दिल्ली सल्तनत
दिल्ली सल्तनत दिल्ली सलतनत پادشاهی دهلی | |||||
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दिल्ली सल्तनत के विभिन्न वंश | |||||
राजधानी | दिल्ली (9वीं से 12वीं सदी) लाहौर (1206–1210) बदायूँ (1210–1214) दिल्ली (1214–1327) दौलताबाद (1327–1334) दिल्ली (1334–1506) आगरा (1506–1526) | ||||
भाषाएँ | देवनागरी हिंदी फारसी (आधिकारिक)[1] | ||||
धार्मिक समूह | सुन्नी इस्लाम | ||||
शासन | सल्तनत | ||||
सुल्तान | |||||
- | 1206–1210 | कुतुब-उद-दीन ऐबक (प्रथम) | |||
- | 1517–1526 | इब्राहीम लोदी (अंतिम) | |||
ऐतिहासिक युग | मध्यकालीन | ||||
- | स्थापित | 12 जून 1206[2] शुरूआती वर्ष डालें | |||
- | अमरोहा का युद्ध | 20 दिसम्बर 1305 | |||
- | अंत | ||||
- | पानीपत का युद्ध | 21 अप्रैल 1526 | |||
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इतिहासकारों के मत से 1206 से 1526 तक भारत पर शासन करने वाले पाँच वंश के सुल्तानों के शासनकाल को दिल्ली सल्तनत (उर्दू: دلی سلطنت) या सल्तनत-ए-हिन्द/सल्तनत-ए-दिल्ली कहा जाता है। ये पाँच वंश थे- गुलाम वंश (1206 - 1290), ख़िलजी वंश (1290- 1320), तुग़लक़ वंश (1320 - 1414), सैयद वंश (1414 - 1451), तथा लोदी वंश (1451 - 1526)। इनमें से पहले चार वंश मूल रूप से तुर्क थे और आखरी अफगान था।
मुहम्मद ग़ौरी का गुलाम क़ुतुबुद्दीन ऐबक, गुलाम वंश का पहला सुल्तान था। ऐबक का साम्राज्य पूरे उत्तर भारत तक फैला था। इसके बाद ख़िलजी वंश ने मध्य भारत पर कब्ज़ा किया लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप को संगठित करने में नाकाम रहा।[3]
,[4] पर इसने भारतीय-इस्लामिक वास्तुकला के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।[5][6] दिल्ली सल्तनत मुस्लिम इतिहास के कुछ कालखंडों में है जहां किसी महिला ने सत्ता संभाली।[7] 1526 में मुगल सल्तनत द्वारा इस साम्राज्य का अंत हुआ।
पृष्ठभूमि
962 ईस्वी में दक्षिण एशिया के हिन्दू और बौद्ध साम्राज्यों के ऊपर सेना द्वारा, जो कि फारस और मध्य एशिया से आए थे, व्यापक स्तर पर हमलें होने लगे।[8] इनमें से महमूद गज़नवी ने सिंधु नदी के पूर्व में तथा यमुना नदी के पश्चिम में बसे साम्राज्यों को 997 इस्वी से 1030 इस्वी तक 17 बार लूटा।[9] महमूद गज़नवी अपने साम्राज्य को पश्चिम पंजाब तक ही बढ़ा सका।[10][11]
[12] परंतु वो भारत में स्थायी इस्लामिक शासन स्थापित न कर सके। इसके बाद गोर वंश के सुल्तान मोहम्मद ग़ौरी ने उत्तर भारत पर योजनाबद्ध तरीके से हमले करना आरम्भ किया।[13] उसने अपने उद्देश्य के तहत इस्लामिक शासन को बढ़ाना शुरू किया।[9][14] गोरी एक सुन्नी मुसलमान था, जिसने अपने साम्राज्य को पूर्वी सिंधु नदी तक बढ़ाया और सल्तनत काल की नीव डाली।[9] कुछ ऐतेहासिक ग्रंथों में सल्तनत काल को 1192-1526 (334 वर्ष) तक बताया गया है।[15]
