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ताराचंद बड़जात्या

भारत सरकार द्वारा जारी किया गया डाक टिकट

ताराचंद बड़जात्या (10 मई 1914 - 21 सितम्बर 1992) भारत के प्रसिद्ध फिल्म-निर्माता थे। उन्होने सन १९६० के दशक से आरम्भ करके १९८० के दशक तक अनेकों हिन्दी फिल्में बनायी। वे राजश्री प्रोडक्शन्स के संस्थापक थे। वे मानवीय मूल्यों पर आधारित पारिवारिक फिल्में बनाने में सिद्धहस्त थे।

परिचय

ताराचन्द बरजात्या का जन्म 10 मई 1914 को कुचामन (नागौर, राजस्थान) में एक मारवाड़ी जैन परिवार में हुआ था। उन्होंने कोलकाता के विद्यासागर कॉलेज से स्नातक की परीक्षा पास करके 19 वर्ष की आयु में 1933 में मोतीमहल थियेटर में बिना किसी वेतन के एक प्रशिक्षु के रूप में काम करने लगे कडी मेहनत और लगन से उन्होंने अपने मालिक के लिए सफलता अर्जित की। उनकी आर्थिक मदद से ही 14 साल बाद 15 अगस्त 1947 में उन्होंने राजश्री पिक्चर्स प्रा॰ लिमिटेड की स्थापना की और कम लागत, देशी कलेवर, नये कलाकारों और सार्थक मूल्यों के सहारे फिल्में बनाने लगे। आर्थिक रूप से उन्हें इस बात का लाभ मिला कि उन्होंने जिन फिल्मों के वितरण का अधिकार मिला उनमें अधिकतर खूब चलीं। जिन फिल्म निर्माता निर्देशकों ने उनपर पूरा भरोसा किया उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण नाम मनमोहन देसाई का था जिन्होंने अपनी कई सफल फिल्मों -अमर अकबर अंथोनी, परवरिश, धरमवीर, कुली आदि फिल्मों के वितरण का अधिकार उन्हें सौंपा। जिन सफल फिल्मों से उन्हें सबसे अधिक लाभ मिला उनमें शोले, जुगनू, रोटी, कपड़ा और मकान और विक्टोरिया नं 203 प्रमुख हैं।

बडजात्या का एक बड़ा अवदान यह भी है कि उनके माध्यम से दक्षिण भारतीय फिल्म जगत से हिंदी समाज ज्यादा जुड पाया। अपने दक्षिण भारत के फिल्म निर्माण क्षेत्र में अनुभवों के आधार पर उन्हें लगा कि इन क्षेत्रीय फिल्मों को राष्ट्रीय आधार मिलना चाहिए। उन्हें विश्वास था कि दक्षिण भारतीय भाषाओं की सफल फिल्मों को हिन्दी क्षेत्र के दर्शक जरूर पसंद करेंगे। शुरू में जेमिनी, ए वी एम, प्रसाद जैसे बडे निर्माताओं को यह भरोसा नहीं था लेकिन जब ताराचन्द बरजात्या ने उन्हें भरोसा दिलाया और वितरण में मदद का वादा किया तब उन्हें भरोसा हुआ। इस क्रम में हिंदी में चन्द्रलेखा, मिलन, संसार, जीने की राह, ससुराल, राजा और रंक और खिलौना जैसी सफल फिल्में बनी। 1962 में ताराचंद ने अपना स्वतंत्र प्रोडक्शन शुरू किया। इसके बाद एक के बाद एक सफल फिल्मों का सिलसिला शुरू हुआ। आरती (1962) से शुरू हुआ सफर दोस्ती, जीवन-मृत्यु, उपहार, पिया का घर, सौदागर, गीत गाता चल, तपस्या, चितचोर, दुल्हन वही जो पिया मन भाए, अँखियों के झरोखे से, तराना, सावन को आने दो, नदिया के पार, सारांश से होता हुआ मैंने प्यार किया तक चलता रहा। 1992 में उनका देहांत हो गया।

अपनी फिल्मों में वे मानवतावादी भारतीय मूल्यों के प्रति संवेदनशील दिखे। उन्हें लगता था कि देश की भाषा, देशी संगीत और देशी भाव-बोध अगर सार्थक रूप में लोगों के सामने लाया जाए तो लोगों की सराहना मिलेगी। बिल्कुल ऐसा ही हुआ।

एक दूसरी प्रमुख बात यह थी कि वे नये कलाकारों और संगीतकारों को सदैव प्रोत्साहित करते रहे। उन्होंने जिन लोगों को पहला बड़ा ब्रेक दिया उनमें ये नाम शामिल हैं- राखी, जया भादुडी, सारिका, रंजीता, रामेश्वरी, सचिन, अनुपम खेर, अरुण गोविल, माधुरी दीक्षित, सत्येन बोस, बासु चटर्जी, सुधेन्दु राय, लेख टंडन, हीरेन नाग, रवींद्र जैन, बप्पी लाहिड़ी, उषा खन्ना, येसुदास, हेमलता, सुरेश वाडेकर, शैलेन्द्र सिंह, कविता कृष्णमूर्ति, अनुराधा पौडवाल, उदित नारायण और अलका याज्ञनिक

अपनी फिल्मों में वे भारतीय समाज के सकारात्मक पक्ष को ज्यादा दिखलाने की कोशिश करते थे। हिंदी का प्रयोग वे शुरू से आखिर तक करते रहे और उनकी फिल्मों में जो नाम दिखलाए जाते थे वे भी हिंदी में ही होते थे।

आज भी उनके पुत्र सूरज बड़जात्या हिंदी फिल्म जगत के विरले लोगों में से हैं जो स्क्रीन-प्ले हिंदी में तैयार करवाते हैं।

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