नारीवाद
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नारीवाद, समाजिक और राजनैतिक आन्दोलनों तथा विचारधाराओं की एक श्रेणी है, जो राजनीतिक, आर्थिक, व्यक्तिगत एवं सामाजिक रूप से लैंगिक समानता को परिभाषित करने, स्थापित करने और प्राप्त करने के एक लक्ष्य को साझा करते हैं।[1] नारीवाद की यह धारणा है कि समाज, पुरूष-दृष्टिकोण को प्राथमिकता देता है और इन पितृसत्तात्मक समाजों में महिलाओं के साथ भेदभाव और अन्याय होता है।[2] इसका लक्ष्य महिलाओं के लिए पुरुषों के समान शैक्षिक, वृत्तिक और पारस्परिक अवसर और परिणाम स्थापित करना शामिल है जो पुरुषों के समान हो।
नारीवादी सिद्धांतों का उद्देश्य लैंगिक असमानता की प्रकृति एवं कारणों को समझना तथा इसके फलस्वरूप पैदा होने वाले लैंगिक भेदभाव की राजनीति और शक्ति संतुलन के सिद्धांतों पर इसके असर की व्याख्या करना है। स्त्री विमर्श संबंधी राजनैतिक प्रचारों का ज़ोर, प्रजनन संबंधी अधिकार, घरेलू हिंसा, मातृत्व अवकाश, समान वेतन संबंधी अधिकार, यौन उत्पीड़न, भेदभाव एवं यौन हिंसा पर रहता है।
स्त्रीवादी विमर्श संबंधी आदर्श का मूल कथ्य यही रहता है कि कानूनी अधिकारों का आधार लिंग न बने।
आधुनिक स्त्रीवादी विमर्श की मुख्य आलोचना हमेशा से यही रही है कि इसके सिद्धांत एवं दर्शन मुख्य रूप से पश्चिमी मूल्यों एवं दर्शन पर आधारित रहे हैं। हालाँकि ज़मीनी स्तर पर स्त्रीवादी विमर्श हर देश एवं भौगोलिक सीमाओं मे अपने स्तर पर सक्रिय रहती हैं और हर क्षेत्र के स्त्रीवादी विमर्श की अपनी खास समस्याएँ होती हैं।
सिद्धान्त
नारीवादी सिद्धांत, सैद्धांतिक या दार्शनिक क्षेत्रों में नारीवाद का विस्तार है[3]। इसमें नृविज्ञान, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, महिला अध्ययन, साहित्यिक आलोचना,,[4][5] कला इतिहास, मनोविश्लेषण और दर्शन जैसे कई अंतर्गत विषय शामिल है। नारीवादी सिद्धांत का लक्ष्य लैंगिक असमानता को समझना है और लैंगिक राजनीति, शक्ति संबंधों और लैंगिकता पर ध्यान केंद्रित करना है। इन सामाजिक और राजनीतिक संबंधों की आलोचना करते हुए, नारीवादी सिद्धांत का ज्यादातर हिस्सा महिलाओं के अधिकारों और हितों को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। नारीवादी सिद्धांत में खोजे गए विषयों में भेदभाव, रूढ़िवादिता, वस्तुनिष्ठता (विशेष रूप से यौन वस्तुकरण), उत्पीड़न और पितृसत्ता शामिल हैं। साहित्यिक आलोचना के क्षेत्र में, ऐलेन शोलेटर ने तीन चरणों वाले नारीवादी सिद्धांत के विकास का वर्णन किया है। पहले वह "नारीवादी आलोचना" कहती है, जिसमें नारीवादी पाठक साहित्यिक घटनाओं के पीछे की विचारधाराओं की जांच करती है। दूसरे को शॉल्डर "गाइनोक्रिटिसिज्म" कहती है, जिसमें "महिला पाठात्मक अर्थ की निर्माता है"। आखिरी चरण को वे "लिंग सिद्धांत" कहती है, जिसमें "वैचारिक शिलालेख और यौन/लिंग प्रणाली के साहित्यिक प्रभाव का पता लगाया जाता है"।[6]