1206 में गोरी की हत्या कर दी गई।[16] गोरी की हत्या के बाद उसके एक तुर्क गुलाम (या ममलूक, अरबी: مملوك) कुतुब-उद-दीन ऐबक ने सत्ता संभाली और दिल्ली का पहला सुल्तान बना।[9]
वंश
ममलूक या गुलाम (1206 - 1290)
कुतुब-उद-दीन ऐबक एक गुलाम था, जिसने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की। वह मूल रूप से तुर्क था।[17] उसके गुलाम होने के कारण ही इस वंश का नाम गुलाम वंश पड़ा।[18]
ऐबक चार साल तक दिल्ली का सुल्तान बना रहा। उसकी मृत्यु के बाद 1210 इस्वी में आरामशाह ने सत्ता संभाली परन्तु उसकी हत्या इल्तुतमिश ने 1211 इस्वी में कर दी।[19] इल्तुतमिश की सत्ता अस्थायी थी और बहुत से मुस्लिम अमीरों ने उसकी सत्ता को चुनौती दी। कुछ कुतुबी अमीरों ने उसका साथ भी दिया। उसने बहुत से अपने विरोधियों का क्रूरता से दमन करके अपनी सत्ता को मजबूत किया।[20] इल्तुतमिश ने मुस्लिम शासकों से युद्ध करके मुल्तान और बंगाल पर नियंत्रण स्थापित किया, जबकि रणथम्भौर और शिवालिक की पहाड़ियों को हिन्दू शासकों से प्राप्त किया। इल्तुतमिश ने 1236 इस्वी तक शासन किया। इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद दिल्ली सल्तनत के बहुत से कमजोर शासक रहे जिसमे उसकी पुत्री रजिया सुल्ताना भी शामिल है। यह क्रम गयासुद्दीन बलबन, जिसने 1266 से 1287 इस्वी तक शासन किया था, के सत्ता सँभालने तक जारी रहा।[21][22] बलबन के बाद कैकूबाद ने सत्ता संभाली। उसने जलाल-उद-दीन फिरोज शाह खिलजी को अपना सेनापति बनाया। खिलजी ने कैकुबाद की हत्या कर सत्ता संभाली, जिससे गुलाम वंश का अंत हो गया।
गुलाम वंश के दौरान, कुतुब-उद-दीन ऐबक ने क़ुतुब मीनार और कुवत्त-ए-इस्लाम (जिसका अर्थ है इस्लाम की शक्ति) मस्जिद का निर्माण शुरू कराया, जो कि आज यूनेस्को द्वारा घोषित विश्व विरासत स्थल है।[23] क़ुतुब मीनार का निर्माण कार्य इल्तुतमिश द्वारा आगे बढ़ाया और पूर्ण कराया गया।[23][24] गुलाम वंश के शासन के दौरान बहुत से अफगान और फारस के अमीरों ने भारत में शरण ली और बस गए।[25]
खिलजी (1290 -1320)
इस वंश का पहला शासक जलालुद्दीन खिलजी था। उसने 1290 इस्वी में गुलाम वंश के अंतिम शासक शम्सुद्दीन कैमुर्स की हत्या कर सत्ता प्राप्त की। उसने कैकुबाद को तुर्क, अफगान और फारस के अमीरों के इशारे पर हत्या की।
जलालुद्दीन खिलजी मूल रूप से अफगान-तुर्क मूल का था। उसने 6 वर्ष तक शासन किया। उसकी हत्या उसके भतीजे और दामाद जूना खान ने कर दी।[26] जूना खान ही बाद में अलाउद्दीन खिलजी नाम से जाना गया। अलाउद्दीन खिलजी ने अपने सैन्य अभियान का आरम्भ कारा जागीर के सूबेदार के रूप में की, जहां से उसने मालवा (1292) और देवगिरी (1294) पर छापा मारा और भारी लूटपाट की। अपनी सत्ता पाने के बाद उसने अपने सैन्य अभियान दक्षिण भारत में भी चलाए। उसने गुजरात, मालवा, रणथम्बौर और चित्तौड़ को अपने राज्य में शामिल कर लिया।[27] उसके इस जीत का जश्न थोड़े समय तक रहा क्योंकि मंगोलों ने उत्तर-पश्चिमी सीमा से लूटमार का सिलसिला शुरू कर दिया। मंगोलों लूटमार के पश्चात वापस लौट गए और छापे मारने भी बंद कर दिए।[28]
