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ढोर

ढोर (cattle) उस पशुवर्ग में आते हैं जिनके खुर होते हैं और प्रत्येक खुर आगे से मध्य भाग में फटा होता है। यह द्विखुरीयगण के अंतर्गत एक कुल है। अधिकांश ढोरों के सींग होते हैं, जो खोपड़ी के किनारों के ही बढ़े हुए हिस्से होते हैं। इनके ऊपरी जबड़े के अंत में दाँत नहीं होते। इस जाति के पालतु पशु जैसे गाय, बैल, भैंस तथा जंगली पशु जैसे बहुसिंगे आदि जुगाली करते हैं।

इतिहास

ऐसा उल्लेख मिलता है कि 3,500 ई0पू0 मिस्र में ढोर पाले जाते थे। खेतीबारी के कार्यो में इन ढोरों में से साँड़ का उपयोग सर्वप्रथम किया गया। पुरानूतन युग (Palaeocene period) में भी भारत और यूरोप के ढोरों की जातियों का पता है। भारत में ककुद या डिल्लेवाले गाय बैल और यूरोप में बिना डिल्लेवाले पाए जाते थे। भारत के गाय बैलों में आंग्ल नस्ल का उल्लेख विशेष रूप से है। कांस्य युग में विशेष रूप से बड़ी जाति के साँड़ थे, जो यूरोपीय जंगली साँड़ों से प्राय: मिलते-जुलते थे।

फ्रांसीसी वैज्ञानिकों के अनुसार अंग्रेजी शब्द कैटिल (Cattle) फ्रेंच शब्द कैटल (Catel) से निकला है, जो लैटिन शब्द कैपटेल (Captale) से व्युत्पन्न है और जिसका तात्पर्य धन अथवा संपत्ति है। लिनियस ने लैटिन में गाय जाति के पशुओं के लिये बॉसटॉरस (Bostaurus) शब्द का प्रयोग किया है। टॉरस का मतलब लैटिन में साँड़ से है।

रोमन आक्रमण के समय इंग्लैंड में ढोरों की चर्चा मिलती है। अंग्रेजी शब्द कैटिल (Cattle) का प्रयोग साधारण रूप से उन पशुओं के लिये किया गया जिसका संबंध केवल गाय या साँड़ से था, यद्यपि कभी कभी इस शब्द का प्रयोग आर्थिक उपयोगिता के सभी पशुओं के लिये किया गया है।

वर्गीकरण

प्राणिविज्ञान संबंधी दृष्टि से ढोर खुरवाले पशुवर्ग, अंग्युलेटा (ungulata), के अंतर्गत आते हैं। विशेषकर ढोर (Cattle) उपवर्ग फटे हुए खुर (Cloven hoof) समुदाय में आते हैं।

ढोरों को पालतू बनाने का विचार मनुष्य जाति में उनकी उत्पादनशक्ति को देखकर पैदा हुआ। यद्यपि निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि मनुष्य ने ढोरों को कब से पालतू बनाया, तथापि अनुमान है कि कृषि का किंचित विकास हो जाने पर ही ढोरों को पालतू बनाने की आवश्यकता हुई होगी। अत: मानव इनको आर्थिक दृष्टि से पालने लगा और उसमें पशुओं के प्रति स्नेह तथा देखभाल की रुचि इनकी उपयोगिता के कारण दिनों दिन बढ़ती गई। नर पशु से खेती बारी आदि का काम लिया गया और मादा से दूध मिलने लगा। मादा वंश की इसी उपयोगिता को देखकर गाय को गोमाता का स्थान प्राप्त हुआ। आधुनिक युग में इनकी उपयोगिता और भी बढ़ी और व्यवसाय क्षेत्र में इनसे उत्पादित वस्तुओं की माँग दिनो दिन बढ़ने लगी, जिससे इनकी देखभाल के संबंध में वैज्ञानिक पत्द्धतियों का उपयोग किया जाने लगा। ढोर शब्द के अंतर्गत अनेक किस्म के पशुओं का विवरण मिलता है। इस कोटि में परिगणित पशुओं का विभाजन सामान्यत: प्राणिविज्ञान संबंधी दृष्टि से निम्नलिखित छह भागों में किया गया है:

