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तानसेन

तानसेन
तानसेन
तानसेन
पृष्ठभूमि
जन्म नामरामतनु पाण्डेय
जन्म1500
निधन6 मई 1586
विधायेंहिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत
पेशाएकल गायक
फतेहपुर सिकरी में गायन मण्डप

तानसेन या रामतनु हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के एक महान ज्ञाता थे।[1] उन्हे सम्राट अकबर के नवरत्नों में भी गिना जाता है।

संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिद्ध है कि यहाँ बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुढ़कते हैं तो ताल में। इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढ़कर एक संगीत प्रतिभाएं संसार को दी हैं और संगीतकार सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपरि हैं।[2]

तानसेन के बारे में तथ्यों और कल्पना को मिलाकर अनेक किंवदंतियाँ लिखी गई हैं और इन कहानियों की ऐतिहासिकता संदिग्ध है।[3] अकबर ने उन्हें नवरत्नों के नौ मंत्रियों (नौ रत्नों) में से एक माना और उन्हें मियां की उपाधि दी, जो एक सम्मानजनक, जिसका अर्थ विद्वान व्यक्ति था।[4]

तानसेन एक संगीतकार, संगीतज्ञ और गायक थे, जिनकी भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी क्षेत्रों में कई रचनाओं का श्रेय दिया जाता है। वह एक वाद्ययंत्र वादक भी थे जिन्होंने संगीत वाद्ययंत्रों को लोकप्रिय बनाया और उनमें सुधार किया। वह भारतीय शास्त्रीय संगीत की उत्तर भारतीय परंपरा, जिसे हिंदुस्तानी कहा जाता है, के सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्वों में से एक हैं। संगीत और रचनाओं में उनके 16वीं सदी के अध्ययन ने कई लोगों को प्रेरित किया, और कई उत्तर भारतीय घराने (क्षेत्रीय संगीत विद्यालय) उन्हें अपने वंश का संस्थापक मानते हैं।[5][6]

तानसेन को उनकी महाकाव्य ध्रुपद रचनाओं, कई नए रागों के निर्माण के साथ-साथ संगीत पर दो क्लासिक किताबें, श्री गणेश स्तोत्र और संगीत सारा लिखने के लिए याद किया जाता है।[7]

प्रारंभिक जीवन

तानसेन की जन्मतिथि और जन्म स्थान स्पष्ट नहीं है, लेकिन अधिकांश स्रोत उनका जन्म लगभग 1532 ई.के आस-पास बताते हैं। उनकी जीवनी भी अस्पष्ट है और कुछ सामान्य तत्वों के साथ कई परस्पर विरोधी विवरण मौजूद हैं। तानसेन के बारे में व्यापक और विरोधाभासी किंवदंतियों से उनके बारे में ऐतिहासिक तथ्य निकालना मुश्किल है।[8]

विभिन्न कहानियों में सामान्य तत्वों के अनुसार, बचपन में तानसेन का नाम रामतनु था।[9] उनके पिता मुकुंद राम (जिन्हें मुकुंद पांडे या मुकुंद मिश्रा के नाम से भी जाना जाता है)[10] एक धनी कवि और कुशल संगीतकार थे, जो कुछ समय के लिए वाराणसी में एक हिंदू मंदिर के पुजारी थे।[9]

तानसेन ने आधुनिक मध्य प्रदेश के ग्वालियर के आसपास के क्षेत्र में अपनी कला सीखी और उसमें निपुणता हासिल की। उन्होंने अपना करियर शुरू किया और अपना अधिकांश वयस्क जीवन रीवा के हिंदू राजा, राजा रामचंद्र सिंह के दरबार और संरक्षण में बिताया, जहां तानसेन की संगीत क्षमताओं और अध्ययन ने उन्हें व्यापक प्रसिद्धि और अनुयायी प्राप्त कराए।[1] वह राजा रामचन्द्र सिंह के करीबी विश्वासपात्र थे और वे मिलकर संगीत बनाते थे। तानसेन की प्रतिष्ठा ने उन्हें मुगल सम्राट अकबर का ध्यान आकर्षित किया, जिन्होंने राजा रामचन्द्र सिंह के पास दूत भेजकर तानसेन को मुगल दरबार में संगीतकारों के साथ शामिल होने का अनुरोध किया। तानसेन ने शुरू में जाने से इनकार कर दिया और एकांत में चले जाना चाहा, लेकिन राजा रामचन्द्र सिंह ने उन्हें अकबर के दरबार में भेज दिया। 1562 में, लगभग साठ वर्ष की आयु में, तानसेन, जो अभी भी एक वैष्णव संगीतकार थे, पहली बार अकबर के दरबार में आये।[11]