मंगोलों के वापस लौटने के पश्चात अलाउद्दीन ने अपने सेनापति मलिक काफूर और खुसरों खान की मदद से दक्षिण भारत की ओर साम्राज्य का विस्तार प्रारंभ कर दिया और भारी मात्रा में लूट का सामान एकत्र किया।[29] उसके सेनापतियों ने लूट के सामान एकत्र किये और उस पर घनिमा (الْغَنيمَة, युद्ध की लूट पर कर) चुकाया, जिससे खिलजी साम्राज्य को मजबूती मिली। इन लूटों में उसे वारंगल की लूट में अब तक के मानव इतिहास का सबसे बड़ा हीरा कोहिनूर भी मिला। [30]
अलाउद्दीन ने कर प्रणाली में बदलाव किए, उसने अनाज और कृषि उत्पादों पर कृषि कर 20% से बढ़ाकर 50% कर दिया। स्थानीय आधिकारी द्वारा एकत्र करों पर दलाली को खत्म किया। उसने आधिकारियों, कवियों और विद्वानों के वेतन भी काटने शुरू कर दिए।[26] उसकी इस कर नीति ने खजाने को भर दिया, जिसका उपयोग उसने अपनी सेना को मजबूत करने में किया। उसने सभी कृषि उत्पादों और माल की कीमतों के निर्धारण के लिए एक योजना भी पेश की। कौन सा माल बेचना, कौन सा नहीं उसपर भी उसका नियंत्रण था। उसने सहाना-ए-मंडी नाम से कई मंडियां भी बनवाई।[31] मुस्लिम व्यापारियों को इस मंडी का विशेष परमिट दिया जाता था और उनका इन मंडियों पर एकाधिकार भी था। जो इन मंडियों में तनाव फैलाते थे उन्हें मांस काटने जैसी कड़ी सजा मिलती थी। फसलों पर लिया जाने वाला कर सीधे राजकोष में जाता था। इसके कारण अकाल के समय उसके सैनिकों की रसद में कटौती नहीं होती थी।[26]
अलाउद्दीन अपने जीते हुए साम्राज्यों के लोगों पर क्रूरता करने के लिए भी मशहूर है। इतिहासकारों ने उसे तानाशाह तक कहा है। अलाउद्दीन को यदि उसके खिलाफ किए जाने वाले षडयंत्र का पता लग जाता था तो वह उस व्यक्ति को पूरे परिवार सहित मार डालता था। 1298 में, उसके डर के कारण दिल्ली के आसपास एक दिन में 15,000 से 30,000 लोगों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया।[32]
अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात 1316 में, उसके सेनापति मलिक काफूर जिसका जन्म हिन्दू परिवार में हुआ था और बाद में इस्लाम स्वीकार किया था, ने सत्ता हथियाने का प्रयास किया परन्तु उसे अफगान और फारस के अमीरों का समर्थन नहीं मिला। मलिक काफूर मारा गया।[26] खिलजी वंश का अंतिम शासक अलाउद्दीन का 18 वर्षीय पुत्र कुतुबुद्दीन मुबारक शाह था। उसने 4 वर्ष तक शासन किया और खुसरों शाह द्वारा मारा गया। खुसरों शाह का शासन कुछ महीनों में समाप्त हो गया, जब गाज़ी मलिक जो कि बाद में गयासुद्दीन तुगलक कहलाया, ने उसकी 1320 इस्वी में हत्या और गद्दी पर बैठा और इस तरह खिलजी वंश का अंत तुगलक वंश का आरम्भ हुआ।[25][32]