यह 1970 के दशक में फ्रांसीसी नारीवादियों द्वारा लिखा गया था, जिन्होंने क्रीचर फेमिनाइन (जो 'महिला या स्त्री लेखन' के रूप में अनुवादित है) की अवधारणा विकसित की थी। हेलेन सिक्सस का तर्क है कि लेखन और दर्शन एक दूसरे के साथ-साथ फुलेउरेंथ्रिक हैं और अन्य फ्रांसीसी नारीवादियों जैसे लुस इरिगेराय ने "शरीर से लेखन" को एक विध्वंसक अभ्यास के रूप में महत्व दिया है। एक नारीवादी मनोविश्लेषक और दार्शनिक, और ब्राचा एटिंगर, कलाकार और मनोविश्लेषक, जूलिया क्रिस्टेवा के काम ने विशेष रूप से नारीवादी सिद्धांत को प्रभावित किया है और विशेष रूप से नारीवादी साहित्यिक आलोचना। हालांकि, जैसा कि विद्वान एलिजाबेथ राइट बताते हैं, "इनमें से कोई भी फ्रांसीसी नारीवादी खुद को नारीवादी आंदोलन के साथ संरेखित नहीं करती है जैसा कि अंग्रेजीभाषी दुनिया में दिखाई दिया था"। अधिकतर हालिया नारीवादी सिद्धांत, जैसे कि लिसा ल्यूसिल ओवेन्स[7] द्वारा नारीवाद को सार्वभौमिक मुक्ति आंदोलन के रूप में चित्रित करने पर ध्यान केंद्रित किया है।
नारीवादी आन्दोलन और विचारधाराऐं
कई अतिव्यापी नारीवादी आंदोलनों और विचारधाराओं ने वर्षों में विकसित हुये है।
राजनैतिक आन्दोलन
नारीवाद की कुछ शाखाएँ बृहद समाज के राजनीतिक झुकाव को बारीकी से नजर रखती हैं, जैसे उदारवाद और रूढ़िवाद, या पर्यावरण पर ध्यान केंद्रण। उदारवादी नारीवाद, समाज की संरचना को बदले बिना राजनीतिक और कानूनी सुधार के माध्यम से पुरुषों और महिलाओं की व्यक्तिवादी समानता की तलाश करता है। (कैथरीन रोटेनबर्ग) ने तर्क दिया है कि उदारवदी नारीवाद में नवउदारवादी चोले द्वारा नारीवाद के उस स्वरूप को सामूहिकता के बजाय व्यक्तिगत रूप से अलग-अलग किया जा रहा है और सामाजिक असमानता से अलग हो रहे है। इसके कारण वह तर्क देती है कि उदारवादी नारीवाद पुरुष प्रभुत्व, शक्ति या विशेषाधिकार की संरचनाओं के किसी भी निरंतर विश्लेषण की पेशकश नहीं कर सकता है।
भौतिकवादी विचारधारा
रोज़मेरी हेनेसी और क्रिस इंग्राहम का कहना है कि नारीवाद का भौतिकवादी रूप पश्चिमी मार्क्सवादी विचार से विकसित हुआ हैं, और कई अलग-अलग (लेकिन अतिव्यापी) आंदोलनों के लिए प्रेरित किया है, जो सभी पूंजीवाद की आलोचना में शामिल हैं और महिलाओं के लिए विचारधारा के संबंधों पर केंद्रित हैं। मार्क्सवादी नारीवाद का तर्क है कि पूंजीवाद महिलाओं के उत्पीड़न का मूल कारण है, और घरेलू जीवन और रोजगार में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव पूंजीवादी विचारधाराओं का एक परिणाम है।
अफ्रीकी-मूल की और उत्तर-औपनिवेशिक विचारधाराएँ