जैसा कि हम आज जानते हैं, हिंदुस्तानी शास्त्रीय लोकाचार के निर्माण में तानसेन का प्रभाव केंद्रीय था। कई वंशज और शिष्य उन्हें अपने वंश का संस्थापक मानते हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के कई घराने उनके वंश से कुछ संबंध होने का दावा करते हैं। इन घरानों के लिए, तानसेन हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के संस्थापक हैं।[12]

वैवाहिक जीवन

तानसेन ने एक हुसैनी से शादी की, इस शादी से उनके चार बेटे और एक बेटी हुई: सूरत सेन, शरत सेन, तरंग खान, बिलास खान और सरस्वती। सभी पांचों अपने आप में कुशल संगीतकार बन गए, और सरस्वती ने सिंघलगढ़ के मिश्रा सिंह से शादी की, जो एक प्रसिद्ध वीणा-वादक थे।[13] एक किंवदंती में कहा गया है कि तानसेन की शादी अकबर की मेहरुनिसा नाम की बेटी से भी हुई थी।[14]

शिक्षा दीक्षा

तानसेन के प्रारंभिक जीवन और स्कूली शिक्षा के बारे में पौराणिक मौखिक संस्करण विशेष रूप से इस बात पर निर्भर करते हैं कि कहानी की उत्पत्ति हिंदू किंवदंतियों (वैष्णववाद) या मुस्लिम किंवदंतियों (सूफीवाद) में हुई है।[8] हिंदू संस्करणों में, हिंदू भक्ति संत और कवि-संगीतकार स्वामी हरिदास का तानसेन पर प्रमुख प्रभाव था। इस्लामिक जीवनियों में कहा जाता है कि मुहम्मद गौस नामक सूफी मुस्लिम फकीर ने तानसेन को प्रभावित किया था। बोनी वेड, दक्षिण एशिया अध्ययन में विशेषज्ञता वाले संगीत के प्रोफेसर, के अनुसार स्वामी हरिदास को तानसेन के शिक्षक के रूप में व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है, और यह स्पष्ट है कि तानसेन मुहम्मद गौस से भी जुड़े थे, लेकिन सबूत बताते हैं कि तानसेन किसी भी धर्म से कम, संगीत के साथ अधिक संबद्ध थे।[8]

तानसेन ने 6 साल की उम्र से ही संगीत प्रतिभा दिखाना शुरू कर दिया। वह कुछ समय के लिए स्वामी हरिदास के शिष्य रहे, जो कि वृन्दावन के प्रसिद्ध संगीतकार और राजा मान सिंह तोमर (1486-1516 ईस्वी) के शानदार ग्वालियर दरबार के सदस्य थे, जो गायन की ध्रुपद शैली में विशेषज्ञता रखते थे। उनकी प्रतिभा को पहले ही पहचान लिया गया था और ग्वालियर के शासक ने ही उस्ताद को सम्मानजनक उपाधि 'तानसेन' से सम्मानित किया था। हरिदास उस समय के एक महान शिक्षक माने जाते थे। ऐसा कहा जाता है कि तानसेन का अपने गुरु के अलावा कोई समकक्ष नहीं था। हरिदास से तानसेन को न केवल ध्रुपद के प्रति प्रेम बल्कि स्थानीय भाषा की रचनाओं में भी रुचि प्राप्त हुई। यह वह समय था जब भक्ति परंपरा संस्कृत से स्थानीय मुहावरे (ब्रजभाषा और हिंदी) की ओर बदलाव को बढ़ावा दे रही थी, और तानसेन की रचनाओं ने भी इस प्रवृत्ति को उजागर किया था। उनकी प्रशिक्षुता के दौरान, तानसेन के पिता की मृत्यु हो गई, और वह घर लौट आए, जहां ऐसा कहा जाता है कि वह एक स्थानीय शिव मंदिर में गाते थे।[]

जीवनी में उल्लेख है कि तानसेन की मुलाकात सूफी फकीर मुहम्मद गौस से हुई थी। गौस के साथ बातचीत ने तानसेन पर एक मजबूत सूफी प्रभाव डाला।[15] बाद में अपने जीवन में, उन्होंने कृष्ण और शिव जैसे पारंपरिक रूपांकनों का आह्वान करते हुए ब्रजभाषा में रचना करना जारी रखा।[16]