  • 1. भैंस, अफ्रीका, फिलिपाइन्स, मिस्र तथा इराक में,
  • 2. बिसन, यूरोप तथा उत्तरी अमरीका में,
  • 6. यूरोपीय पालतू ढोर।

उपर्युक्त पशुओं में से भारत की भैंस, याक और गवल बहुत दिनों से पालतू किए जा चुके हैं। ये सब जातियाँ एक दूसरे से काफी मिलती जुलती हैं। इनमें से भैंस जाति को छोड़कर अन्य जातियों में एक दूसरे से संतान उत्पन्न हो सकती है। इनकी वर्णसंकर संतान पशुप्रजनन के काम में बहुत उपयोगी होती है।

इस जाति के पशुओं में बड़े या छोटे सींग साधारणतया देखने में आते हैं। मुँह के अन्दर ऊपरी जबड़े के अगले कर्तन दंत बिल्कुल नहीं होते। उनके स्थान पर मांस की मोटी गद्दी (Dental pad) होती है। पशु चरते समय घास को दाँतों और ऊपरी गद्दी के बीच में पकड़कर तोड़ता है। इनमें चार भागों में विभाजित संयुक्त आमाशय (compound stomach) होता है, जो उदरगुहा के लगभग तीन चौथाई भाग को घेरे रहता है; यहाँ तक कि इसका विस्तार बड़े पशुओं में 60 गैलन के लगभग होता है। खाना निगले जाने के बाद आमाशय के बड़े प्रथम भाग, रूमेन (rumen) में, आ जाता है, जहाँ यह भीगकर नरम तथा मुलायम हो जाता है। जो खाना, मात्रा में अधिक होने लगता है, वह यहाँ से पेट के सबसे छोटे द्वितीय भाग, रेटिकुलम (reticulum), में आ जाता है। यहीं पर मांस के सिकुड़ने की क्रिया चलती है, जिसके कारण चारे का थोड़ा थोड़ा भाग मुँह के अंदर फिर वापस आता रहता है। पशु उस वापस आए हुए थोड़े थोड़े चारे को फिर से चबाता है और इसके साथ पागुर करनेवाली क्रिया भी होती रहती है। इसी कारण इन पशुओं को जुगाली करनेवाला चौपाया (ruminants) कहते हैं। यह जुगाली की क्रिया शांति और विश्राम की दशा में होती है। चबाने का यह काम लगभग एक मिनट तक चलता है, तत्पश्चात् खाना फिर से निगलकर आमाशय के तृतीय भाग, ओमेसम (omasum), में आ जाता है। यहाँ से फिर खाना अमाशय के चतुर्थ भाग, एबोमेसम् (abomasum), अर्थात् वास्तविक आमाशय में पहुँचता है। यहीं से वास्तविक पाचनक्रिया प्रारंभ हाती है।

प्रमुख ढोर

ढोर संसार के प्रत्येक राष्ट्र और देश में पाए जाते हैं। पालतू ढोर वैज्ञानिक तरीकों से दिनोंदिन नस्ल, गुण एवं उत्पादन में प्रगति कर रहा है। ढोरों के नाम उनकी आयु, लिंग प्राप्तिस्थान आदि को ध्यान में रखकर दिए गए हैं। ढोरों के कुछ वर्गीकरण निम्नलिखित हैं:

बछड़ा - जन्म के बाद से 6-9 माह तक की आयु के गौ नर को कहते हैं।

बछिया - बछिया जन्म के बाद से 6-9 माह की आयु तक की गौ मादा को कहते है।

बैल - बधिया किया हुआ प्रौढ़ नर बछड़ा बैल कहलाता है। साधारणतया इसका उपयोग जुताई और सामान ढोने के लिये किया जाता है।

कलोर - कलोर को ओसर भी कहते हैं। यह वह बछिया है, जो एक साल से ऊपर आयु की हो और जिसकी पहली ब्यान ही हुई हो।

गाय - वह वयस्क कलोर या ओसर है, जो बच्चा देना और दूध पिलाना आरंभ कर चुकी हो।

साँड़ - वह प्रौढ़ बछड़ा है, जो प्रजनन के योग्य और बिना बधिया किया हुआ होता है।

भैंस - यह पालतू मादा दुधा डिग्री ढोर है, जो रंग में काली, भूरी एवं ताँबिया होती है। इसके ललरी नहीं होती एवं यह स्वभाव से ढीलीढाली होती है। प्रौढ़ पड़िया पहिली ब्यान के बाद ही भैंस कहलाती है।

