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नामकरण संस्कार

Jahif का नाम उसकी पहचान के लिए नहीं रखा जाता। मनोविज्ञान एवं अक्षर-विज्ञान के जानकारों का मत है कि नाम का प्रभाव व्यक्ति के स्थूल-सूक्ष्म व्यक्तित्व पर गहराई से पड़ता रहता है। नाम सोच-समझकर तो रखा ही जाय, उसके साथ नाम रोशन करने वाले गुणों के विकास के प्रति जागरूक रहा जाय, यह जरूरी है। हिन्दू धर्म में नामकरण संस्कार में इस उद्देश्य का बोध कराने वाले श्रेष्ठ सूत्र समाहित रहते हैं।

संस्कार प्रयोजन

नामकरण शिशु जन्म के बाद पहला संस्कार कहा जा सकता है। यों तो जन्म के तुरन्त बाद ही जातकर्म संस्कार का विधान है, किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में वह व्यवहार में नहीं दीखता। अपनी पद्धति में उसके तत्त्व को भी नामकरण के साथ समाहित कर लिया गया है। इस संस्कार के माध्यम से शिशु रूप में अवतरित जीवात्मा को कल्याणकारी यज्ञीय वातावरण का लाभ पहँुचाने का सत्प्रयास किया जाता है। जीव के पूर्व संचित संस्कारों में जो हीन हों, उनसे मुक्त कराना, जो श्रेष्ठ हों, उनका आभार मानना-अभीष्ट होता है। नामकरण संस्कार के समय शिशु के अन्दर मौलिक कल्याणकारी प्रवृत्तियों, आकांक्षाओं के स्थापन, जागरण के सूत्रों पर विचार करते हुए उनके अनुरूप वातावरण बनाना चाहिए। शिशु कन्या है या पुत्र, इसके भेदभाव को स्थान नहीं देना चाहिए। भारतीय संस्कृति में कहीं भी इस प्रकार का भेद नहीं है। शीलवती कन्या को दस पुत्रों के बराबर कहा गया है। 'दश पुत्र-समा कन्या यस्य शीलवती सुता।' इसके विपरीत पुत्र भी कुल धर्म को नष्ट करने वाला हो सकता है। 'जिमि कपूत के ऊपजे कुल सद्धर्म नसाहिं।' इसलिए पुत्र या कन्या जो भी हो, उसके भीतर के अवांछनीय संस्कारों का निवारण करके श्रेष्ठतम की दिशा में प्रवाह पैदा करने की दृष्टि से नामकरण संस्कार कराया जाना चाहिए। यह संस्कार कराते समय शिशु के अभिभावकों और उपस्थित व्यक्तियों के मन में शिशु को जन्म देने के अतिरिक्त उन्हें श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न बनाने के महत्त्व का बोध होता है। भाव भरे वातावरण में प्राप्त सूत्रों को क्रियान्वित करने का उत्साह जागता है। आमतौर से यह संस्कार जन्म के दसवें दिन किया जाता है। उस दिन जन्म सूतिका का निवारण-शुद्धिकरण भी किया जाता है। यह प्रसूति कार्य घर में ही हुआ हो, तो उस कक्ष को लीप-पोतकर, धोकर स्वच्छ करना चाहिए। शिशु तथा माता को भी स्नान कराके नये स्वच्छ वस्त्र पहनाये जाते हैं। उसी के साथ यज्ञ एवं संस्कार का क्रम वातावरण में दिव्यता घोलकर अभिष्ट उद्देश्य की पूर्ति करता है। यदि दसवें दिन किसी कारण नामकरण संस्कार न किया जा सके। तो अन्य किसी दिन, बाद में भी उसे सम्पन्न करा लेना चाहिए। घर पर, प्रज्ञा संस्थानों अथवा यज्ञ स्थलों पर भी यह संस्कार कराया जाना उचित है।

विशेष व्यवस्था

यज्ञ पूजन की सामान्य व्यवस्था के साथ ही नामकरण संस्कार के लिए विशेष रूप से इन व्यवस्थाओं पर ध्यान देना चाहिए।