अकबर के दरबार में तानसेन जैसे संगीतकारों की उपस्थिति मुगल साम्राज्य के भीतर हिंदू और मुस्लिम परंपराओं को स्वीकार करने और एकीकृत करने का एक प्रयास था।[17] तानसेन अकबर के दरबार के बहुमूल्य नवरत्नों (शाब्दिक नव=नौ, रत्न=रत्न) में से एक बन गए। उन्हें वहां सम्मानजनक उपाधि मियां और मियां तानसेन नाम मिला।

टोडरमल, अबुल फजल, फैजी और अब्दुर रहीम खान-ए-खाना के साथ सम्राट अकबर के दरबार में तानसेन, लगभग 16वीं शताब्दी

रचनायें

[]

तानसेन के नाम के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ का कहना है कि 'तानसेन' उनका नाम नहीं, उनकों मिली उपाधि थी। तानसेन मौलिक कलाकार थे। वे स्वर-ताल में गीतों की रचना भी करते थे। तानसेन के तीन ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है-

1. 'संगीतसार',

2. 'रागमाला'

3. 'श्रीगणेश स्तोत्र'।

भारतीय संगीत के इतिहास में ध्रुपदकार के रूप में तानसेन का नाम सदैव अमर रहेगा। इसके साथ ही ब्रजभाषा के पद साहित्य का संगीत के साथ जो अटूट सम्बन्ध रहा है, उसके सन्दर्भ में भी तानसेन चिरस्मरणीय रहेंगे।

संगीत सम्राट तानसेन अकबर के अनमोल नवरत्नों में से एक थे। अपनी संगीत कला के रत्न थे। इस कारण उनका बड़ा सम्मान था। संगीत गायन के बिना ‍अकबर का दरबार सूना रहता था। तानसेन के ताऊ बाबा रामदास उच्च कोटि के संगीतकार थे। वह वृंदावन के स्वामी हरिदास के शिष्य थे। उन्हीं की प्रेरणा से बालक तानसेन ने बचपन से ही संगीत की शिक्षा पाई। स्वामी हरिदास के पास तानसेन ने बारह वर्ष की आयु तक संगीत की शिक्षा पाई। वहीं उन्होंने साहित्य एवं संगीत शास्त्र की शिक्षा प्राप्त की।

संगीत की शिक्षा प्राप्त करके तानसेन देश यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने अनेक स्थानों की यात्रा की और वहाँ उन्हें संगीत-कला की प्रस्तुति पर बहुत प्रसिद्धि तो मिली, लेकिन गुजारे लायक धन की उपलब्धि नहीं हुई।

एक बार वह रीवा (मध्यप्रदेश) के राजा रामचंद्र के दरबार में गाने आए। उन्होंने तानसेन का नाम तो सुना था पर गायन नहीं सुना था। उस दिन तानसेन का गायन सुनकर राजा रामचंद्र मुग्ध हो गए। उसी दिन से तानसेन रीवा में ही रहने लगे और उन्हें राज गायक के रूप में हर तरह की आर्थिक सुविधा के साथ सामाजिक और राजनीतिक सम्मान दिया गया। तानसेन पचास वर्ष की आयु तक रीवा में रहे। इस अवधि में उन्होंने अपनी संगीत-साधना को मोहक और लालित्यपूर्ण बना लिया। हर ओर उनकी गायकी की प्रशंसा होने लगी।

अकबर के ही सलाहकार और नवरत्नों में से एक अब्दुल फजल ने तानसेन की संगीत की प्रशंसा में अकबर को चिट्ठीु लिखी और सुझाव दिया कि तानसेन को अकबरी-दरबार का नवरत्न होना चाहिए। अकबर तो कला-पारखी थे ही। ऐसे महान संगीतकार को रखकर अपने दरबार की शोभा बढ़ाने के लिए बेचैन हो उठे।