सारा अहमद का तर्क है कि अफ्रीकी मूल का और उत्तर-औपनिवेशिक नारीवाद "पश्चिमी नारीवादी विचार के कुछ आयोजन परिसरों" के लिये एक चुनौती पेश करती है। अपने अधिकांश इतिहास के दौरान, पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका की मध्यम वर्ग की श्वेत महिलाओं द्वारा नारीवादी आंदोलनों और सैद्धांतिक विकास का नेतृत्व किया गया था। हालाँकि अन्य जातियों की महिलाओं ने वैकल्पिक नारीवाद का प्रस्ताव रखा है। 1960 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका में नागरिक अधिकारों के आंदोलन और अफ्रीका, कैरिबियन, लैटिन अमेरिका के कुछ हिस्सों और दक्षिण पूर्व एशिया में यूरोपीय उपनिवेशवाद के पतन के साथ इस प्रवृत्ति में तेजी आई। उस समय से, विकासशील देशों और पूर्व उपनिवेशों में रहने वाली महिलाएं, जो रंग या विभिन्न जातीयता की हैं या गरीबी में रह रही हैं, ने अतिरिक्त नारीवाद का प्रस्ताव दिया है।
सामाजिक निर्माणवादी विचारधाराएँ
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में विभिन्न नारीवादियों ने तर्क दिया कि लिंग की भूमिका सामाजिक रूप से निर्मित है, और यह कि संस्कृतियों और इतिहासों में महिलाओं के अनुभवों को सामान्य बताना असंभव है। उत्तर-संरचनात्मक नारीवाद, उत्तर-संरचनावाद और विखंडन के दर्शन पर बहस करने के लिए यह तर्क देता है कि लिंग की अवधारणा सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से प्रवचन के माध्यम से बनाई गई है। उत्तर आधुनिक नारीवादियों ने लिंग के सामाजिक निर्माण और वास्तविकता की विवेकी प्रकृति पर भी जोर दिया।
ट्रान्सजेंडर लोग
ट्रांसजेंडर लोगों पर नारीवादी विचार भिन्न हैं। कुछ नारीवादी ट्रांस महिलाओं को महिलाओं के रूप में नहीं देखते हैं, उनका मानना है कि जन्म के समय उनके लिंग के कारण उन्हें अभी भी पुरुष विशेषाधिकार प्राप्त है। इसके अतिरिक्त, कुछ नारीवादी "ट्रांसजेंडरवाद" को विचारों के कारण अस्वीकार करते हैं कि लिंग के बीच सभी व्यवहारिक मतभेद समाजीकरण का परिणाम हैं। इसके विपरीत, कई नारीवादियों और ट्रांसनारीवादियों का मानना है कि लिंग परिवर्तित महिलाओं की मुक्ति नारीवादी लक्ष्यों का एक आवश्यक हिस्सा है। नारीवाद की तीसरी लहर, ट्रान्स अधिकारों का अधिक समर्थन करते हैं। ट्रांसनारीवाद में एक प्रमुख अवधारणा ट्रांसस्रीद्वेष की है, जहाँ लिंग परिवर्तित महिलाओं या स्त्रीलिंग लिंग गैर अनुरूपता के प्रति तर्कहीन डर, घृणा, या भेदभाव किया जाता है।
सांस्कृतिक आन्दोलन
स्त्री विमर्श के विभिन्न रूप
नारीवाद के छोटे पहलू
- साँस्कृतिक नारीवाद
- पर्यावरणीय नारीवाद
- समतामूलक नारीवाद
- समलैंगिक नारीवाद
- उदारवादी नारीवाद
- वैय्क्तिक नारीवाद
- मार्कसवादी नारीवाद अथवा समाजवादी नारीवाद
- भौतिक नारीवाद
- बहु-साँस्कृतिक नारीवाद
- विखंडनवादी नारीवाद
- आध्यात्मिक नारीवाद
प्रतिक्रियाएँ
लोगों के विभिन्न समूहों की नारीवाद को लेकर अपनी-अपनी प्रतिक्रिया है, और इसके समर्थकों और आलोचकों में दोनों पुरुष और महिलाएं शामिल हैं। अमेरिकी विश्वविद्यालय के छात्रों का, जिनमें दोनो लड़के और लड़कियाँ दोनो शामिल है, स्वंय को नारीवादी के रूप में बताने के बजाय नारीवादी विचारों को लेकर समर्थन करना अधिक सामान्य है।[8][9][10]
नारीवाद के समर्थक