  1. यदि दसवें दिन नामकरण घर में ही कराया जा रहा है, तो वहाँ सयम पर स्वच्छता का कार्य पूरा कर लिया जाए तथा शिशु एवं माता को समय पर संस्कार के लिए तैयार कराया जाए।
  2. अभिषेक के लिए कलश-पल्लव युक्त हो तथा कलश के कण्ठ में कलावा बाँध हो, रोली से ॐ, स्वस्तिक आदि शुभ चिह्न बने हों।
  3. शिशु की कमर में बाँधने के लिए मेखला सूती या रेशमी धागे की बनी होती है। न हो, तो कलावा के सूत्र की बना लेनी चाहिए।
  4. मधु प्राशन के लिए शहद तथा चटाने के लिए चाँदी की चम्मच। वह न हो, तो चाँदी की सलाई या अँगूठी अथवा स्टील की चम्मच आदि का प्रयोग किया जा सकता है।
  5. संस्कार के समय जहाँ माता शिशु को लेकर बैठे, वहीं वेदी के पास थोड़ा सा स्थान स्वच्छ करके, उस पर स्वस्तिक चिह्न बना दिया जाए। इसी स्थान पर बालक को भूमि स्पर्श कराया जाए।
  6. नाम घोषणा के लिए थाली, सुन्दर तख्ती आदि हो। उस पर निर्धारित नाम पहले से सुन्दर ढंग से लिखा रहे। चन्दन रोली से लिखकर, उस पर चावल तथा फूल की पंखुड़ियाँ चिपकाकर, साबूदाने हलके पकाकर, उनमें रंग मिलाकर, उन्हें अक्षरों के आकार में चिपकाकर, स्लेट या तख्ती पर रंग-बिरंगी खड़िया के रंगों से नाम लिखे जा सकते हैं। थाली, ट्रे या तख्ती को फूलों से सजाकर उस पर एक स्वच्छ वस्त्र ढककर रखा जाए। नाम घोषणा के समय उसका अनावरण किया जाए।
  7. विशेष आहुति के लिए खीर, मिष्टान्न या मेवा जिसे हवन सामग्री में मिलाकर आहुतियाँ दी जा सकें।
  8. शिशु को माँ की गोद में रहने दिया जाए। पति उसके बायीं ओर बैठे। यदि शिशु सो रहा हो या शान्त रहता है, तो माँ की गोद में प्रारम्भ से ही रहने दिया जाए। अन्यथा कोई अन्य उसे सम्भाले, केवल विशेष कर्मकाण्ड के समय उसे वहाँ लाया जाए। निर्धारित क्रम से मंगलाचरण, षट्कर्म, संकल्प, यज्ञोपवीत परिवर्तन, कलावा, तिलक एवं रक्षा-विधान तक का क्रम पूरा करके विशेष कर्मकाण्ड प्रारम्भ किया जाए।

अभिषेक

शिक्षण एवं प्रेरणा

बालक तो अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ मानव शरीर में आया है, इसलिए उसके मन पर पाशविक संस्कारों की छाया रहनी स्वाभाविक है। इसको हटाया जाना आवश्यक है। यदि पशु प्रवृत्ति बनी रही, तो मनुष्य शरीर की विशेषता ही क्या रही है। जिनके अन्तःकरण में मानवीय आदर्शो के प्रति निष्ठा, भावना है, उन्हीं को सच्चे अर्थों में मनुष्य कहा जा सकता है। इन्दि्रय-परायणता, स्वार्थपरता, निरुद्देश्यता, भविष्य के बारे में सोचना, असंयम जैसे दोषों को पशुवृत्ति कहते हैं। इसका जिनमें बाहुल्य हैं, वे नरपशु है। अपना नवजात शिशु नर-पशु नहीं रहना चाहिए, उसके चिर संचित कुसंस्कारों को दूर किया ही जाना चाहिए। इस परिशोधन के लिए संस्कार मण्डप में प्रवेश करते ही सर्वप्रथम बालक का अभिषेक किया जाता है।