तुग़लक़ (1320-1414)
तुगलक वंश ने दिल्ली पर 1320 से 1414 तक राज किया। तुगलक वंश का पहला शासक गाज़ी मलिक जिसने अपने को गयासुद्दीन तुगलक के रूप में पेश किया। वह मूल रूप तुर्क-भारतीय था, जिसके पिता तुर्क और मां हिन्दू थी। गयासुद्दीन तुगलक ने पाँच वर्षों तक शासन किया और दिल्ली के समीप एक नया नगर तुगलकाबाद बसाया।[33] कुछ इतिहासकारों जैसे विन्सेंट स्मिथ के अनुसार,[34] वह अपने पुत्र जूना खान द्वारा मारा गया, जिसने 1325 इस्वी में दिल्ली की गद्दी प्राप्त की। जूना खान ने स्वयं को मुहम्मद बिन तुगलक के पेश किया और 26 वर्षों तक दिल्ली पर शासन किया।[35] उसके शासन के दौरान दिल्ली सल्तनत का सबसे अधिक भौगोलिक क्षेत्रफल रहा, जिसमे लगभग पूरा भारतीय उपमहाद्वीप शामिल था।[36]
मुहम्मद बिन तुगलक एक विद्वान था और उसे कुरान की कुरान, फिक, कविताओं और अन्य क्षेत्रों की व्यापक जानकारियाँ थी। वह अपनें नाते-रिश्तेदारों, वजीरों पर हमेशा संदेह करता था, अपने हर शत्रु को गंभीरता से लेता था तथा कई ऐसे निर्णय लिए जिससे आर्थिक क्षेत्र में उथल-पुथल हो गया। उदाहरण के लिए, उसने चांदी के सिक्कों के स्थान पर ताम्बे के सिक्कों को ढलवाने का आदेश दिया। यह निर्णय असफल साबित हुआ क्योकि लोगों ने अपने घरों में जाली सिक्कों को ढालना शुरू कर दिया और उससे अपना जजिया कर चुकाने लगे।[34][36]
एक अन्य निर्णय के तहत उसने अपनी राजधानी दिल्ली से महाराष्ट्र के देवगिरी (इसका नाम बदलकर उसने दौलताबाद कर दिया) स्थानान्तरित कर दिया तथा दिल्ली के लोगों को दौलताबाद स्थानान्तरित होने के लिए जबरन दबाव डाला। जो स्थानांतरित हुए उनकी मार्ग में ही मृत्यु हो गई।[34] राजधानी स्थानांतरित करने का निर्णय गलत साबित हुआ क्योंकि दौलताबाद एक शुष्क स्थान था जिसके कारण वहाँ पर जनसंख्या के अनुसार पीने का पानी बहुत कम उपलब्ध था। राजधानी को फिर से दिल्ली स्थानांतरित किया गया। फिर भी, मुहम्मद बिन तुगलक के इस आदेश के कारण बड़ी संख्या में आये दिल्ली के मुसलमान दिल्ली वापस नहीं लौटे। मुस्लिमों के दिल्ली छोड़कर दक्कन जाने के कारण भारत के मध्य और दक्षिणी भागों में मुस्लिम जनसंख्या काफी बढ़ गई।[36] मुहम्मद बिन तुगलक के इस फैसले के कारण दक्कन क्षेत्र के कई हिन्दू और जैन मंदिर तोड़ दिए गए, या उन्हें अपवित्र किया गया; उदाहरण के लिए स्वंयभू शिव मंदिर तथा हजार खम्भा मंदिर।[37]