प्रो-फेमिनिज़्म, उन नारीवाद के समर्थन को कहते है जोकि नारीवादी आंदोलन के सदस्य नहीं होते है। इस शब्द का उपयोग अक्सर उन पुरुषों के संदर्भ में किया जाता है जो नारीवाद का सक्रिय समर्थन करते हैं। नारी-समर्थक पुरुष समूहों की गतिविधियों में स्कूलों में लड़कों और युवा पुरुषों के साथ हिंसा रोकने जैसे कार्य, कार्यस्थलों में यौन उत्पीड़न कार्यशालाओं की पेशकश करना, सामुदायिक शिक्षा अभियान चलाना और हिंसा में लिप्त पुरुष अपराधियों की काउंसलिंग शामिल है। प्रो-फेमिनिस्ट पुरुष, पुरुषों के स्वास्थ्य सम्बंधित कार्यक्रम जैसे: पोर्नोग्राफी के खिलाफ सक्रियता, जिसमें पोर्नोग्राफी विरोधी कानून, पुरुषों का अध्ययन और स्कूलों में लिंग इक्विटी पाठ्यक्रम का विकास आदि में भी शामिल होते है। कभी-कभी नारीवादी और महिला संगठन साथ आकर, घरेलू हिंसा और बलात्कार संकट केंद्रों में सहयोग करते है।[11][12]
नारीवाद विरोधी और नारीवाद की आलोचना
धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद
नारीवाद एवं लोक कथाएं
नारीवाद एवं लोक कथाएं, महिलाओं के हक व समानता की बात करता है। जो नारी को पुरुष की भांति हक दिलाने व उनको बेहतर बनाने को प्रोत्साहित करता है। किंतु नारीवाद एवं लोक कथाएं कहीं ना कहीं कठपुतली की भांति कार्य करती है। नारी को कैसा होना चाहिए, कितनी समानता चाहिए और नारी को पुरुषों के समान अधिकार की बात कही जाती है।
लोक कथाएं भी नारी की चेतना को जगाने के लिए अन्य नारियों की कथाएं समाज में सुनाई जाती हैं। ताकि उन्हें भी उन सा बनने की प्रेरणा मिले, किंतु भविष्य की नारियों के अपने भी सपने हो सकते हैं। जो उन परिस्थितियों की महिलाओं से भिन्न हो। नारियों के साथ कठपुतली जैसा व्यवहार कब तक ! माता-पिता की परवरिश में समानता होने से ही कहीं ना कहीं ऐसी असमानता खत्म हो सकती है। इसकी शुरुआत अपने घर परिवार से किया जाना चाहिए।
इतिहास हमें गलतियां ना दोहराने और उनसे कुछ सीखने की शिक्षा देता है, न कि उसे जीने की शिक्षा देता है। महिलाओं को नारीवाद शब्द के द्वारा समाज में अधिकार दिलाने की बात रखी जा रही है तथा उनकी तुलना पुरुषों से भी की जा रही है। पुरुषों के समान उनकी अभिव्यक्ति कहां तक जायज है, इसलिए उन्हें स्वयं को समझने और आत्मनिर्भर बनने के लिए किसी खाके की नहीं खुले विचार की आवश्यकता है।
हमारा ध्यान यहां केंद्रित होना चाहिए की भोजन शिक्षा और नौकरी यह सभी मनुस्य की प्राथमिक आवश्यकताओं में निहित है। यदि हम इन्हीं में उलझे रहे तो समाज में नारी के सम्मान की चर्चा कब करेंगे? नारी को हमेशा पुरुषों के खाके में रखकर सम्मान और अधिकार क्यों दिलाना, जबकि दोनों प्राकृतिक रूप से सामान है। अब वक्त यह समझने का है कि स्त्री - पुरुष की अपनी प्रकृति हैं। ना की किसी एक से प्रकृति का सृजन होता है। समाज का सृजन नारी - पुरुष के सामान होने से हुआ। किसी एक के बिना समाज अधूरा है। इसलिए महिलाओं को महिला रहने दिया जाए तथा पुरुष के समान तुलनात्मक रूप ना दिया जाए। तब नारीवाद सशक्त होगा और लोककथाएं सदैव जीवंत व जाग्रत होंगी जो समाज को आगे बढ़ने में गति प्रदान करेगा।