क्रिया और भावना

सिंचन के लिए तैयार कलश में मुख्य कलश का थोड़ा-सा जल या गंगाजल मिलाएँ। मन्त्र के साथ बालक का संस्कार कराने वालों तथा उपकरणों पर सिंचन किया जाए। भावना करें कि जो जीवात्मा शिशु के रूप में ईश्वर प्रदत्त सुअवसर का लाभ लेने अवतरित हुई है, उसका अभिनन्दन किया जा रहा है। ईश्वरीय योजना के अनुरूप शिशु में उत्तरदायित्वों के निर्वाह की क्षमता पैदा करने के लिए श्रेष्ठ संस्कारों तथा सत् शक्तियों के स्रोत से, उस पर अनुदानों की वृष्टि हो रही है। उपस्थित सभी परिजन अपनी भावनात्मक संगति से उस प्रक्रिया को अधिक प्राणवान् बना रहे हैं।

  • ॐ आपो हिष्ठा मयोभुवः ता नऽऊर्जे दधातन, महे रणाय चक्षसे।
  • ॐ यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।
  • ॐ तस्माऽअरंगमामवो, यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जन यथा च नः॥ - ३६.१४-१६

मेखला बन्धन

शिक्षण और प्रेरणा

संस्कार के लिए तैयार मेखला शिशु की कमर में बाँधी जाती है। इसे कहीं-कहीं कौंधनी, करधनी, छूटा आदि भी कहा जाता है। यह कटिबद्ध रहने का प्रतीक है। फौजी जवान, पुलिस के सिपाही कमर में पेटी बाँधकर अपनी ड्यूटी पूरी करते हैं। शरीर सुविधा की दृष्टि से उसकी अनुपयोगिता भी हो सकती है; पर भावना की दृष्टि से कमर में बँधी हुई पेटी, चुस्ती, मुस्तैदी, निरालस्यता, स्फूर्ति, तैयारी एवं र्कत्तव्य-पालन के लिए तत्परता का प्रतिनिधित्व करती है। यह गुण मनुष्य का प्रारंभिक गुण है। यदि इसमें कमी रहे, तो उसे गयी-गुजरी, दीन-हीन स्थिति में पड़े रहकर अविकसित जीवन व्यतीत करना पड़ेगा। आलसी, प्रमादी व्यक्ति अपनी प्रतिभा एवं क्षमता को यों ही बर्बाद करते रहते हैं। ढीला-पोला स्वभाव आदमी को कहीं का नहीं रहने देता, उसके सब काम अधूरे और अस्त-व्यस्त रहते हैं, फलस्वरूप कोई आशाजनक सत्परिणाम भी नहीं मिल पाता। इस दोष को बीजांकुर बच्चे में जमने न पाए, इसकी सावधानी रखने के लिए जागरूकता एवं तत्परता का प्रतिनिधित्व करने के उद्देश्य से नामकरण संस्कार के अवसर पर कमर में मेखला बाँध दी जाती है। अभिभावक जब-जब इस मेखला को देखें, तब-तब यह स्मरण कर लिया करें कि बच्चे को आलस्य प्रमाद के दोष-र्दुगुण से बचाये रखने के लिए उन्हें प्राण-पण से प्रयतन करना है। जैसे-जैसे बच्चा समझदार होता चले, वैसे-वैसे उसके स्वभाव में मुस्तैदी, श्रमशीलता एवं काम में मनोयोगपूर्वक जुटने का गुण बढ़ाते चलना चाहिए। इस सम्बन्ध में जो हानि-लाभ हो सकते हैं, उन्हें भी समय-समय पर बताते-सिखाते, समझाते रहना चाहिए।

क्रिया और भावना

मन्त्र के साथ शिशु के पिता उसकी कमर में मेखला बाँधें। भावना करें कि इस संस्कारित सूत्र के साथ बालक में तत्परता, जागरूकता, संयमशीलता जैसी सत्प्रवृत्तियों की स्थापना की जा रही है।

ॐ इयं दुरुक्तं परिबाधमाना, वर्णं पवित्रं पुनतीमऽआगात्। प्राणापानाभ्यां बलमादधाना, स्वसादेवी सुभगा मेखलेयम्। -पार०गृ०सू० २.२.८