मुहम्मद बिन तुगलक के खिलाफ 1327 इस्वी से विद्रोह प्रारंभ हो गए। यह लगातार जारी रहे, जिसके कारण उसके सल्तनत का भौगोलिक क्षेत्रफल सिकुड़ता गया। दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य का उदय हुआ जो कि दिल्ली सल्तनत द्वारा होने वाले आक्रमणों का मजबूती से प्रतिकार करने लगा।[38] 1337 में, मुहम्मद बिन तुगलक ने चीन पर आक्रमण करने का आदेश दिया[33] और अपनी सेनाओं को हिमालय पर्वत से गुजरने का आदेश दिया। इस यात्रा में कुछ ही सैनिक जीवित बच पाए। जीवित बच कर लौटने वाले असफल होकर लौटे।[34] उसके राज में 1329-32 के दौरान, उसके द्वारा ताम्बे के सिक्के चलाए जाने के निर्णय के कारण राजस्व को भारी क्षति हुई। उसने इस क्षति को पूर्ण करने के लिए करों में भारी वृद्धि की। 1338 में, उसके अपने भतीजे ने मालवा में बगावत कर दी, जिस पर उसने हमला किया और उसकी खाल उतार दी।[33] 1339 से, पूर्वी भागों में मुस्लिम सूबेदारों ने और दक्षिणी भागों से हिन्दू राजाओं ने बगावत का झंडा बुलंद किया और दिल्ली सल्तनत से अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया। मुहम्मद बिन तुगलक के पास इन बगावतों से निपटने के लिए आवश्यक संसाधन नहीं थे, जिससे उसका सम्राज्य सिकुड़ता गया।[39] इतिहासकार वॉलफोर्ड ने लिखा है कि मुहम्मद बिन तुगलक के शासन के दौरान, भारत को सर्वाधिक अकाल झेलने पड़े, जब उसने ताम्र धातुओं के सिक्के का परिक्षण किया।[40][41] 1347 में, बहमनी साम्राज्य सल्तनत से स्वतंत्र हो गया और सल्तनत के मुकाबले दक्षिण एशिया में एक नया मुस्लिम साम्राज्य बन गया।[8]
मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु 1351 में गुजरात के उन लोगों को पकड़ने के दौरान हो गई, जिन्होंने दिल्ली सल्तनत के खिलाफ बगावत की थी।[39] उसका उत्तराधिकारी फिरोज शाह तुगलक (1351-1388) था, जिसने अपने सम्राज्य की पुरानी क्षेत्र को पाने के लिए 1359 में बंगाल के खिलाफ 11 महीनें का युद्ध आरम्भ किया। परन्तु फिर भी बंगाल दिल्ली सल्तनत में शामिल न हो पाया। फिरोज शाह तुगलक ने 37 वर्षों तक शासन किया। उसने अपने राज्य में खाद्य पदार्थ की आपूर्ति के लिए व अकालों को रोकने के लिए यमुना नदी से एक सिंचाई हेतु नहर बनवाई। एक शिक्षित सुल्तान के रूप में, उसने अपना एक संस्मरण लिखा।[45] इस संस्मरण में उसने लिखा कि उसने अपने पूर्ववर्तियों के उलट, अपने राज में यातना देना बंद कर दिया है। यातना जैसे कि अंग-विच्छेदन, आँखे निकाल लेना, जिन्दा व्यक्ति का शरीर चीर देना, रीढ़ की हड्डी तोड़ देना, गले में पिघला हुआ सीसा डालना, व्यक्ति को जिन्दा फूँक देना आदि शामिल था।[46] इस सुन्नी सुल्तान यह भी लिखा है कि वह सुन्नी समुदाय का धर्मान्तरण को सहन नहीं करता था, न ही उसे वह प्रयास सहन थे जिसमे हिन्दू अपने ध्वस्त मंदिरों को पुनः बनाये।[47] उसने लिखा है कि दंड के तौर पर बहुत से शिया, महदी और हिंदुओं को मृत्युदंड सुनाया। अपने संस्मरण में, उसने अपनी उपलब्धि के रूप में लिखा है कि उसने बहुत से हिंदुओं को सुन्नी इस्लाम धर्म में दीक्षित किया और उन्हें जजिया कर व अन्य करों से मुक्ति प्रदान की, जिन्होंने इस्लाम स्वीकार किया उनका उसने भव्य स्वागत किया। इसके साथ ही, उसने सभी तीनों स्तरों पर करों व जजिया को बढ़ाकर अपने पूर्ववर्तियों के उस फैसले पर रोक लगा दिया जिन्होंने हिन्दू ब्राह्मणों को जजिया कर से मुक्ति दी थी।