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दायित्व

अगर किसी के पास कोई अधिकार है, तो वह तब तक उसका उपभोग नहीं कर सकता जब तक दूसरा एक दायित्व (Obligation) के रूप में उस अधिकार का आदर न करे। इस लिहाज़ से अधिकार और दायित्व एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। व्यक्तिगत अधिकारों को तभी तक जारी रखा जा सकता है जब तक राज्य की संस्था उनकी सुरक्षा करने के गुरुतर दायित्व का पालन करने के लिए तैयार न हो। लेकिन अगर यह मान लिया जाए कि नागरिकों के हिस्से में केवल अधिकार आयेंगे और राज्य के हिस्से में केवल दायित्व, तो व्यवस्थित और शिष्ट नागरिक जीवन असम्भव हो जाएगा। इसीलिए नागरिकता की अवधारणा में दायित्वों और अधिकारों के मिश्रण की तजवीज़ की गयी है। इनमें सबसे ज़्यादा बुनियादी अवधारणा ‘राजनीतिक दायित्व’ की है जिसका संबंध नागरिक द्वारा राज्य के प्राधिकार को मानना और उसके कानूनों का पालन करने से है। अराजकतावादी चिंतक व्यक्ति की स्वायत्तता को किसी भी तरह के दायित्व के बंधन में नहीं बाँधना चाहते, पर उन्हें छोड़ कर बाकी सभी तरह के चिंतकों ने यह समझने में काफ़ी दिमाग़ खपाया है कि क्या व्यक्ति के राजनीतिक दायित्व होते हैं और अगर होते हैं तो उनका समुचित आधार क्या है। कुछ विद्वानों के मुताबिक ‘सामाजिक समझौते’ के तहत व्यक्ति को बुद्धिसंगत और नैतिक आधार पर राज्य के प्राधिकार का आदर करना चाहिए। कुछ अन्य विद्वान इससे भी आगे जा कर कहते हैं कि दायित्व, जिम्मेदारियाँ और कर्त्तव्य केवल किसी अनुबंध की देन न हो कर किसी भी स्थिर समाज के आत्यंतिक लक्षण होते हैं।  विद्वानों में इस बात पर ख़ासा मतभेद है कि राजनीतिक दायित्वों की हद क्या होनी चाहिए। आख़िर किस बिंदु पर एक कर्त्तव्यनिष्ठ नागरिक राज्य के प्राधिकार का आदर करने के दायित्व से मुक्त महसूस कर सकता है?  क्या ऐसा भी कोई बिंदु है जब वह सभी तरह के राजनीतिक दायित्वों को नज़रअंदाज़ करके विद्रोह करने के अधिकार का दावा कर सके?

राजनीतिक सिद्धांत के इतिहास में झाँकने पर प्लेटो की कलम से उनके शिक्षक और मित्र सुकरात का प्रकरण सामने आता है। एथेंस के युवकों को भ्रष्ट करने का मुकदमा चलने के बाद लगभग निश्चित मृत्यु-दण्ड की प्रतीक्षा कर रहे सुकरात अपने पुराने दोस्त क्रिटो को बताते हैं कि वे कारागार से भागने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं।  सुकरात की दलील है कि उन्होंने एथेंस में रहने का चुनाव किया और उसके नागरिक होने के नाते उपलब्ध  विशेष सुविधाएँ भोगीं। इसी लिहाज़ से वे एथेंस के कानून के प्रति निष्ठावान होने से भी बँधे हुए हैं और अपने इस आश्वासन को वे अपने प्राणों की कीमत पर भी पूरा करना चाहते हैं। सुकरात का प्रकरण बताता है कि किसी संगठित समुदाय में रहने के लाभों को भोगने के बदले राजनीतिक दायित्वों को निभाना पड़ता है। यहाँ सुकरात की राजनीतिक दायित्व संबंधी समझ उसके बिना शर्त पालन की है। यानी सुकरात संबंधित राज्य के चरित्र या उसकी प्रकृति की कोई जाँच नहीं करते। वे यह भी मान कर चलते हैं कि अगर कोई निवासी राज्य से असंतुष्ट है तो वह अपनी मर्ज़ी के मुताबिक किसी दूसरे राज्य में रहने के लिए जा सकता है। सुकरात का यह दृष्टिकोण कई तरह से समस्याग्रस्त है। मसलन, व्यावहारिक रूप से यह नागरिकों की इच्छा पर निर्भर नहीं होता कि वे किस राज्य में रहना पसंद करते हैं। पहली बात तो यह कि आर्थिक फँसाव उन्हें अपने राज्य को छोड़ने से रोकता है, दूसरे अगर राज्य न चाहे तो भी वे उसकी सीमा छोड़ कर नहीं जा सकते। दूसरे, जन्मना नागरिक राज्य से ऐसा कोई वायदा नहीं करता कि वह अमुक दायित्वों का पालन करेगा। हाँ, इस तरह का लिखित आश्वासन नागरिकता प्राप्त करने वाले को ज़रूर देना पड़ता है।