मधु प्राशन

शिक्षण और प्रेरणा

इसमें बालक को निर्धारित उपकरण से शहद चटाया जाता है। शहद चटाने में मधुर भाषण की शिक्षा का समावेश है। सज्जनता की पहचान किसी व्यक्ति की वाणी से ही होती है। शालीनता की परख मधुर, नम्र, प्रिय, शिष्टता से भरी हुई वाणी को सुनकर ही की जा सकती है। इसी गुण के आधार पर दूसरों का स्नेह, सद्भाव एवं सहयोग प्राप्त होता है। वशीकरण मन्त्र मधुर भाषण ही होता है। कोयल की प्रशंसा और कौए की निन्दा उनका रंग रूप एकसा होने पर वाणी सम्बन्धी अन्तर के कारण ही होती है। चाँदी-रजत सफेद, शुभ्र होती है। उसे पवित्रता -निर्विकारिता का प्रतीक माना जाता है। पवित्रता, निर्विकारिता के आधार पर वाणी में मधुरता हो, स्वार्थी-धूर्तों जैसी न हो, इसलिए चाँदी का प्रतीक प्रयुक्त होता है।

क्रिया और भावना

मन्त्रोच्चार के साथ थोड़ा-सा शहद निर्धारित उपकरण से बालक को चटाया जाए। घर के किसी बुजुर्ग या उपस्थित समुदाय में से किन्हीं चरित्र निष्ठ संभ्रान्त व्यक्ति द्वारा भी यह कार्य कराया जा सकता है। भावना की जाए कि सभी उपस्थित परिजनों के भाव संयोग से बालक की जिह्वा में शुभ, प्रिय, हितकरी, कल्याणप्रद वाणी के संस्कार स्थापित किये जा रहे हैं।

ॐ प्रते ददामि मधुनो घृतस्य, वेदं सवित्रा प्रसूतं मघोनाम्। आयुष्मान् गुप्तो देवताभिः, शतं जीव शरदो लोके अस्मिन्। - आश्व०गृ०सू० १.१५.१

सूर्य नमस्कार

शिक्षण एवं प्रेरणा

सूर्य गतिशीलता, तेजस्विता प्रकाश एवं ऊष्णता का प्रतीक है। उसकी किरणें इस संसार में जीवन संचार करती है। बालक में भी इन गुणों का विकास होना चाहिए। सूर्य निरन्तर चलता रहता है, उसे विश्राम का अवकाश नहीं, अपने र्कत्तव्य से एक क्षण के लिए भी विमुख नहीं होता। न बहुत जल्दबाजी, उतावली करता है और न थककर शिथिलता, उदासीनता, उपेक्षा बरतता है। जो र्कत्तव्य निर्धारित कर लिया, उस पर पूर्ण दृढ़ता एवं समस्वरता के साथ चलता रहता है। मनुष्य की क्रिया पद्धति भी यही होनी चाहिए। जो पक्ष चुन लिया, जो कार्यक्रम अपना लिया, उसमें न तो शिथिलता बरतनी चाहिए और न ही अधीर होकर उतावली, जल्दी करनी चाहिए। धैर्य, स्थिरता और दृढ़ निश्चय के साथ निरन्तर आगे चलते रहना है। सूर्यदर्शन के साथ बालक को यह प्रेरण दी जाती है कि उसे भावी जीवन में आलसी, ढीला-पोला या अनियमित नहीं बनना है। नियमितता, लगन, परिश्रम के द्वारा ही वह कुछ कर सकेगा, इसलिए सूर्य को वह देखे और उसकी रीति-नीति का अनुसरण करे। अभिभावक शिशु के मन-मस्तिष्क के पूर्ण विकास के लिए उत्तम प्रेरणाएँ एवं साधन प्रदान करते रहें।

क्रिया और भावना

यदि सूर्य को देखने की स्थिति हो, तो माता शिशु को बाहर ले जाकर सूर्य दर्शन कराए। सूर्य देव को नमस्कार करें। किसी कारण संस्कार के समय सूर्य दृश्यमान न हो, तो उनका ध्यान करके नमस्कार करें। भावना की जाए कि माँ अपने स्नेह के प्रभाव से बालक में तेजस्विता के प्रति आकर्षण पैदा कर रही है, बालक में तेजस्वी जीवन के प्रति सहज अनुराग पैदा हो रहा है। इसे सब मिलकर स्थिर रखेंगे, बढ़ाते रहेंगे।

ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शत, शृणुयाम शरदः शतं, प्र ब्रवाम शरदः शतमदीनाः, स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात्। -३६.२४

भूमि पूजन-स्पर्शन

शिक्षण और प्रेरणा

बालक को सूतक के दिनों में जमीन पर नहीं बिठाते। नामकरण के बाद उसे भूमि पर बिठाते हैं, इससे पूर्व धरती का पूजन किया जाता है। प्रथम बार उस सम्पूजित भूमि पर बालक को बिठाते हैं। भूमि को लीपकर चौक पूरते हैं और उसका अक्षत, पुष्प, गन्ध, धूप आदि से पूजन करते हैं। भूमि को केवल मिट्टी ही न मानकर उसे देवभूमि, जन्मभूमि, धरती माता, भारतमाता मानकर सदैव उसके प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति का परिचय देना चाहिए। विश्व-माता, प्राणि-माता, भारत-माता, धरती-माता का वही सम्मान होना चाहिए, जो शरीर को जन्म देने वाली माता का होता है। अपनी सगी माता की तरह मातृभूमि की सेवा के लिए भी मनुष्य के मन में भावनाएँ रहनी चाहिए। मातृभूमि, विश्व वसुधा की रक्षा औरर सेवा के लिए जिससे त्याग एवं प्रयतन बन सके, करना चाहिए। देशभक्ति से मतलब समाज सेवा से ही है। देशवासी, साथी और सहयोगियों की सुविधा के लिए कुछ कार्य करना चाहिए। अपना पेट पालने, अपनी ही उन्नति और सुविधा चाहने की प्रवृत्ति ओछे लोगों में पाई जाती है। श्रेष्ठ व्यक्ति अपनी आन्तरिक महानता के अनुरूप घर तक ही अपनी ममता सीमित नहीं रखते, वरन् उसे व्यापक बनाते हैं। सुदूरवर्ती व्यक्ति भी अपने ही बन्धुबान्धव प्रतीत होते हैं और 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की निष्ठा जम जाती है। ऐसे देशभक्त व्यक्ति समाज सेवा एवं लोकमंगल के कार्यों को अपने निजी लाभ एवं स्वार्थ से भी बढ़कर मानते हैं, इन्हीं की यशोगाथा इस संसार को सुरक्षित करती रहती है। भूमि स्पर्श करते हुए बालक को मातृभूमि की सेवा देशभक्ति की भावनाएँ जाग्रत् करने की शिक्षा दी जाती है। धरती माता की क्षमाशीलता प्रसिद्ध है। वह सबका भार अपने ऊपर उठाती है, अपनी छाती में अन्न, फल, रस, खनिज आदि विविध-विध पदार्थ उपजाकर प्राणियों का पालन करती है। लोग मल-मूत्र आदि से उसे गन्दा करते हैं, तो भी रुष्ट नहीं होती और वह सब सहन करती है। अपना अधिकांश भाग जल की शीतलता से भरे रहती है। विशाल सम्पदा की स्वामिनी होने पर इतराती नहीं, पुरुषार्थियों को उदारतापूर्वक अपनी सम्पत्ति का उपहार देती है। अपनी सभी सन्तानों को गोदी में लेकर अपनी निश्चित रीति-नीति के अनुसार गतिशील रहती है। भीतरी अग्नि को भीतर ही छिपी रहने देती है और बाहर से ठण्डी ही रहती है। भूमि में से पौधे आहार खींचते और बढ़ते हैं, परन्तु माली उनकी बाढ़ को सही दिशा देने के लिए उनकी साज-सँभाल के साथ-साथ काट-छाँट भी करता है। मातृभूमि के अनुदानों से बालक के विकास में भी माली जैसी सावधानी अभिभावकों को बरतनी चाहिए।

क्रिया और भावना

शिशु के माता-पिता हाथ में रोली, अक्षत, पुष्प आदि लेकर मन्त्र के साथ भूमि का पूजन करें। भावना की जाए कि धरती माता से इस क्षेत्र में बालक के हित के लिए श्रेष्ठ संस्कारों को घनीभूत करने की प्रार्थना की जा रही है। अपने आवाहन-पूजन से उस पुण्य-प्रक्रिया को गति दी जा रही है। मन्त्र पूरा होने पर पूजन सामग्री पर चढ़ाई जाए।