[46][48] उसने व्यापक स्तर पर अपने अमीरों व गुलामों की भर्ती की। फिरोज शाह के राज के यातना में कमी तथा समाज के कुछ वर्गों के साथ किए जा रहे पक्षपात के खत्म करने के रूप में देखा गया, परन्तु समाज के कुछ वर्गों के प्रति असहिष्णुता और उत्पीड़न में बढ़ोत्तरी भी हुई।[46]
फिरोज शाह के मृत्यु ने अराजकता और विघटन को जन्म दिया। इस राज के दो अंतिम शासक थे, दोनों ने अपने सुल्तान घोषित किया और 1394-1397 तक शासन किया। जिनमे से एक महमूद तुगलक था जो कि फिरोज शाह तुगलक का बड़ा पुत्र था, उसने दिल्ली से शासन किया। दूसरा नुसरत शाह था, जो कि फिरोज शाह तुगलक का ही रिश्तेदार था, ने फिरोजाबाद पर शासन किया।[49] दोनों सम्बन्धियों के बीच युद्ध तब तक चलता रहा जब तक तैमूर लंग का 1398 में भारत पर आक्रमण नहीं हुआ। तैमूर, जिसे पश्चिमी साहित्य में तैम्बुरलेन भी कहा जाता है, समरकंद का एक तुर्क सम्राट था। उसे दिल्ली में सुल्तानों के बीच चल रही जंग के बारे में जानकारी थी। इसलिए उसने एक सुनियोजित ढंग से दिल्ली की ओर कूच किया। उसके कूच के दौरान १ लाख से २ लाख के बीच हिन्दू मारे गए।[50][51][52] तैमूर का भारत पर शासन करने का उद्देश्य नहीं था। उसने दिल्ली को जमकर लूटा और पूरे शहर को में आग के हवाले कर दिया। पाँच दिनों तक, उसकी सेना ने भयंकर नरसंहार किया।[33] इस दौरान उसने भारी मात्रा में सम्पति, गुलाम व औरतों को एकत्र किया और समरकंद वापस लौट गया। पूरे दिल्ली सल्तनत में अराजकता और महामारी फैल गई।[49] सुल्तान महमूद तुगलक तैमूर के आक्रमण के समय गुजरात भाग गया। आक्रमण के बाद वह फिर से वापस आया तुगलक वंश का अंतिम शासक हुआ और कई गुटों के हाथों की कठपुतली बना रहा।[33][53]
सैयद वंश
शासन काल 1414 से 1451 तक (३६ वर्ष) सैयद वंश एक तुर्क राजवंश था [70] जिसने दिल्ली सल्तनत पर 1415 से 1451 तक शासन किया। [22] टमुरुद पर आक्रमण और लूटने दिल्ली सल्तनत को बदमाशों में छोड़ दिया था, और सैयद वंश के शासन के बारे में बहुत कम जानकारी है। एन्निमरी शिममेल, राजवंश के पहले शासक को खज़्र खान के रूप में नोट करता है, जिन्होंने टिमूर का प्रतिनिधित्व करने का दावा करके शक्ति ग्रहण की थी दिल्ली के पास के लोगों ने भी उनके अधिकार पर सवाल उठाए थे उनका उत्तराधिकारी मुबारक खान था, जिन्होंने खुद को मुबारक शाह के रूप में नाम दिया और पंजाब के खो राज्यों को फिर से हासिल करने की कोशिश की, असफल। [69]
सईद वंश की शक्ति के साथ, भारतीय उपमहाद्वीप पर इस्लाम के इतिहास में गहरा परिवर्तन हुआ, शमीमल के अनुसार। [6 9] इस्लाम का पहले प्रमुख सुन्नी संप्रदाय पतला था, शिया गुलाब जैसे वैकल्पिक मुस्लिम संप्रदायों, और इस्लामी संस्कृति के नए प्रतिस्पर्धा केन्द्रों ने दिल्ली से परे जड़ें निकालीं।