भैंसा (साँड़) - वह प्रौढ़ कटरा (पाड़ा) है, जो प्रजनन के योग्य और बिना वधिया किया हुआ होता है।

भैंसा - वह प्रौढ़ कटरा (पाड़ा) है जो बधिया किया हुआ या बिना बधिया किया हुआ हो। आम तौर से इसका प्रयोग जोतने और सामान ढोने के लिये किया जाता है।

पाड़ा - जनम के बाद से 6-9 माह तक की आयु के नर भैंस को कहते हैं।

पड़िया - जन्म के बाद से 6-9 माह तक की आयु की मादा भैंस को कहते हैं।

नस्लें

दुनिया में भारत के अतिरिक्त ढोर की 15 नस्लें मिलती हैं। भारत एवं पाकिस्तान में ढोर की नस्लें 44 के लगभग हैं, जिनमें 12 नस्लें भैंस की भी शामिल हैं। आम तौर से नस्लों का विभाजन तीन भागों में किया गा है। इनके सिवाय विदेशों में मांस के लिये ढोर की नस्ल होती है। इस प्रथा के लिये भारत में उत्साह नहीं है और न प्रगति ही दिखाई गई है।

  • 1. डेयरी की नस्ल ढोर की वे नस्लें हैं जिनकी गाय दूध बहुत अधिक देती है और जिनका नर पशु हलका परिश्रमी होता है, जैसे साहीवाल, सिंघी, जरसी और आयरशायर।
  • 2. जोड़ी काम की नस्ल ढोर की वे नस्लें हैं जिनका गाय दूध देने में अच्छी होती है तथा नर भी अधिक परिश्रमी होता है। उदाहरण, हरियाना, थरपारकर, शॉर्ट हॉर्न तथा रेड पोल।
  • 3. भार ढोने की नस्ल ढोर की वे नस्लें हैं जिनका नर पशु कठिन से कठिन परिश्रम कर सकता है और मादा पशु दुधा डिग्री नहीं होती; उदाहरणार्थ नागौर, अमृतमहल।

साहीवाल

यह मुख्यत: दुधा डिग्री नस्ल है, जो दूध के व्यवसाय के लिये पाली जाती है। इस जाति के पशुओं का रंग अधिकतर लाल होता है। शरीर साधारणत: लंबा और मांसल होता है। इनकी टाँगे छोटी होती है, स्वभाव कुछ आलसी और खाल चिकनी होती है। इस जाति के बैल हलकी मेहनत कर सकते हैं। भारत के दुधा डिग्री पशुओं में इस जाति का विशेष महत्व है। गाय एक ब्यान में 10,000 पाउंड तक दूध देती है। इस जाति की गाएँ प्रतापगढ़ में वेंटी फार्म, लखनऊ के सरकारी डेयरी फार्म चक-गंजरिया, कानपुर कृषि कालेज और मिलिटरी डेयरी फार्म, मेरठ तथा गोरखपुर में रखी गई हैं। विभाजन के बाद भारत में इस जाति के पशु बहुत कम रह गए हैं। और अब इनके उचित प्रजनन और विकास के लिये यथेष्ट प्रयत्न किया जा रहा है।

हरियाना

इस जाति के पशु पंजाब के रोहतक, हिसार, करनाल तथा बुड़गाँव जिले एवं देहली के कुछ खास भागों में पाए जाते हैं। उत्तर प्रदेश में इस जाति के अच्छे जानवर मेरठ, मुजफ्फरनगर तथा अलीगढ़ जिलों में पाए जाते हैं। हरियाना जाति के बैल मेहनत का काम करने के लिये सबसे अच्छे होते है। विशेषकर जुताई करने और गाड़ी खींचने के लिये ये बैल अत्यंत उपयुक्त होते हैं। इस जाति के पशु सफेद या धूसर रंग के होते हैं। शरीर औसत आकार का तथा गठा हुआ होता है और भिन्न भिन्न जलवायु सहन कर सकता है। सिर उठा हुआ होता है, मुँह लंबा और सँकरा हाता है। मस्तक की हड्डी बीच में उठी हुई होती है, जो इस जाति की शुद्धता की पहचान है। सींग की लंबाई 10 से लेकर 12 इंच तक होती है। बैल के सींग गाय के सींग से बड़े होते हैं। यह जाति दूध और परिश्रम दोनों कार्यो के लिये उपयागी है, इसीलिये उत्तर प्रदेश तथा बंगाल में स्थानीय पशुओं के सुधार के लिये इस जाति को रखा गया है। औसत रूप से इस जाति की एक गाय ने 300 दिन के एक ब्यान में 3,500 पाउंड दूध दिया और 15 महीनों के अंतर से बच्चे दिए।