ॐ मही द्यौः पृथिवी च न ऽ, इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतां नो भरीमभिः। ॐ पृथिव्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि, ध्यायामि।

स्पर्श क्रिया और भावना

माता बालक को मन्त्रोच्चार के साथ उस पूजित भूमि पर लिटा दे। सभी लोग हाथ जोड़कर भावना करें कि जैसे माँ अपनी गोद में बालक को अपने स्नेह-पुलकन के साथ जाने-अनजाने में श्रेष्ठ प्रवृत्ति और गहरा सन्तोष देती रहती है, वैसे ही माता वसुन्धरा इस बालक को अपना लाल मानकर गोद में लेकर धन्य बना रही है।

ॐ स्योना पृथिवी नो, भवानृक्षरा निवेशनी। यच्छा नः शर्म सप्रथाः। अप नः शोशुचदघम्। - ३५.२१

नाम घोषणा

शिक्षण एवं प्रेरणा

यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य को जिस तरह के नाम से पुकारा जाता है, उसे उसी प्रकार की छोटी सी अनुभूति होती रहती है। यदि किसी को कूड़ेमल, घूरेमल, नकछिद्दा, नत्थो, घसीटा आदि नामों से पुकारा जायेगा, तो उसमें हीनता के भाव ही जायेंगे। नाम सार्थक बनाने की कई हलकी, अभिलाषाएँ मन में जगती रहती है। पुकारने वाले भी किसी के नाम के अनुरूप उसके व्यक्तित्व की हल्की या भारी कल्पना करते हैं। इसलिए नाम का अपना महत्त्व है। उसे सुन्दर ही चुना और रखा जाए। बालक का नाम रखते समय निम्न बातों का ध्यान रखें।

  1. गुणवाचक नाम रखे जाएँ, जैसे- सुन्दरलाल, सत्यप्रकाश, धर्मवीर, मृत्युंजय, विजयकुमार, तेजसिंह, शूरसिंह, विद्याभूषण, ज्ञानप्रकाश, विद्याराम आदि। इसी प्रकार बालिकाओं के नाम-दया, क्षमा, प्रभा, करुणा, प्रेमवती, सुशीला, माया, शान्ति, सत्यवती, प्रतिभा, विद्या आदि।
  2. महापुरुषों एवं देवताओं के नाम भी बच्चों के नाम रखे जा सकते हैं। जैसे-रामअवतार, कृष्णचन्द्र, शिवकुमार, गणेश, सवितानन्दन, विष्णुप्रसाद, लक्ष्मण, भरत, याज्ञवल्क्य, पाराशर, सुभाष, रवीन्द्र, बुद्ध, महावीर, हरिश्चन्द्र, दधीच्ा आदि। लड़कियों के नाम- कौशल्या, सुमित्रा, देवकी, पार्वती, दमयन्ती, पद्मावती, लक्ष्मी, कमला, सरस्वती, सावित्री, गायत्री, मदालसा, सीता, उर्मिला, अनसूया आदि।
  3. प्राकृतिक विभूतियों के नाम पर भी बच्चों के नाम रखे जा सकते हैं। जैसे- रजनीकान्त, अरुणकुमार, रतनाकर, हिमाचल, घनश्याम, वसन्त, हेमन्त, कमल, गुलाब, चन्दन, पराग आदि। लड़कियों के नाम-उषा, रजनी, सरिता, मधु, गंगा, यमुना, त्रिवेणी, वसुन्धरा, सुषमा आदि। लड़की और लड़कों के नामों की एक बड़ी लिस्ट बनाई जा सकती है। उसी में से छाँटकर लड़के और लड़कियों के उत्साहवर्धक, सौम्य एवं प्रेरणाप्रद नाम रखने चाहिए। समय-समय पर बालकों को यह बोध भी कराते रहना चाहिए कि उनका यह नाम है, इसलिए गुण भी अपने में वैसे ही पैदा करने चाहिए।