उन्होंने तानसेन को बुलावा भेजा और राजा रामचंद्र को पत्र लिखा। किंतु राजा रामचंद्र अपने दरबार के ऐसे कलारत्न को भेजने के लिए तैयार न हुए। बात बढ़ी और युद्ध तक पहुँच गई। और बहुत मान मनब्बल के बाद भी राजा रामचंद्र नहीं माने तो अकबर ने मुगलिया सल्तनत की एक छोटी से टुकड़ी तानसेन को जबरजस्ती लाने के लिए भेज दिया पर राजा राम चंद्र जूदेव और अकबर के सैनिको के बीच युद्ध हुआ और अकबर के सभी सैनिक मारे गए, इसमें रीवा राजा के भी कई सैनिक मारे गए  ! इससे अकबर क्रुद्ध होकर एक बड़ी सैनिक टुकड़ी भेजी  और रीवा के राजा फिर से युद्ध के लिए तैयार हुए तब तानसेन रीवा के राजा के पास पहुंचे और युद्ध न करने की अपील किया , पर राजा बहुत जिद्दी थे नहीं माने ! और अकबर के दरबार में संदेस भेज दिया की ''यदि बादशाह याचना पात्र भेजे तो मैं तानसेन को भेज दूंगा'' अकबर भी छोटी-छोटी सी बात पर राजपूतो से युद्ध नहीं करना चाहते थे ! तब अकबर ने याचना पात्र भेज दिया तब राजा रामचंद्र जूदेव ने सहर्ष, ससम्मान  तानसेन को दिल्ली भेज दिया और एक बड़ा युद्ध टल गया ! अकबर के दरबार में आकर तानसेन पहले तो खुश न थे लेकिन धीरे-धीरे अकबर के प्रेम ने तानसेन को अपने निकट ला दिया।

चाँद खाँ और सूरज खाँ स्वयं न गा सकें। आखिर मुकाबला शुरू हुआ। उसे सुनने वालों ने कहा 'यह गलत राग है।' तब तानसेन ने शास्त्रीय आधार पर उस राग की शुद्धता सिद्ध कर दी। शत्रु वर्ग शांत हो गया।

संगीत सम्राट तानसेन अकबर के अनमोल नवरत्नों में से एक थे। तानसेन को अपने दरबार में लाने के लिए अकबर की सेना और रीवा के बाघेला राजपूतो के बीच में भयानक युद्ध हुआ था ! अकबर के दरबार में तानसेन को नवरत्न की ख्यायति मिलने लगी थी। इस कारण उनके शत्रुओं की संख्यार भी बढ़ रही थी। कुछ दिनों बाद तानसेन का ठाकुर सन्मुख सिंह बीनकार से मुकाबला हुआ। वे बहुत ही मधुर बीन बजाते थे। दोनों में मुकाबला हुआ, किंतु सन्मुख सिंह बाजी हार गए। तानसेन ने भारतीय संगीत को बड़ा आदर दिलाया। उन्होंने कई राग-रागिनियों की भी रचना की। 'मियाँ की मल्हार' 'दरबारी कान्हड़ा' 'गूजरी टोड़ी' या 'मियाँ की टोड़ी' तानसेन की ही देन है। तानसेन कवि भी थे। उनकी काव्य कृतियों के नाम थे - 'रागमाला', 'संगीतसार' और 'गणेश स्रोत्र'। 'रागमाला' के आरंभ में दोहे दिए गए हैं।

सुर मुनि को परनायकरि, सुगम करौ संगीत।तानसेन वाणी सरस जान गान की प्रीत।

लोकप्रिय संस्कृति

तानसेन के जीवन पर कई हिंदी फ़िल्में बनी हैं, जिनमें अधिकतर कहानियाँ हैं। उनमें से कुछ हैं तानसेन (1943), रंजीत मूवीटोन द्वारा निर्मित एक संगीतमय हिट, जिसमें कुन्दन लाल सहगल और खुर्शीद बानो ने अभिनय किया था।[18] तानसेन (1958) और संगीत सम्राट तानसेन (1962)। ऐतिहासिक संगीतमय बैजू बावरा (1952) में तानसेन भी एक केंद्रीय पात्र हैं, हालांकि ज्यादातर पृष्ठभूमि में रहते हैं, जो उनके ही समकालीन के जीवन पर आधारित है।[]

चरित्र-चित्रण

तानसेन के पुराने चित्रों से उनके रूप-रंग की जानकारी मिलती है। तानसेन का रंग सांवला था। मूँछें पतली थीं। वह सफेद पगड़ी बाँधते थे। सफेद चोला पहनते थे। कमर में फेंटा बाँधते थे। ध्रुपद गाने में तानसेन की कोई बराबरी नहीं कर सकता था। तानसेन का देहावसान अस्सी वर्ष की आयु में हुआ। उनकी इच्छा थी कि उन्हें उनके गुरु मुहम्मद गौस खाँ की समाधि के पास दफनाया जाए। वहाँ आज उनकी समाधि पर हर साल तानसेन संगीत समारोह आयोजित होता है।