महिला - पुरुष मनुष्य हैं और शारीरिक और मानसिक रूप से भिन्न तो उनकी तुलना करना ही क्यों है? यहां समानता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, एक महिला को महिला के रूप में किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है तथा समाज में उनका अपना क्या दायित्व है वह यह स्वयं चुन सकती हैं।
सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध कविता की कुछ पंक्तियां निम्न हैं:
- खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी
- इसमें एक स्त्री के शौर्य भाव को समाज में क्यों प्रस्तुत नहीं किया गया, ‘मर्दानी’ शब्द उच्च और ‘जनानी’ शब्द निम्न क्यों हो गया। तो हमें जरूरत है आज उन शब्दों के मस्तक से शौर्य का तिलक हटा सभी का करने को।
- खूब लड़ी जनानी वह तो झांसी वाली रानी थी
- वीर रस का भाव सिर्फ पुरुष का नहीं स्त्री का भी हो सकता है, नारियों की पुरुषों से तुलना बंद करना होगा। नारियों की भी अपनी प्रकृति और अपनी विशेषताएं हैं, जिसे वह जीवित रखना व निखारना चाहती हैं।
नारीवाद और लोक कथाएं तब सफल होंगी, जब वह नारी को उनके रूप विशेषता और शौर्य के यशगान को नारी के संदर्भ में तुलना रहित प्रस्तुत करने लगेगा। नारी स्वरूप स्वयं का है, ना कि किसी की परछाई का रूप है। इस भाव मात्रा से अन्य मुद्दे स्वयं ही समाप्त हो जाएंगे क्योंकि तब स्त्री को एक नारी ही नहीं मनुष्य का दर्जा मिल चुका होगा, जिसकी लड़ाई वो सदियों से लड़ती आ रही है।
समाज का लगभग आधा हिस्सा महिलाएं हैं। तो उन्हें मनुष्य का दर्जा मिलते ही आधी समस्या समाप्त हो जाएगी और नारी की स्वयं की चेतना जगाने वह समाज को उस चेतना को समझने मात्र से आधी समस्या समाप्त हो जाएगी।
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ "Feminism | Definition, History, Types, Waves, Examples, & Facts | Britannica". www.britannica.com (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2022-11-25.
- ↑ Gamble, Sarah (2001). "The Routledge Companion to Feminism and Postfeminism".
- ↑ "हिंदी आलेख- अस्मिता एवं अस्मितामूलक-विमर्श की अवधारणा एवं सिद्धांत". विश्वहिंदीजन चौपाल. अभिगमन तिथि 2023-02-20.
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- ↑ Howe, Mica; Aguiar, Sarah Appleton (2001). He said, she says: an RSVP to the male text. Madison, NJ: Fairleigh Dickinson University Press. पृ॰ 292. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-8386-3915-3.
- ↑ Showalter, Elaine (1979). "Towards a Feminist Poetics". प्रकाशित Jacobus, M. (संपा॰). Women Writing about Women. Croom Helm. पपृ॰ 25–36. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-85664-745-1.
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