क्रिया और भावन

‍मन्त्रोच्चार के साथ नाम से सज्जित थाली या तख्ती पर से वस्त्र हटाया जाए। सबको दिखाया जाए। यह कार्य आचार्य या कोई सम्माननीय व्यक्ति करें। भावना की जाए कि यह घोषित नाम ऐसे व्यक्तित्व का प्रतीक बनेगा, जो सबका गौरव बढ़ाने वाला होगा। ॐ मेधां ते देवः सविता, मेधां देवी सरस्वती। मेधां ते अश्विनौ देवौ, आधत्तां पुष्करस्रजौ॥ -आश्व०गृ० १.१५.२ मन्त्र पूरा होने पर सबको नाम दिखाएँ और तीन नारे लगवाएँ (प्रमुख कहें)(सब कहें) १. शिशु .............चिरंजीवी हो। (तीन बार कहें।) ‍२. शिशु .............धर्मशील हो। (तीन बार कहें।) ३. शिशु .............प्रगतिशील हो। (तीन बार कहें)

परस्पर परिवर्तन

शिक्षण और प्रेरण

‍माता अपने रक्त-मांस से उदरस्थ बालक के शरीर का निर्माण करती है। अपना श्वेत रक्त-दूध पिलाकर उसका पालन करती है, इसलिए इस उत्पादन में उसका श्रेय अधिक है। बालक माता के समीप ही अधिक रहता है, इसलिए उसके क्रिया-कलापों एवं भावनाओं से प्रेरणा भी अधिक लेता है, यह बात ठीक है, पर साथ ही यह भी निश्चित है कि अकेली माता उसका सर्वांगीण विकास कर सकने में समर्थ नहीं हो सकती। आहार, चिकित्सा, खेल, शिक्षा, संस्कार आदि का बहुत कुछ उत्तरदायित्व परिवार के अन्य लोगों पर भी समान रूप से है। इस परिवर्तन की क्रिया द्वारा घर के सभी लोग क्रमशः बालक को अपनी गोदी में लेते हैं और यह उत्तरदायित्व अनुभव करते हैं कि बालक के स्वस्थ विकास में सभी शक्ति पर योगदान करेंगे। वेशक माता के बाद अधिक उत्तरदायित्व पिता पर आता है, पर घर के अन्य सदस्य भी उससे मुक्त नहीं रह सकते। साझे की खेती की तरह बालकों के निर्माण में घर के सब लोगों का समान योगदान रहना चाहिए।

क्रिया और भावना

मन्त्रोच्चारण प्रारम्भ के साथ माता बालक को पहले उसके पिता की गोद में दे। पिता अन्य परिजनों को दे। शिशु एक-दूसरे के हाथ में जाता स्नेह-दुलार पाता हुआ पुनः माँ के पास पहुँच जाए। भावना की जाए कि बालक सबका स्नेह पात्र बन रहा है, सबके स्नेह-अनुदानों का अधिकार पा रहा है।

ॐ अथ सुमंगल नामानह्वयति, बहुकार श्रेयस्कर भूयस्करेति। यऽएव वन्नामा भवति, कल्याण मेवैतन्मानुष्यै वाचो वदति॥

लोक दर्शन

शिक्षण और प्रेरणा

कोई वयोवृद्ध व्यक्ति बच्चे को गोदी में लेकर घर से बाहर ले जाते हैं और उसे बाहर का खुला संसार, खुला वातावरण दिखाते हैं। बालक घर में ही कूपमण्डूक न बना रहे, वरन् वह जगती के विस्तृत प्रांगण में भी अपने को गतिशील बनाए, प्रकृति की गोद में रहे, विशाल वातावरण में बढ़े, इसके लिए बाहर खुले वातावरण में उसे घुमाया जाता है। विनोद, क्रीड़ा एवं ज्ञान संवर्धन द्वारा सर्वांगीण विकास का द्वार खोला जाता है। यह संसार विराट् ब्रह्म है। इसे प्रत्यक्ष परमेश्वर समझना चाहिए। भगवान श्रीराम ने कौशल्या और काकभुशुण्डि को एवं भगवान श्रीकृष्ण ने यशोदा तथा अर्जुन को विराट् रूप दिखाते हुए विश्व ब्रह्माण्ड का ही साक्षात्कार कराया था, जो इस जगत् को ईश्वर की विशाल शक्ति के रूप में देखने लगा, समझना चाहिए कि उसने ईश्वर का दर्शन कर लिया।

