सामग्री पर जाएँ

द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी (१ दिसम्बर १९१६ - २९ अगस्त १९९८) हिन्दी के साहित्यकार थे। उन्होंने बाल साहित्य पर 26 पुस्तकें लिखीं जिससे वे 'बच्चों के गांधी' भी कहलाते हैं। उनकी कविताएं आज भी बच्चों के स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल हैं। हर रचना से बाल मन आज भी प्रेरित होता है। उनकी अधिकांश रचनाएं देश प्रेम, वीरता, प्रकृति आदि पर आधारित हैं। बच्चों के कवि सम्मेलन का प्रारम्भ और प्रवर्तन करने वालों के रूप में द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का योगदान अविस्मरणीय है। वह उत्तर प्रदेश के शिक्षा सचिव थे। उनकी अध्यक्षता में 500 बाल कविताओं की रचना हुई थी। हिंदी की इन कविताओं को स्कूलों में पढ़वाना व अंग्रेजी की कविताओं की जगह स्थापित करना इसका उद्देश्य था।

प्रयागराज में ही माहेश्वरी जी ने 'गुंजन' नामक संस्था भी बनाई, जिसकी गोष्ठियाँ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कक्ष में समय-समय पर होती रहती थीं। माहेश्वरी जी भी काव्यमंचों पर कवितापाठ भी करते थे तथा उन्होंने श्रोताओं से भूरि भूरि सराहना पाई।

परिचय

उनका जन्म आगरा के रोहता में हुआ था।[1] इनकी शिक्षा आगरा में हुई। उत्तर प्रदेश शिक्षा विभाग में रहकर विभिन्न नगरों में सेवाएँ दी। १९७८ में सेवानिवृत होकर अपने पैतृक गाँव वापस आ गए। १९८१ में आलोक नगर में आकर बस गए। वैसे तो उनका लेखन विद्यार्थी-जीवन से ही शुरू हो गया थ किन्तु सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने और अधिक साहित्य सृजन किया। अपनी आत्मकथा 'सीधी राह चलता रहा' उन्होने अपनी मृत्यु के दो घण्टे पहले पूरा किया था।

वह उत्तर प्रदेश के शिक्षा सचिव थे। उन्होंने शिक्षा के व्यापक प्रसार और स्तर के उन्नयन के लिए अनथक प्रयास किए। उन्होंने कई कवियों के जीवन पर वृत्त चित्र बनाकर उन्हे याद करते रहने के उपक्रम दिए। सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' जैसे महाकवि पर उन्होंने बड़े जतन से वृत्तचित्र बनाया। यह एक कठिन कार्य था, लेकिन उसे उन्होंने पूरा किया। बड़ों के प्रति आदर-सम्मान का भाव माहेश्वरी जी जितना रखते थे उतना ही प्रेम उदीयमान साहित्यकारों को भी देते थे। उन्होंने आगरा को अपना काव्यक्षेत्र बनाया। केंद्रीय हिंदी संस्थान को वह एक तीर्थस्थल मानते थे। इसमें प्रायः भारतीय और विदेशी हिंदी छात्रों को हिंदी भाषा और साहित्य का ज्ञान दिलाने में माहेश्वरी जी का अवदान हमेशा याद किया जाएगा। वह गृहस्थ संत थे।

शिक्षा और कविता को समर्पित द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का जीवन बहुत ही चित्ताकर्षक और रोचक है। सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार कृष्ण विनायक फड़के ने अपनी अंतिम इच्छा के रूप में प्रकट किया कि उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी शवयात्रा में माहेश्वरी जी का बालगीत 'हम सब सुमन एक उपवन के' गाया जाए।[2] फड़के जी का मानना था कि अंतिम समय भी पारस्परिक एकता का संदेश दिया जाना चाहिए। उत्तर प्रदेश सूचना विभाग ने अपनी होर्डिगों में प्राय: सभी जिलों में यह गीत प्रचारित किया और उर्दू में भी एक पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसका शीर्षक था, 'हम सब फूल एक गुलशन के', लेकिन वह दृश्य सर्वथा अभिनव और अपूर्व था जिसमें एक शवयात्रा ऐसी निकली जिसमें बच्चे मधुर धुन से गाते हुए चल रहे थे, 'हम सब सुमन एक उपवन के'। किसी गीत को इतना बड़ा सम्मान, माहेश्वरी जी की बालभावना के प्रति आदर भाव ही था। उनका ऐसा ही एक और कालजयी गीत है- वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो। उन्होंने बाल साहित्य पर 26 पुस्तकें लिखीं। इसके अतिरिक्त पांच पुस्तकें नवसाक्षरों के लिए लिखीं। उन्होंने अनेक काव्य संग्रह और खंड काव्यों की भी रचना की।