सैयद वंश को 1451 में लोदी राजवंश द्वारा विस्थापित किया गया था।
लोदी वंश
शासन काल 1451 से 1526 तक (७६ वर्ष)
लोदी वंश अफगान लोदी जनजाति का था। [70] बहलोल खान लोदी ने लोदी वंश को शुरू किया और दिल्ली सल्तनत पर शासन करने वाला पहला पश्तून था। [71] बहलोल लोदी ने अपना शासन शुरू किया कि दिल्ली सल्तनत के प्रभाव का विस्तार करने के लिए मुस्लिम जौनपुर सल्तनत पर हमला करके, और एक संधि के द्वारा आंशिक रूप से सफल हुए। इसके बाद, दिल्ली से वाराणसी (फिर बंगाल प्रांत की सीमा पर) का क्षेत्र वापस दिल्ली सल्तनत के प्रभाव में था।
बहलुल लोदी की मृत्यु के बाद, उनके बेटे निजाम खान ने सत्ता संभाली, खुद को सिकंदर लोदी के रूप में पुनः नामित किया और 14 9 8 से 1517 तक शासन किया। [72] राजवंश के बेहतर ज्ञात शासकों में से एक, सिकंदर लोदी ने अपने भाई बारबक शाह को जौनपुर से निष्कासित कर दिया, अपने बेटे जलाल खान को शासक के रूप में स्थापित किया, फिर पूर्व में बिहार पर दावा करने के लिए चलाया। बिहार के मुस्लिम गवर्नर्स ने श्रद्धांजलि और करों का भुगतान करने पर सहमति व्यक्त की, लेकिन दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र संचालित। सिकंदर लोदी ने मंदिरों का विनाश करने का अभियान चलाया, विशेषकर मथुरा के आसपास। उन्होंने अपनी राजधानी और अदालत को दिल्ली से आगरा तक ले जाया, [73] [उद्धरण वांछित] एक प्राचीन हिंदू शहर जिसे लुप्त और दिल्ली सल्तनत काल की शुरुआत के दौरान हमला किया गया था। इस प्रकार सिकंदर ने अपने शासन के दौरान आगरा में भारत-इस्लामी वास्तुकला के साथ इमारतों की स्थापना की, और दिल्ली सल्तनत के अंत के बाद, आगरा का विकास मुगल साम्राज्य के दौरान जारी रहा। [71] [74]
सिकंदर लोदी की मृत्यु 1517 में एक प्राकृतिक मौत हुई, और उनके दूसरे पुत्र इब्राहिम लोदी ने सत्ता ग्रहण की। इब्राहिम को अफगान और फारसी प्रतिष्ठित या क्षेत्रीय प्रमुखों का समर्थन नहीं मिला। [75] इब्राहिम ने अपने बड़े भाई जलाल खान पर हमला किया और उनकी हत्या कर दी, जिन्हें उनके पिता ने जौनपुर के गवर्नर के रूप में स्थापित किया था और अमीरों और प्रमुखों का समर्थन किया था। [71] इब्राहिम लोदी अपनी शक्ति को मजबूत करने में असमर्थ थे, और जलाल खान की मृत्यु के बाद, पंजाब के राज्यपाल, दौलत खान लोदी, मुगल बाबर तक पहुंच गए और उन्हें दिल्ली सल्तनत पर हमला करने के लिए आमंत्रित किया। [73] 1526 में बाबर ने पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोदी को हराया और मार डाला। इब्राहिम लोदी की मृत्यु ने दिल्ली सल्तनत को समाप्त कर दिया और मुगल साम्राज्य ने इसे जगह दी।
यह भी देखें
सन्दर्भ
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