क्रिया और भावना

मन्त्रोच्चारण के साथ नियुक्त व्यक्ति उसे गोद में उठायें-खुले में जाकर विभिन्न दृश्य दिखाकर ले आएँ। भावना की जाए कि बालक में इस विराट् विश्व को सही दृष्टि से देखने, समझने एवं प्रयुक्त करने की क्षमता देव अनुग्रह और सद्भावना के सहयोग से प्राप्त हो रही है।

ॐ हिरण्यगर्भः समर्वत्तताग्रे, भूतस्य जातः परितेकऽआसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां, कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ -१३.४

‍इसके बाद अग्नि स्थापन से लेकर गायत्री मन्त्र की आहुतियाँ पूरी करने का क्रम चलाया जाए, तब विशेष आहुतियाँ दी जाएँ।

विशेष आहुति

क्रिया और भावना

हवन सामग्री के साथ निर्धारित मेवा-मिष्टान्न खीर आदि मिलाकर पाँच आहुतियाँ नीचे लिखे मन्त्र दी जाएँ। भावना की जाए कि विशेष उद्देश्य के लिए विशेष वातावरण का निर्माण हो रहा है।

ॐ भूर्भुव: स्वः। अग्निरृषि पवमानः पांचजन्यः पुरोहितः। तमीमहे महागयं स्वाहा। इदम् अग्नये पवमानाय इदं न मम॥ -ऋ०९.६६.२०

बाल प्रबोधन

शिक्षण और प्रेरणा

शिशु के विकास के लिए जितना आवश्यक स्नेह-दुलार है, उतना ही आवश्यक है, उसे समयानुकूल उद्बोधन देना। यह नहीं सोचना चाहिए कि बालक क्या समझता है? यह बड़ी भ्रान्ति है। समझने-समझाने के लिए भाषा भी एक माध्यम है; पर वही सब कुछ नहीं, स्नेह-स्पन्दनों और विचार-तरंगों के सहारे मनुष्य अधिक गहराई से समझता है। भाषा भी उसी को स्पष्ट करती है। बालक भाषा न भी समझे, तो भी मूल स्पन्दनों के प्रति बहुत संवेदनशील होता है। अपने मनोरंजन या खीझ की प्रतिक्रिया स्वरूप उसके साथ फूहड़ वार्तालाप नहीं करना चाहिए, उसे सम्बोधन करके प्रबोधन देने का शुभारम्भ इस संस्कार के समय किया जाता हैं, जिसे विचारशीलों, हितैषियों द्वारा आगे भी चलाते रहना चाहिए।

क्रिया और भावना आचार्य बालक को गोद में लें। उसके कान के पास नीचे वाला मन्त्र बोलें। सभी लोग भावना करें कि भाव-भाषा को शिशु हृदयंगम कर रहा है और श्रेष्ठ सार्थक जीवन की दृष्टि प्राप्त कर रहा है।

ॐ शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि, संसारमाया परिवर्जितोऽसि। संसारमायां त्यज मोहनिद्रां, त्वां सद्गुरुः शिक्षयतीति सूत्रम्॥

प्रबोधन के बाद पूर्णाहुति आदि शेष कृत्य पूरे किये जाएँ। विसर्जन के पूर्व आचार्य, शिशु एवं अभिभावकों को पुष्प, अक्षत, तिलक सहित आशीर्वाद दें, फिर सभी मंगल मन्त्रों के साथ अक्षत, पुष्प वृष्टि करके आशीर्वाद दें।

आशीर्वचन

आचार्य बालक-अभिभावक को आश्शीर्वाद दें। नीचे लिखे मन्त्र के अतिरिक्त आश्शीर्वचन के अन्य मन्त्रों का पाठ भी करना चाहिए।

हे बालक! त्वमायुष्मान् वर्चस्वी, तेजस्वी श्रीमान् भूयाः।

बाहरी कड़ियाँ