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दन्तवक्र

दन्तवक्र का उल्लेख पौराणिक महाकाव्य 'महाभारत' में हुआ है। महाभारत के अनुसार श्रुतदेवी का विवाह करूषाधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था और उसका पुत्र था दन्तवक्र। जब शाल्व ने द्वारका पर आक्रमण किया, तब दन्तवक्र भी शाल्व की ओर से कृष्ण के विरुद्ध युद्ध में लड़ा था। श्रुतदेवी श्री कृष्ण की माता देवकी की छोटी बहन थी।

  • युधिष्ठिर के 'राजसूय यज्ञ' के समय शिशुपाल को श्रीकृष्ण ने मार दिया था। उस समय उस राजसभा में शिशुपाल के जो मित्र, समर्थक राजा थे, वे सब भय के कारण प्राण लेकर भाग खड़े हुए। दन्तवक्र इन्द्रप्रस्थ से भाग तो गया, किन्तु उसे यह निश्चय हो गया था कि श्रीकृष्ण अवश्य मुझे भी मार देंगे।
  • बैकुण्ठ में भगवान नारायण के पार्षद जय-विजय को सनत्कुमार के शाप से असुर योनि प्राप्त हुई थी। कृपालु महर्षि ने तीन जन्म में पुनः बैकुण्ठ लौट आने का इनका विधान कर दिया था। पहले जन्म में दोनों दिति के पुत्र हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु हुए। हिरण्याक्ष को भगवान ने वराह रूप से और हिरण्यकशिपु को नृसिंह रूप धारण करके मारा। दोनों का दूसरा जन्म रावण-कुम्भकर्ण के रूप में हुआ। त्रेता में श्रीराघवेन्द्र के बाणों ने दोनों को रणशैय्या दी। अब द्वापर में दोनों शिशुपाल-दन्तवक्र होकर उत्पन्न हुए थे। शिशुपाल को श्रीकृष्ण ने सायुज्य दे दिया। अब दन्तवक्र की नियति उसे उत्तेजित कर रही थी।
  • शिशुपाल से दन्तवक्र की प्रगाढ़ मित्रता थी। शिशुपाल की मृत्यु ने उसे उन्मत्त-प्राय: कर दिया था। लेकिन श्रीकृष्णचन्द्र के जरासंध के साथ सभी युद्धों में दन्तवक्र रहा था और प्रत्यके बार उसे पराजित होकर भागना ही पड़ा।[1]
  • जब शाल्व अपने विमान से द्वारका पर आक्रमण करने चला गया, तब दन्तवक्र अकेला ही द्वारका पहुँचा। उसने रथ छोड़ दिया और गदा उठाये पैदल ही सेतु पार किया।[2]
  • दन्तवक्र गदा युद्ध करने आया था। उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा थी कि एक भरपूर गदा वह कृष्ण के वक्ष पर मार सके, बस। श्रीद्वारिकाधीश उसे देखते ही रथ से कूदे और गदा उठाये दौड़े। दन्तवक्र रुका। उसने अपनी भारी वज्र के समान गदा उठाई और श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर भरपूर वेग से प्रहार किया। अब श्रीद्वारिकाधीश ने अपनी कौमोदकी गदा उठाकर दन्तवक्र के वक्ष पर प्रहार किया। दन्तवक्र का वक्ष फट गया। पसलियाँ चूर-चूर हो गयीं। मुख से रक्तवमन करता वह चक्कर खाकर गिरा। सहसा उसके मुख से वैसी ही ज्योति निकली, जैसे शिशुपाल के शरीर से निकली थी। यह ज्योति भी श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में लीन हो गयी।