परंपरा

तानसेन को चित्रित करने वाला भारत का टिकट

तानसेन सम्मान

उनकी स्मृति के सम्मान में बेहट में तानसेन की कब्र के पास हर साल दिसंबर में एक राष्ट्रीय संगीत समारोह आयोजित किया जाता है, जिसे तानसेन समारोह के नाम से जाना जाता है। तानसेन सम्मान हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के प्रतिपादकों को दिया जाता है।

इमारतें

फ़तेहपुर सीकरी का किला अकबर के दरबार में तानसेन के कार्यकाल से दृढ़ता से जुड़ा हुआ है। सम्राट के कक्षों के पास, बीच में एक छोटे से द्वीप पर एक तालाब बनाया गया था, जहाँ संगीतमय प्रस्तुतियाँ दी जाती थीं। आज, यह टैंक, जिसे अनूप तलाओ कहा जाता है, सार्वजनिक दर्शक कक्ष दीवान-ए-आम के पास देखा जा सकता है - एक केंद्रीय मंच जहां चार फुटब्रिज के माध्यम से पहुंचा जा सकता है। ऐसा कहा जाता है कि तानसेन दिन के अलग-अलग समय पर अलग-अलग रागों का प्रदर्शन करते थे और सम्राट और उनके चुनिंदा श्रोता उन्हें सिक्कों से सम्मानित करते थे। तानसेन का कथित निवास भी पास में ही है।

क्रेटर

बुध ग्रह पर एक क्रेटर का नाम तानसेन के सम्मान में रखा गया है।[19]

चमत्कार और किंवदंतियाँ

अकबर दरबार के इतिहासकारों के लेखों और घराने के साहित्य में तानसेन की अधिकांश जीवनी असंगत और चमत्कारी किंवदंतियों से भरी हुई है।[4] तानसेन के बारे में किंवदंतियों में राग मेघ मल्हार के साथ बारिश लाने और राग दीपक का प्रदर्शन करके दीपक जलाने की कहानियां हैं।[20][21] राग मेघ मल्हार अभी भी मुख्यधारा के प्रदर्शनों की सूची में है, लेकिन राग दीपक अब ज्ञात नहीं है; बिलावल ठाट, पूर्वी थाट और खमाज ठाट में तीन अलग-अलग प्रकार मौजूद हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि कौन सा, यदि कोई हो, तानसेन के समय के दीपक से मेल खाता है। अन्य किंवदंतियाँ जंगली जानवरों को ध्यान से सुनने (या उनकी भाषा में बात करने) की उनकी क्षमता के बारे में बताती हैं। एक बार, एक जंगली सफेद हाथी को पकड़ लिया गया, लेकिन वह भयंकर था और उसे वश में नहीं किया जा सका। अंत में, तानसेन ने हाथी के लिए गाना गाया, जो शांत हो गया और सम्राट उस पर सवारी करने में सक्षम हो गए।[]

राग दीपक

एक दिन जलने वालों ने तानसेन के विनाश की योजना बना डाली। इन सबने बादशाह अकबर से तानसेन से 'दीपक' राग गवाए जाने की प्रार्थना की। अकबर को बताया गया कि इस राग को तानसेन के अलावा और कोई ठीक-ठीक नहीं गा सकता। बादशाह राज़ी हो गए, और तानसेन को दीपक राग गाने की आज्ञा दी। तानसेन ने इस राग का अनिष्टकारक परिणाम बताए बिना ही राग गाने से मना कर दिया, फिर भी अकबर का राजहठ नहीं टला, और तानसेन को दीपक राग गाना ही पड़ा। दीपक राग गाने से जब तानसेन के अंदर अग्नि राग भी शुरू हुआ, गर्मी बढ़ी व धीरे-धीरे वायुमंडल अग्निमय हो गया। सुनने वाले अपने-अपने प्राण बचाने को इधर-उधर छिप गए, किंतु तानसेन का शरीर अग्नि की ज्वाला से दहक उठा। ऐसी हालत में तानसेन वडनगर पहुंचे, वहाँ भक्त कवि नरसिह मेहता कि बेटि कुवरबाई कि बेटि शर्मिष्ठा कि बेटियों ताना-रिरि ने मल्हार राग गाकर उनके जीवन की रक्षा की। इस घटना के कई महीनों बाद तानसेन का शरीर स्वस्थ हुआ। शरीर के अंदर ज्वर बैठ गया था। आखिरकार वह ज्वर फिर उभर आया, और फ़रवरी, 1586 में इसी ज्वर ने उनकी जान ले ली।[]

