दण्डयुद्ध
फोकस | हथियार (बाँस की लाठी) |
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मूल देश | भारत |
Parenthood | ऐतिहासिक, सिलम्बम |
ओलम्पिक खेल | नहीं |
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दण्डयुद्ध एक प्राचीन भारतीय मार्शल आर्ट है जिसमें बाँस की लाठी का उपयोग हथियार के तौर पर किया जाता है। इसमें प्रतिद्वन्दी को दूर भगाने के लिये ताकत तथा कला का प्रयोग किया जाता है। आत्मरक्षा के अतिरिक्त इसका प्रयोग अनुशासन, सहयोग तथा आत्मनियन्त्रण का विकास करने के लिये भी किया जाता है।
दण्ड की लम्बाई अभ्यासकर्ता की ऊँचाई पर निर्भर करती है। यह कंधे से कान की ऊंचाई तक होनी चाहिये। शुरु में अभ्यास के लिये हल्का तथा छोटा (कंधे तक) दण्ड उपयुक्त होता है। अच्छी तरह सीख जाने पर असली युद्ध में भारी तथा अपेक्षाकृत लम्बी (कान तक) लाठी का प्रयोग होता है।
इतिहास
दण्डयुद्ध के संस्थापक आचार्य महर्षि अगस्त्य माने जाते हैं।[1] कार्तिकेय देवताओं के सेनापति थे तथा उन्हें युद्ध कला का ज्ञान अपने पिता भगवान शिव से प्राप्त हुआ था। कार्तिकेय का एक नाम दण्डपाणि (दण्ड धारण करने वाला) भी है। माना जाता है कि महर्षि अगस्त्य ने शिव की कृपा से कार्तिकेय से युद्ध कलाओं का ज्ञान प्राप्त किया तथा वर्मकल्लै, मर्म अति, सिलम्बम आदि युद्ध कलाओं की संस्थापना की। महर्षि अगस्त्य ने युद्ध कला पर अनेक पुस्तकें भी लिखी जिनमें दण्ड पर 'कम्पूसूत्रम्' नामक पुस्तक शामिल है। महर्षि अगस्त्य ने यह कला अन्य सिद्धों को सिखायी जो कि कालान्तर से शिष्य परम्परा द्वारा आगे बढ़ती रही।
वर्तमान में दण्डयुद्ध का अभ्यास मुख्यतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं इसके आनुषांगिक संगठनों द्वारा अपने प्रशिक्षण शिविरों में किया जाता है। दण्ड (बाँस की लाठी) संघ के पूर्ण गणवेश का एक हिस्सा है। संघ की दण्डयुद्ध शैली तमिलनाडु के मार्शल आर्ट सिलम्बम पर आधारित है।
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ Zarrilli, Phillip B. (1998). When the Body Becomes All Eyes: Paradigms, Discourses and Practices of Power in Kalarippayattu, a South Indian Martial Art. Oxford: Oxford University Press.