सिंधि

इस दुधा डिग्री जाति के पशु अधिकतर हलके लाल रंग के होते हैं। भार के दुधा डिग्री पशुओं में इस जाति का विशेष स्थान है। गाय एक ब्यान में 9,000 पाउंड दूध देती है। इस जाति के पशु बहुत शीध्र किसी भी स्थान के जलवायु के अनुकूल हो जाते हैं। अत: देश के अन्य ऐसे भागों में इस जाति को रखा जा रहा है जहाँ उचित प्रजनन और चारे दाने की कमी के कारण अधिक संख्या में पशुओं को नहीं रखा जा सकता। इस जाति के साँड़ अल्मोड़ा, गढ़वाल तथा देहरादून जिले के ऊपरी भागों में और मिर्जापुर तथा इलाहाबाद की कुछ तहसीलों में बाँटे जा रहे हैं।

थरपारकर

इस जाति के बैल हलके मेहनती तथा गाएँ दुधा डिग्री होती है। मझोले कद के ये पशु सफेद तथा धूसर रंग के होते हैं। दुधारूँ गाएँ तथा अच्छे बैल होने के कारण इस जाति के पशुओं को कई सरकारी फार्मो में रखा गया है और ये स्थानीय पशुओं की नस्ल सुधारने के लिये बड़े उपयागी सिद्ध हो रहे हैं। गाय एक दिन में करीब करीब 7क्ष्क्ष् सेर दूध देती है। पशु सहनशील हाते हैं और इन्हें रखने में अधिक खर्चा भी नहीं होता,

अत: इन्हें कहीं भी आसानी से रखा जा सकता है। संप्रति इन्हें भरारी फार्म (झाँसी) में बाँटने के लिये रखा गया है। इस जाति के पशु सिंध के पश्चिमी भागों में तथा भारत के कच्छ, जोधपुर तथा जैसलमेर राज्यों में हैं।

कनकथा

इस जाति की गाय अधिक दुधा डिग्री नहीं होती। बुंदेलखंड तथा बाँदा की यह जाति बैलगाड़ी खींचने तथा खेती के हलके काम के लिये उपर्युक्त है। पशुओं का रंग धूसर होता है,। इस जाति के पशु झाँसी जिले के पशु-प्रजनन-फार्म, सईदपुर, में रखे गए हैं। बैल 20 वर्ष तक कार्य करने योग्य रहते हैं। इस जाति के पशुओं के पैर पथरीली भूमि में काम करने के लिये बहुत मजबूत होते हैं।

खेरीगढ़

यह खीरी जिले के खेरीगढ़ परगना में पाई जानेवाली मेहनती जाति है। ये पशु अधिकतर सफेद होते हैं। चेहरा छोटा ओर सँकरा होता है। इस जाति के पशु सदैव क्रियाशील रहते हैं। खुला रहकर चरना इनहें विशेष प्रिय है। तराई क्षेत्र के लिये इस जाति के पशु अत्यंत उपयुक्त हैं। इस जाति के कुछ शुद्धवंशीय पशु मँझरा सरकारी फार्म पर रखे गए हैं।

पवाँर

इस जाति के पशु पीलीभीत जिले के पूरनपुर तथा खीरी जिले के पश्चिमी भागों में पाए जाते हैं। ये अधिकतर सफेद या काले रंग के होते हैं। इन शुद्धवंशीय पशुओं का मुँह छोटा और सँकरा होता है। कान छोटे हाते हैं। सींगें लंबे और सीधे होते हैं। इस जाति के औसत साँड़ की लंबाई 50 इंच और गाय की लंबाई 45 इंच होती है। ये पशु अधिकतर मरकहे होते हैं। इन्हें भी खुला रहकर चरना प्रिय होता है। पाँच वर्ष में पशु वयस्क होते हैं। गाय अधिक दूध नहीं देती। हेमपुर सरकारी फार्म में इस जाति के पशु रखे गए हैं।