हॉब्स और लॉक जैसे चिंतकों ने अपने-अपने तरीके से राज्य द्वारा शासन करने के अधिकार को शासितों की सहमति पर आधारित बताया है। चूँकि बुद्धिसंगत व्यक्ति ‘प्रकृत अवस्था’ की बर्बर स्थिति में नहीं रहना चाहेगा, इसलिए वह स्वेच्छा से सामाजिक समझौते जैसे अनुबंध में उतरता है और शांति-व्यवस्था के तहत जीने के लिए राज्य के प्राधिकार का अनुपालन करने के लिए तैयार होता है। इन दोनों विद्वानों में हॉब्स के मुकाबले लॉक का विचार अधिक संतुलित प्रतीत होता है। हॉब्स के मुताबिक व्यक्ति के सामने कोई चारा ही नहीं है : उसे या तो राज्य के सर्वसत्तावादी प्राधिकार की मातहती स्वीकार करनी होगी, या फिर व्यक्तिगत हितों की निरंतर चलने वाली गलाकाटू होड़ में फँस कर नष्ट हो जाना होगा। लॉक राजनीतिक दायित्व की अवधारणा को एक नहीं, बल्कि दो समझौतों के साथ जोड़ते हैं। पहला अनुबंध सामाजिक समझौता है जिसके तहत समाज की रचना करने का परस्पर समझौता करना अनिवार्य है। इसके लिए वे अपनी-अपनी स्वतंत्रता का एक-एक हिस्सा तक कुर्बान करने के लिए तैयार रहेंगे ताकि एक राजनीतिक समुदाय की अधीनता में मिल सकने वाली स्थिरता और सुरक्षा प्राप्त कर सकें। दूसरा अनुबंध समाज और सरकार के बीच एक ‘भरोसे’ के रूप में होगा जिसके तहत सरकार नागरिकों को उनके प्राकृतिक अधिकारों की सुरक्षा का भरोसा थमायेगी। लॉक कहते हैं कि अगर राज्य निरंकुश या सर्वसत्तावादी हो जाता है तो व्यक्ति को उसके कानूनों के पालन के दायित्व को नज़रअंदाज़ करके उसके ख़िलाफ़ बग़ावत करने का अधिकार है।  यहाँ लॉक स्पष्ट करते हैं कि विद्रोह का मतलब सरकार को ख़त्म करके ‘प्रकृत अवस्था’ की तरफ़ लौटना नहीं हो सकता, बल्कि बेहतर सरकार की स्थापना ही हो सकता है।

सामाजिक समझौते के सिद्धांत की भिन्न व्याख्या करते हुए रूसो उसे अपने विख्यात सूत्रीकरण ‘जन-इच्छा’ के आईने में दिखाते हैं। अगर कोई नागरिक स्वेच्छा से किसी समाज का सदस्य है और वह उस समाज द्वारा प्रतिपादित जन-इच्छा का भी हिस्सा है तो उसके आधार पर उसे राजनीतिक दायित्व का पालन करना होगा। यहाँ जन-इच्छा का तात्पर्य है समाज के प्रत्येक सदस्य के वास्तविक हित का प्रतिनिधित्व। ज़ाहिर है कि रूसो की स्थापना दायित्व के सिद्धांत को सहमति आधारित शासन के आग्रह से दूर ले जाती है।

