दुर्गाचार्य
दुर्गाचार्य यास्क (ल. ईसा पूर्व सप्तम शताब्दी) द्वारा प्रणीत वेदान्त ग्रंथ निरुक्त के वृत्तिकार हैं। इनका समय लगभग १३वीं शताब्दी ई. माना गया है।
वेद एवं वेदांगों के व्याख्याकारों में दुर्गाचार्य का प्रमुख स्थान है। यदि इनकी वृत्ति उपलब्ध न होती तो निरुक्त जैस गहन वेदांग का समझना कठिन हो जाता। इन्होंने निरुक्त की विषद एवं विस्तृत व्याख्या की है। इससे उसकी तत्कालीन स्थिति का पता चलता है। वृत्तिकार ने अपनी वृत्ति में प्राचीन टीकाकारों की व्याख्या की ओर संकेत किया है। वृत्ति में स्थान पर नूतन पाठ प्रस्तुत करने तथा विविध पाठांतरों पर समालोचनात्मक प्रकाश डालने में दुर्गाचार्य ने अपनी विश्लेषणात्मक बुद्धि का परिचय दिया है। इस प्रकार इनकी वृत्ति इनके समय में प्राप्त निरुक्त ग्रंथ के समालोचनात्मक संस्करण के रूप को भी प्रस्तुत करती है।
दुर्गाचार्य वेदों के महान मर्मज्ञ थे। इनके प्रगाढ़ पांडित्य का परिचय हमें निरुक्त में उद्धृत वेदमंत्रों की विशद व्याख्या से प्राप्त होता है। मंत्र में आए हुए एक एक शब्द का इन्होंने विद्वत्तापूर्ण विश्लेषण किया है। कहीं कहीं गहन मंत्रों की व्याख्या में इन्हें कठिनाई का भी सामना करना पड़ा।
परिचय
इन्होंने अपने जीवन के संबंध में कुछ भी नहीं लिखा है। वृत्ति की एक पांडुलिपि में इनका नाम 'दुर्गसिंह' है- कृज्वर्थायाँ निरुक्तवृत्तौ जंबुमार्गाश्रमनिवासिन आचार्यभगवद्दुर्गसिंह कृतौ। इससे विदित होता है कि वृत्तिकार का पूरा नाम दुर्गसिंह था। उपर्युक्त पंक्ति में 'आश्रम' तथा 'भगवत्' शब्दों का उल्लेख इस बात का सूचक है कि ये उस समय किसी संप्रदाय के साधु अथवा संन्यासी के रूप में अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। डॉ॰ लक्ष्मणस्वरूप उपर्युक्त पंक्ति के आधार पर यह मानते हैं कि इन्होंने अपनी वृत्ति जम्मू के निकट स्थित किसी आश्रम में लिखी थी। पं॰ भगवद्दत्त इनके गुजरात प्रांत के निवासी होने का अनुमान करते हैं। दुर्गाचार्य वसिष्ठ वंशज तथा कापिष्ठलशाखाध्यायी थे। इन्होंने निरुक्त में उद्धृत ऋग्वेद की ऋचा (३-५३-२३) की व्याख्या नहीं की उसमें वसिष्ठ के प्रति कुछ विरोध का भाव व्यंजित होता था। वे कहते हैं- 'यस्मिन्निगमः एषः शब्दः सा वसिष्ठद्वेषिणी ऋक्। अहं च कापिष्ठलो वासिष्ठः। अतस्तां न निर्ब्रबीमि'।