अकबर और स्वामी हरिदास

एक बार अकबर ने उनसे कहा कि वो उनके गुरु का संगीत सुनना चाहते हैं। गुरु हरिदास तो अकबर के दरबार में आ नहीं सकते थे। लिहाजा इसी निधि वन में अकबर हरिदास का संगीत सुनने आए। हरिदास ने उन्हें कृष्ण भक्ति के कुछ भजन सुनाए थे। अकबर हरिदास से इतने प्रभावित हुए कि वापस जाकर उन्होंने तानसेन से अकेले में कहा कि आप तो अपने गुरु की तुलना में कहीं आस-पास भी नहीं है। फिर तानसेन ने जवाब दिया, "जहांपनाह! हम इस ज़मीन के बादशाह के लिए गाते हैं और हमारे गुरु इस ब्रह्मांड के बादशाह के लिए गाते हैं तो फर्क तो होगा न।"[]

मृत्यु

तानसेन की मृत्यु का वर्ष, उनकी अधिकांश जीवनी की तरह, अस्पष्ट है। इस्लामी इतिहासकारों द्वारा लिखित एक संस्करण के अनुसार, तानसेन की मृत्यु 1586 में दिल्ली में हुई थी, और अकबर और उनके दरबार के अधिकांश लोग अंतिम संस्कार जुलूस में शामिल हुए थे, जो मुस्लिम रीति-रिवाजों के अनुसार पूरा हुआ था।[9][22] हिंदू इतिहासकारों द्वारा लिखे गए अन्य संस्करणों के साथ-साथ अबुल फज़ल द्वारा लिखित अकबरनामा में उनकी मृत्यु की तारीख 26 अप्रैल 1589 बताई गई है और कहा गया है कि उनके अंतिम संस्कार में ज्यादातर हिंदू रीति-रिवाजों का पालन किया गया था।[23][24] तानसेन के अवशेषों को ग्वालियर में उनके सूफी गुरु शेख मुहम्मद गौस के मकबरे परिसर में दफनाया गया था। हर साल दिसंबर में, तानसेन को मनाने के लिए ग्वालियर में एक वार्षिक उत्सव, तानसेन समारोह आयोजित किया जाता है।[25]

सन्दर्भ

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  2. Stuart Cary Welch; Metropolitan Museum of Art (1985). India: Art and culture, 1300-1900. Metropolitan Museum of Art. पपृ॰ 171–172. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-03-006114-1. मूल से 13 दिसंबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 जुलाई 2020.
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  4. Davar, Ashok (1987). Tansen – The Magical Musician. India: National book trust.
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  14. Dhar, Sunita (1989). Senia Gharana, Its Contribution to Indian Classical Music. Reliance Publishing House. पृ॰ 24. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-85047-49-2.
  15. Wade, Bonnie C. (1998). Imaging Sound : An Ethnomusicological Study of Music, Art, and Culture in Mughal India. University of Chicago Press. पपृ॰ 113–114. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-226-86840-0.
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  18. Nettl, Bruno; Arnold, Alison (2000). The Garland Encyclopedia of World Music: South Asia : the Indian subcontinent. Taylor & Francis. पृ॰ 525. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-8240-4946-1.
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  20. George Ruckert; Ali Akbar Khan (1998). The Classical Music of North India: The first years study. Munshiram Manoharlal. पृ॰ 270. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-215-0872-8.
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  23. Bonnie C. Wade (1998). Imaging Sound: An Ethnomusicological Study of Music, Art, and Culture in Mughal India. University of Chicago Press. पृ॰ 115. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-226-86840-0.
  24. Fazl, Abul. Akbarnama. Beveridge, Henry द्वारा अनूदित. Asiatic Society of Bengal. पृ॰ 816.
  25. "Strains of a raga ... iun Gwalior". The Hindu. 11 January 2004. मूल से 30 September 2004 को पुरालेखित.

देखें

सहायक ग्रन्थ

१ संगीतसम्राट तानसेन (जीवनी और रचनाएँ): प्रभुदयाल मीतल, साहित्य संस्थान, मथुरा;

२ हिन्दी साहित्य का इतिहास: पं॰ रामचन्द्र शुक्ल:

३ अकबरी दरबार के हिन्दी कबि: डा॰ सरयू प्रसाद अग्रवाल।)