राजनीतिक दायित्व के सामाजिक समझौते संबंधी सिद्धांत के दो विकल्प  भी सुझाये गये हैं। पहला विकल्प राजनीतिक दायित्व की प्रयोजनमूलक समझ पर टिका हुआ है। इसके मुताबिक नागरिक द्वारा राज्य के आदेशों का अनुपालन केवल उसी अनुपात में किया जा सकता है जिस अनुपात में राज्य उसे लाभ पहुँचा सकता हो या उसके प्रयोजन पूरे कर सकता हो।  उपयोगितावाद एक ऐसी ही प्रयोजनमूलक थियरी है जिसके अनुसार नागरिकों को सरकार का आज्ञापालन इसलिए करना चाहिए कि वह लोगों की ‘सर्वाधिक संख्या’ को ‘सर्वाधिक सुख’ प्रदान करने का प्रयास करती है।  दूसरा विकल्प यह मान कर चलता है कि व्यक्ति किसी समाज का ‘स्वाभाविक’ सदस्य होता है, इसलिए उसके राजनीतिक दायित्वों को भी ‘स्वाभाविक’ समझा जाना चाहिए। यह विचार कुछ-कुछ सुकरात की समझ से मिलता-जुलता है। अनुदारवादी चिंतकों ने इस विकल्प को ख़ास तौर पर पसंद किया है। अनुदारवादियों के अनुसार परिवार, चर्च और सरकार जैसी संस्थाएँ किसी व्यक्ति की इच्छा के आधार पर नहीं बल्कि समाज को नैरंतर्य देने की आवश्यकता के तहत रची गयी हैं। ये संस्थाएँ व्यक्ति को पालती-पोसती, शिक्षित करती और उसकी शख्सियत का निर्माण करती हैं। इसलिए व्यक्ति को उनके प्रति दायित्व, कर्त्तव्य और जिम्मेदारियाँ महसूस करनी चाहिए। इसके लिए केवल कानून का पालन करना और दूसरों की स्वतंत्रता का आदर करना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि व्यक्ति को प्राधिकार का सम्मान करते हुए ज़रूरत के मुताबिक सार्वजनिक पदों का जिम्मा भी उठाना चाहिए। इस तरह अनुदारपंथी चिंतक व्यक्ति के राजनीतिक दायित्वों को माता-पिता के प्रति उनकी संतानों के दायित्व का दर्जा दे देते हैं।

समाजवादियों और सामाजिक-जनवादियों ने दायित्वों के सामाजिक पहलू पर ज़ोर दिया है।  इस लिहाज़ से वे उदारतावादियों के मुकाबले नागरिक पर गुरुतर दायित्व डालना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि व्यक्ति समुदाय के लिए तो काम करे ही, उन लोगों के लिए  भी काम करे जो ख़ुद किसी वजह से काम नहीं कर सकते। केवल अधिकारसम्पन्न और दायित्वहीन व्यक्तियों के समाज में मत्स्य-न्याय की स्थितियाँ हावी हो जाएँगी। समुदायवादी अराजकतावादी चिंतकों को इस तरह की दलील काफ़ी पसंद है। प्रूधों, बकूनिन और क्रोपाटकिन जैसे क्सालिकल अराजकतावादी राजनीतिक प्राधिकार को तो ख़ारिज करते हैं, पर उम्मीद करते हैं कि एक स्वस्थ समाज में लोग सामाजिकता, परस्पर सहयोग और शिष्ट व्यवहार की ख़ूबियों लैस होंगे।

मार्क्सवादियों ने राजनीतिक दायित्व की अवधारणा को पूरी तरह से ठुकरा दिया है, क्योंकि उनकी निगाह में राज्य की व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा में कोई दिलचस्पी नहीं होती। वह तो वर्गीय शासन का औज़ार होता है। मार्क्सवादी सामाजिक समझौते के सिद्धांत को ‘विचारधारात्मक’ करार देते हैं। यानी उनके अनुसार इस सिद्धांत का मकसद नागरिकों को शासक वर्ग की मातहती में लाना है।

लॉक की स्थापनाओं से स्पष्ट है कि राजनीतिक दायित्व की उनकी समझ से क्रांति का सिद्धांत भी निकलता है।  1776 की अमेरिकी क्रांति के दौरान 13 पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों द्वारा की गयी बग़ावत में शामिल क्रांतिकारियों ने लॉक की 1690 में प्रकाशित रचना टू ट्रीटाइज़ ऑन सिविल गवर्नमेंट में व्यक्त विचारों का काफ़ी इस्तेमाल किया था। इसी आधार पर लॉक ने स्टुअर्ट राजाओं के शासन के ख़िलाफ़ इंग्लैण्ड की ‘ग्लोरियस रिवोल्यूशन’ का समर्थन किया जिसके परिणामस्वरूप संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना हुई और संसदीय लोकतंत्र के विकास का रास्ता खुला।

सन्दर्भ

1. ऐंड्रू हेवुड, ‘राइट्स, ऑब्लीगेशंस ऐंड सिटीज़नशिप’, पॉलिटिकल थियरी : ऐन इंट्रोडक्शन, पालग्रेव मैकमिलन, न्यूयॉर्क, 2004, पृष्ठ 184-219

2. जे. होर्टन, पॉलिटिकल ऑब्लीगेशन, पालग्रेव मैकमिलन, बेसिंग्स्टोक, 1986

3. सी. पैटमैन, द प्रॉब्लम ऑफ़ पॉलिटिकल ऑब्लीगेशन, जॉन विली, न्यूयॉर्क, 1989

4. रिचर्ड एशक्रॉक्रट, रेवोल्यूशनरी पॉलिटिक्स ऐंड लॉक्स टू ट्रीटाइज़ ऑफ़ गवर्नमेंट, प्रिंसटन युनिवर्सिटी प्रेस, 1986