प्रकाशित रचनाएँ

माहेश्वरी जी की कोई 40 से अधिक बाल पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें बालगीत, बाल कथागीत, गीत, कविता व संस्मरण आदि की पुस्तकें हैं। साक्षरता से जुड़ी भी उनकी कई पुस्तकें हैं जिन्होंने साक्षरता के प्रसार में अहम भूमिका निभाई है। 'बाल गीतायन' उनके बालगीतों का एक बेहतर चयन कहा जा सकता है, जो 80 के दशक में बेहतरीन आकल्पन के साथ प्रकाशित हुआ था।

बालगीत के क्षेत्र में उन्होंने प्रभूत कार्य किया है। स्वतंत्रता के बाद उनका पहला बालगीत संग्रह 'कातो और गाओ' 1949 में प्रकाशित हुआ। कातो और गाओ के बाद प्रकाशित उनके बालगीतों की एक लंबी शृंखला है- लहरें, बढ़े चलो, बुद्धि बड़ी या बल, अपने काम से काम, माखन मिश्री, हाथी घोड़ा पालकी , सोने की कुल्हाड़ी, अंजन खंजन, सोच समझ कर दोस्ती करो, सूरज-सा चमकूँ मैं, हम सब सुमन एक उपवन के, सतरंगा फुल, प्यारे गुब्बारे, हाथी आता झूम के, बाल गीतायन, आई रेल आई रेल, सीढ़ी सीढ़ी चढ़ते हैं, हम हैं सूरज चाँद सितारे, जल्दी सोना जल्दी जगना, मेरा वंदन है, बगुला कुशल मछुआ, नीम और गिलहरी, चाँदी की डोरी, ना-मौसी-ना, चरखे और चूहे, धूप और धनुष। इसके अतिरिक़्त श्रम के सुमन, बाल रामायण तथा शेर भी डर गया कथा-कहानी की पुस्तकें हैं।

'यदि होता किन्नर नरेश मैं राजमहल में रहता, सोने का सिंहासन होता सिर पर मुकुट चमकता'[3], 'सूरज निकला चिड़िया बोलीं, कलियों ने भी आंखें खोलीं' या 'वीर तुम बढ़े चलो, धीरे तुम बढ़े चलो, सामने पहाड़ हो, सिंह की दहाड़ हो...' जैसे कितने ही गीत हैं जिन्हें कम से कम तीन पीढ़ियों ने बचपन में पढा और गुनगुनाया है। एक समय था जब बच्चों के लिए अच्छे प्रार्थनागीत तक नहीं मिलते थे। भारत की आजादी की लड़ाई के लिए प्रयाण गीत नहीं मिलते थे। खादी पर, चरखे पर, झंडे पर, सत्याग्रह पर, राष्ट्रीय भावना पर गीतों की कमी थी। माहेश्वरी जी ने, श्या‍मलाल गुप्त पार्षद, सोहनलाल द्विवेदी, निरंकार देव सेवक, हरिकृष्ण देवसरेडॉ श्रीप्रसाद आदि के साथ मिल कर ऐसे गीतों की कमी पूरी की। बेसिक शिक्षा परिषद व शिक्षा विभाग से जुड़े होने के नाते द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी ने यह बीड़ा उठाया कि 4 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए ऐसे गीत लिखे जाएं जो उनमें संस्कार पैदा करें साथ ही वे छन्द व कथ्य की दृष्टि से उत्तम हों। उन्होंने अपने समय के श्रेष्ठ कवियों की रचनाएं पाठ्यक्रम में रखवाईं ताकि बच्चों का मानसिक स्तर उन्नत हो। यद्यपि उन्होंने प्रौढ़ों के लिए भी कई काव्य-कृतियां लिखीं किन्तु उनका बाल साहित्यिकार ही प्रमुखता से जाना पहचाना गया।

