द्वारकानाथ विद्याभूषण
द्वारकानाथ विद्याभूषण | |
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द्वारकानाथ विद्याभूषण की मूर्ति | |
जन्म | 1820 छिंग्रीपोता, दक्षिण चौबीस परगनाजिला |
मौत | 22 अगस्त 1886 सतना, Madhya Pradesh |
पेशा | Scholar, editor, founder |
द्वारकानाथ विद्याभूषण (1820 - 22 अगस्त 1886) एक भारतीय विद्वान, संपादक और "सोमप्रकाश" नामक अखबार के प्रकाशक थे जो अपने समय की दिग्दर्शक अखबार था।
पिता
विद्याभूषण के पिता, हरचंद्र भट्टाचार्य (जिन्हें 'न्यायरत्न' 'के नाम से जाना जाता था) एक विद्वान थे। उन्होंने काशीनाथ तर्कालंकार से विद्याध्ययन किया था, जो उत्तरी कोलकाता के हाटीबागन में एक संस्कृत पाठशाला चलाते थे। न्यायरत्न संस्कृत-आधारित शिक्षा के पारंपरिक केंद्रों में पढ़ाते थे जिन्हें "टोल-चतुष्पदी" कहा जाता था। इसके अतिरिक्त वे अपने खाली समय में अपने घर पर भी कुछ बच्चों को पढ़ाते थे। उनके प्रसिद्ध शिष्यों में ईश्वर चंद्र गुप्त और रामतनु लाहिड़ी थे ।
प्रारंभिक जीवन
गाँव की पारंपरिक पाठशाला प्रारंभिक शिक्षा के बाद द्वारकानाथ ने १८३२ में संस्कृत कॉलेज, कोलकाता में प्रवेश लिया और 1845 तक अध्ययन किया। वहाँ उन्होने कई पुरस्कार जीते और एक विद्वान के रूप में ख्याति अर्जित की। उन्होंने "विद्याभूषण" की अपनी अंतिम परीक्षा उतीर्ण की। फोर्ट विलियम कॉलेज में उन्होंने शिक्षक के रूप अल्प अवधि के लिए शिक्षण किया और फिर पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में संस्कृत कॉलेज में प्रवेश लिया। बाद में वह प्रोफेसर के पद पर आसीन हुए। उस समय ईश्वर चन्द्र विद्यासागर उस कॉलेज के प्राचार्य थे।
द्वारकानाथ स्त्री-शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। अन्य उदारवादियों के साथ मिलकर उन्होने बीस वर्षों तक बेथ्यून स्कूल (जॉन इलियट ड्रिंकवाटर बेथ्यून द्वारा स्थापित) का समर्थन किया।
1856 में उनके पिता ने एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। 1857 में भारतीय स्वामित्व वाले छत्तीस प्रिंटिंग प्रेसों ने बिक्री के लिए 322 पुस्तकें प्रस्तुत की। इसी बीच उनके पिता बीमार पड़ गए और प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना के कुछ समय बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। विद्याभूषण को प्रेस विरासत में मिली। उन्होने स्वयंरचित "यूनान का इतिहास" और "रोम का इतिहास" पर बंगाली में दो पुस्तकें प्रकाशित कीं। संभवतः यह पहली बार था जब सरल बांग्ला में इतिहास का कोई ग्रन्थ प्रकाशित हुआ। इससे वे लेखक के रूप में स्थापित हो गए।
सोमप्रकाश
ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने 'सोमप्रकाश' नामक एक साप्ताहिक अखबार के प्रकाशन का प्रस्ताव रखा जिसका उद्देश्य मुख्यतः एक बधिर विद्वान को रोजगार प्रदान कराना था। अखबार का प्रकाशन 1858 में शुरू हो गया किन्तु बधिर विद्वान इसमें शामिल नहीं हुए। इसलिए इस अखबार के सम्पादन और प्रकाशन की पूरी जिम्मेदारी विद्यासागर ने निभायी। उस समय "संबाद प्रभाकर" और "संवाद भास्कर' जैसे बंगाली अखबार बंगाल में नैतिक वातावरण को परिभाषित कर रहे थे। अपनी गरिमापूर्ण स्वाद, आकर्षक भाषा और निडर आलोचना के बल पर सोमप्रकाश ने बंगाली समाचार पत्रों के क्षेत्र में शीर्ष प्राप्त कर लिया।
प्रारम्भ में "सोमप्रकाश' को कोलकाता के चम्पाताल की एक गली से प्रकाशित किया गया था। 1862 में जब कैनिंग तक रेल लाइन आ गयी तो प्रिन्टिंग प्रेस को वे अपने पैतृक गांव छिंग्रीपोता ले गए। इस गाँव का नाम अब 'सुभाषग्राम' है और यह चौबीस परगना में है।
इस अखबार ने शक्तिशाली नील की खेती करने वालों की और जमींदारों की कड़ी आलोचना की। 1878 में जब लॉर्ड लिटन ने देशी प्रेस अधिनियम (वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट) लगाया तो बंगाली प्रेस विशेष रूप से निशाने पर था। विद्याभूषण ने सोमप्रकाश का प्रकाशन बंद कर दिया किन्तु अधिकारियों के आदेशों का पालन करने के लिए सहमत नहीं हुए। लेफ्टिनेंट गवर्नर सर रिचर्ड टेम्पल ने उन्हें अपने घर बुलाया और उनसे अखबार को बंद न करने का अनुरोध किया। बाद में जब यह अधिनियम वापस ले लिया गया, तो उन्होंने सोमप्रकाश का प्रकाशन फिर से शुरू किया। लेकिन सोमप्रकाश अपना पिछला स्वरूप और महिमा फिर से हासिल नहीं कर पाया।
बाद का जीवन
उन्होंने अपने जन्मग्राम में "हरिनवी द्वारकानाथ विद्याभूषण ऐग्लो-संस्कृत हाई स्कूल" नाम से एक विद्यालय खोला और इसे चलाने का खर्च भी वहन किया। उच्च नैतिक मानकों के धनी विद्याभूषण सदा समाज के दीन-दुखियों के साथ खड़े रहे। बढ़ती उम्र के साथ उनका स्वास्थ्य लड़खड़ाने लगा। कुछ समय के लिए उन्होने "कल्पद्रुम" नामक एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किया। एक बार कुछ समय के लिए वे वाराणसी गए और वहाँ ठहरे। वहाँ पर धर्म और नैतिकता की बुरी दशा को देखकर बड़े दुखी हुए। उनका निधन सतना में हुआ जहाँ वे अपने स्वास्थ्य की पुनर्प्राप्ति के लिए गए थे।
कृतियाँ
इतिहास: 'ग्रीस का इतिहास', 'रोम का इतिहास' (दोनों बांग्ला में)।
पाठ्य पुस्तकें: 'नीतिसार', 'पाठामृत', 'छात्रबोध', भूषणसार व्याकरण' ।
कविता: 'प्राकृत प्रेम', 'प्राकृत सुख', 'बिसेश्वर बिलाप' ।
सन्दर्भ