द्वंद्वात्मक भौतिकवाद
मार्क्स के दर्शन को द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical materialism) कहा जाता है इस सिद्धांत को अनुज कुमार मिश्रा जी ने परिभाषित करने का प्रयत्न किया है। मार्क्स के लिए वास्तविकता विचार मात्र नहीं भौतिक सत्य है; विचार स्वयं पदार्थ का विकसित रूप है। उसका भौतिकवाद, विकासवान् है परंतु यह विकास द्वंद्वात्मक प्रकार से होता है। इस प्रकार मार्क्स, हेगेल के विचारवाद का विरोधी है परंतु उसकी द्वंद्वात्मक प्रणाली को स्वीकार करता है।मार्क्स और हेगेल का मत था कि विरोधी तत्वों के संघर्ष द्वारा ही सत्य की प्रतिष्ठा होती है ।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का अर्थ होता है कि दो विचारों का आपस मे टकराव के बाद मे जो एक नया विचार उत्पन्न होता है और पुनः इस विचार को अन्य पुष्टि विचारो के साथ मिलने पर जो अंततः विचार निकल के आयेगा वह ही परम सत्य होगा और इससे ही सत्य की प्रतिष्ठा होती है।
द्वन्दात्मक भौतिकवाद – मार्क्स ने मानव सभ्यता के ऐतिहासिक विकास को दर्शाने के स्थान पर पदार्थ को स्थापित कर दिया। इस संशोधन को स्पष्ट करते हुए स्वयं मार्क्स का कथन है कि ईगल के लेखन में द्वंद्ववाद सिर के बल खड़ा है यदि आप रचनात्मकता के आवरण में छिपे उसके सारे तत्व को देखना चाहते हैं तो आपको उसे पैरों के बल (अर्थात भौतिक आधार पर) सीधा खड़ा करना पड़ेगा। इस प्रकार मार्क्स ने भौतिकवाद का पुट देकर हीगल के द्वंदवाद को शीर्षासन की अप्राकृतिक स्थिति से मुक्त कर दिया और उसे सामाजिक विश्लेषण का एक उपयोगी औजार बना दिया।
मार्क्स अपनी इस पद्धति को स्पष्ट करते हुए आगे कहता है कि “पदार्थ अर्थात् भौतिक जगत द्वंद्वात्मक पद्धति के माध्यम से अपनी पूर्णता की यात्रा पर अग्रसर है। उसके विभिन्न रूप उसकी इस यात्रा के विभिन्न पड़ाव है। अतः मार्क्स का भौतिकवाद अन्य भौतिकवादियों के भौतिकवाद की तरह यांत्रिक नहीं वरन् द्वंद्वात्मक चरित्र का है। उसके अनुसार विकास पदार्थ का आंतरिक गुण है बाहरी नहीं। वह स्वत: होता है चाहे बाहरी वातावरण उसका सहायक हो या न हो।”
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर मार्क्स यह मत प्रतिपादित करता है कि विश्व अपने स्वभाव से ही पदार्थवादी है। अतः विश्व के विभिन्न रूप गतिशील पदार्थ के विकास के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह विकास द्वंद्वात्मक पद्धति के माध्यम से होता है। अतः भौतिक विकास प्राथमिक महत्व का है और आत्मिक विकास द्वितीय महत्व का है। वास्तव में आत्मिक विकास भौतिकी विकास का प्रतिबिंब मात्र है। इसी आधार पर वह यह कहता है कि मनुष्यों की चेतना उनके सामाजिक स्तर को निर्धारित नहीं करती है वरन् उनका सामाजिक स्तर उनकी चेतना (thinking) को निर्धारित करता हैँ । मार्क्सवाद के अनुरुप समग्र प्रकृति हि द्वन्द्वात्मक प्रकृतिमे स्थित हैँ । उतार और चढाव, गुणन और भाग ,जोड और घटाउ संघर्ष और मिलाप द्वन्द्वात्मक स्थितिको दर्शाता हैँ ।
द्वन्दात्मक भौतिकवाद की विशेषताएं –
1. आंगिक एकता – विश्व का चरित्र भौतिक है तथा उसकी वस्तुएं और घटनाएं एक दूसरे से पूर्णतः संबद्ध है। अतः उसके महत्व को निरपेक्षता के आधार पर नहीं सापेक्षता के आधार पर ही समझा जा सकता है अर्थात् प्रकृति के सभी पदार्थों में आंगिक एकता पाई जाती है।
2. गतिशीलता – प्रकृति में पाया जाने वाला प्रत्येक पदार्थ जड़ या स्थिर न होकर गतिशील होता है।
3. परिवर्तनशीलता – पदार्थिक शक्तियां सामाजिक विकास की प्रेरक शक्तियां हैं। वे गतिशील ही नहीं, परिवर्तनशील भी हैं। अतः सामाजिक विकास भी उन्हीं के अनुरूप परिवर्तनशील है। परिवर्तन की यह प्रक्रिया द्वंदवाद के माध्यम से चलती है।