प्रमुख कृतियाँ

६ काव्यसंग्रह, २ खंड काव्य, २६ बाल साहित्य की पुस्तकें, ३ कथा संग्रह, ५ पुस्तकें नवसाक्षरों के लिए, ३ शिक्षा पुस्तकें और ग्रंथावली ३ भागों में, हम सब सुमन एक उपवन के, वीर तुम बढ़े चलो, चन्दा मामा आ, इतने ऊंचे उठो।

उनकी एक कविता मैं सुमन हूँ यहाँ प्रस्तुत है -

व्योम के नीचे खुला आवास मेरा;
ग्रीष्म, वर्षा, शीत का अभ्यास मेरा;
झेलता हूं मार मारूत की निरंतर,
खेलता यों जिंदगी का खेल हंसकर।
शूल का दिन रात मेरा साथ
किंतु प्रसन्न मन हूं।
मैं सुमन हूं।।
तोड़ने को जिस किसी का हाथ बढ़ता,
मैं विहंस उसके गले का हार बनता;
राह पर बिछना कि चढ़ना देवता पर,
बात हैं मेरे लिए दोनों बराबर।
मैं लुटाने को हृदय में
भरे स्नेहिल सुरभि-कन हूं।
मैं सुमन हूं।।
रूप का शृंगार यदि मैंने किया है,
साथ शव का भी हमेशा ही दिया है;
खिल उठा हूं यदि सुनहरे प्रात में मैं,
मुस्कराया हूं अंधेरी रात में मैं।
मानता सौन्दर्य को-
जीवन-कला का संतुलन हूं।
मैं सुमन हूं॥


उठो धरा के अमर सपूतो
उठो धरा के अमर सपूतो पुनः नया निर्माण करो।
जन-जन के जीवन में फिर से नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो।
नया प्रात है, नई बात है, नई किरण है, ज्योति नई।
नई उमंगें, नई तरंगे, नई आस है, साँस नई।
युग-युग के मुरझे सुमनों में, नई-नई मुसकान भरो।
डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ नए स्वरों में गाते हैं।
गुन-गुन-गुन-गुन करते भौंरे मस्त हुए मँडराते हैं।
नवयुग की नूतन वीणा में नया राग, नवगान भरो।
कली-कली खिल रही इधर वह फूल-फूल मुस्काया है।
धरती माँ की आज हो रही नई सुनहरी काया है।
नूतन मंगलमय ध्वनियों से गुंजित जग-उद्यान करो।
सरस्वती का पावन मंदिर यह संपत्ति तुम्हारी है।
तुम में से हर बालक इसका रक्षक और पुजारी है।
शत-शत दीपक जला ज्ञान के नवयुग का आह्वान करो।
उठो धरा के अमर सपूतो, पुनः नया निर्माण करो।

सम्मान एवं पुरस्कार

साहित्यिक अवदान के लिए माहेश्वरी जी को अनेक पुरस्कार मिले। वर्ष 1977 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा उन्हें बाल साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार प्रदान किया गया। यह पुरस्कार तथा ताम्रपत्र उन्होंने तत्कालीन प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई से ग्रहण किया। 1992 में उन्हें पुनः उ.प्र. हिंदी संस्थान लखनऊ द्वारा बाल साहित्य के क्षेत्र में सर्वोच्च पुरस्कार बाल साहित्य भारती से सम्मानित किया गया।

उनके अनेक गीतों के मुखड़े जन जागरण और सांप्रदायिक सद्भाव के विज्ञापन के रूप में प्रसारित किए गए और सराहे गए हैं। उनके बालगीत की पहली पंक्ति 'हम सब सुमन एक उपवन के एक समय उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा कौमी एकता का बोध जगाने वाली विज्ञापन पंक्ति के रूप में इस्तेमाल किया गया।

सन्दर्भ

  1. धीरेन्द्र यादव. "जब अंतिम यात्रा में 'राम नाम सत्य' की जगह, बच्चों ने गाया प्रसाद माहेश्वरी का ये गीत". पत्रिका न्यूज़. अभिगमन तिथि 2020-08-kigj22. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  2. जब अंतिम यात्रा में 'राम नाम सत्य' की जगह, बच्चों ने गाया द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का ये गीत
  3. 'यदि होता किन्नर नरेश मैं' वाले कवि द्वारिका प्रसाद माहेश्‍वरी की याद

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