी ऑफ चाइनीज बुद्धिस्ट टर्म्स (A Dictionary of Chinese Buddhist Terms), मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1997, p. 328
- ↑ अ आ पॉल विलियम्स, महायान बुद्धिज्म: द डॉक्ट्राइनल फाउंडेशंस (Mahāyāna Buddhism: The Doctrinal Foundations).टेलर और फ्रांसिस, 1989, पृष्ठ 100.
- ↑ पीटर हार्वे, द सेल्फलेस माइंड (The Selfless Mind). कर्जन प्रेस, 1995, पृष्ठ 53
- ↑ पॉल विलियम्स, महायान बुद्धिज़्म: द डॉक्ट्रिनल फाउंडेशन Mahāyāna Buddhism: The Doctrinal Foundations टेलर एंड फ्रांसिस, 1989, पृष्ठ 98, 99 पेज भी देखें
- ↑ पॉल विलियम्स, महायान बुद्धिज़्म: डॉक्ट्रिनल फाउंडेशन (Mahāyāna Buddhism: The Doctrinal Foundations) टेलर एंड फ्रांसिस, 1989, पृष्ठ 100. "... बुद्ध को "स्व" शब्द का प्रयोग गैर बौद्ध साधुओं को जीतने के लिए करते दिखाया गया है।"
- ↑ अ आ योरू वैंग, लिंग्विस्टिक स्ट्रैटेजीज़ इन दाओइस्ट जुआंगजी एंड चान बुद्धिज़्म: द अदर वे ऑफ स्पीकिंग (Linguistic Strategies in Daoist Zhuangzi and Chan Buddhism: The Other Way of Speaking) Routledge, 2003, पृष्ठ 58.
- ↑ कोशो यममोतो, 3 खंड, वॉल्यूम-3, पृष्ठ 660, महायान महापरिनिर्वाण सूत्र, करिंबुंको, उबे सिटी, जापान, 1975
- ↑ डॉ॰ कोशो यममोतो, महायानिज़्म: ए क्रिटिकल एक्सपोजिशन ऑफ द महायान महापरिनिर्वाण सूत्र (Mahayanism: A Critical Exposition of the Mahayana Mahaparinirvana Sutra) करिबुंको, उबे सिटी, जापान, 1975, पप. 141, 142
- ↑ सैली बी किंग, द ड्रॉक्ट्राइन ऑफ बुद्ध-नेचर इज़ इंपेकैबिली बुद्धिस्ट. (Sallie B. King, The Doctrine of Buddha-Nature is impeccably Buddhist)[6] Archived 2007-09-27 at the वेबैक मशीन पृष्ठ 1-6.
- ↑ यममोतो, महायानिज़्म (Mahayanism) पृष्ठ- 165
- ↑ यममोतो, महायानिज़्म (Mahayanism) ibid
- ↑ हेंग-चिंग शी, "The Significance Of 'Tathagatagarbha' -- A Positive Expression Of 'Sunyata.'" Archived 2007-10-23 at the वेबैक मशीन ज़ेन (ZEN) कंप्यूटर सिस्टम्स पर
- ↑ डॉ॰ जेमी हबर्ड, एब्सोल्यूट डेल्यूजन, परफेक्ट बुद्धहुड (Absolute Delusion, Perfect Buddhahood), यूनिवर्सिटी ऑफ हवाई प्रेस, होनोलूलू, 2001, pp. 99-100
- ↑ डॉ॰ जेमी हबर्ड, op. cit., pp. 120-121
- ↑ पॉल विलियम्स, महायान बुद्धिज़्म: द डॉक्ट्राइनल फाउंडेशंस (Mahāyāna Buddhism: The Doctrinal Foundations). टेलर और फ्रांसिस, 1989, पृष्ठ 99. "यहां बुद्ध-प्रकृति वास्तव में स्व नहीं है, पर बोलने के तरीके में यह स्व हो सकता है।"
- ↑ हेंग-चिंग शी, "The Significance Of 'Tathagatagarbha', A Positive Expression Of 'Sunyata'". Archived 2007-10-23 at the वेबैक मशीन, ज़ेन (ZEN) कंप्यूटर सिस्टम्स पर
- ↑ मसाओ आबे की अ स्टडी ऑफ डॉजन: हिस फिलोसॉफी एंड रिलिजन (A Study of Dogen: His Philosophy and Religion), संपादन - स्टीवन हिएन, सुनी (SUNY) अल्बानी, 1992, p. 57
- ↑ मसाओ आबे की अ स्टडी ऑफ डॉजन: हिस फिलोसॉफी एंड रिलिजन (A Study of Dogen: His Philosophy and Religion), संपादन - स्टीवन हिएन, सुनी (SUNY), अल्बानी, 1992, p. 42
- ↑ मसाओ आबे की अ स्टडी ऑफ डॉजन: हिस फिलोसॉफी एंड रिलिजन (A Study of Dogen: His Philosophy and Religion), संपादन - स्टीवन हिएन, सुनी (SUNY), अल्बानी, 1992, p. 54
- ↑ बुद्ध के बुझी हुई लौ के रूपक को वेद के सन्दर्भ में नहीं लिया जाना चाहिए जहां अग्नि अमर है, या फिर आधुनिक सन्दर्भ में भी नहीं, जहां बुझी हुई अग्नि का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। इसके विपरीत वो एक ऐसी स्थिति का वर्णन करते हैं जो होने और नहीं होने से जुड़े सभी प्रश्नों से परे है। देखें Access to Insight: Readings in Theravada Buddhism. Archived 2010-01-19 at the वेबैक मशीन
- ↑ Jacobi, Hermann; Ed. F. Max Müller (1884). Kalpa Sutra, Jain Sutras Part I, Sacred Books of the East, Vol. 22. Oxford: The Clarendon Press. मूल से 7 जुलाई 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 जून 2010.
- ↑ Jacobi, Hermann; Ed. F. Max Müller (1895). Uttaradhyayana Sutra, Jain Sutras Part II, Sacred Books of the East, Vol. 45. Oxford: The Clarendon Press. मूल से 4 जुलाई 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 जून 2010.
^ कावामूरा (Kawamura), बौद्ध धर्म में बोधिसत्व सिद्धांत, विलफ्रिड लॉरियर यूनिवर्सिटी प्रेस, 1981, pp. 11.
बाहरी कड़ियाँ
- Access to Insight: Readings in Theravada Buddhism, Nibbana - निब्बाण को परिभाषित करते पाली त्रिपिताका के और अंश
- English translation of the Mahayana Mahaparinirvana Sutra
- Encyclopaedia Britannica, Nirvana
- Bhikkhu Thanissaro: The mind like fire unbound - An Image of Nirvana in the Early Buddhist Discourses
- Nirvana as what the Buddha taught
- Dhamma talk on Nibbana