गंगातीरी

इस जाति के पशु अधिकतर गंगा और घाघरा नदियों के बीच के भूभाग में, बलिया जिले में तथा गाजीपुर और बनारस जिलों के आस पास मिलते हैं। इन पशुओं का रंग सफेद और धूसर होता है। मझोले कद के इन पशुओं की लंबाई 50 इंच और वजन 600 से 700 पाउंड तक होता है। इस जाति की गाएँ औसत 10 पाउंड दूध प्रति दिन देती है और अधिक से अधिक दूध देनेवाली गाय 24 पाउंड प्रतिदिन देती है। इस जाति के बैल भी परिश्रम का काम करने के लिये अच्छे होते हैं।

अंगोल

इसको नेलोर भी कहते हैं। इस जाति के पशु अंगोल, गंतर, विनुकोंदा और कंदुकर ताल्लुकों में पाए जाते हैं। इन्हें आम तौर से कृषक ही पालते हैं। इस जाति के पशु बड़े तथा वजन में 950-1,500 पाउंड तक के होते हैं। इनके पैर लंबे तथा डील बहुत उभरा हुआ होता है। इनका रंग सफेद होता है। इस जाति के पशु दूध देने और कठिन काम में निपुण होते हैं। बैल चलने में बहुत ही तेज होता है। गाय दुग्धकाल में औसत 3,500 पाउंड दूध देती है।

अमृतमहल

इस जाति के पशु मैसूर में पाए जाते हैं। इनके चेहरे एवं ललरी पर सफेद धब्बे होते हैं। गर्दन, डील आदि भूरे रंग के होते हैं। इस जाति के पशुओं के सींग लंबे और पीछे की ओर सीधे खड़े रहते हैं। सींग का आखिरी भाग बहुत नुकीला होता है। इस जाति का नर पशु बहुत मेहनती होता है। मादा पशु दूध बहुत कम मात्रा में देती है।

मुर्रा

दक्षिणी पंजाब तथा दिल्ली प्रदेश, उत्तर प्रदेश के उत्तरी भाग तथा सिंध में इस जाति के अच्छे पशु मिलते हैं। उत्तर प्रदेश के उत्तरी भाग तथा सिंध में इसका पालन विशेष रूप से घी और दूध के व्यवसाय के लिये किया जाता है। इस जाति की भैंस बहुत दुधा डिग्री होती है तथा इसके दूध में घृतांश अधिक होता है। एक ब्यान में यह 2,000 से लेकर 5,000 सेर तक दूध देती हैं। इनका रंग अधिकतर काला होता है और मुँह, पैर तथा सिर पर सफेद धब्बे होते हैं। शरीर गठा हुआ तथा भारी होता है। पीठ छोटी तथा चौड़ी होती है। पिछला भाग चौड़ा होता है। सिर और गर्दन छोटे होते हैं। सींगें छोटी तथा घुमावदार हेती हैं। पैर छोटे और मजबूत हाते हैं। पूँछ छोटी होती है। इस जाति के साँड़ों का प्रजनन बाबूगढ़ (मेरठ), माधुरीकुंड (मथुरा), वेटरिनेरी कालेज, मथुरा, तथा लखनऊ के सरकारी फार्मो पर किया जा रहा है। इस जाति के साँड़ कुछ स्थानों को छोड़कर सारे प्रदेश की स्थानीय जाति के पशुओं (भैंस) की उन्नति के लिये स्वीकृत किए गए हैं।

भदावरी

आगरा तथा इटावा जिले के जमुना एवं चंबल के कछारों में इस जाति के अच्छे पशु मिलते हैं। मंझोले कद की इन भैंसों का रंग ताँबे जैसा होता है और शरीर पर बाल कम होते हैं। ये प्रति दिन लगभग 7 पाउंड दूध देती है, पर दूध में घी की मात्रा 13 प्रतिशत तक होती है। अत: ये दुग्ध उद्योग के उपयुक्त होती है। इस जाति की भैंसें मेहनती होती हैं और अन्य जातियो की भैंसों की अपेक्षा गर्मी अधिक सह सकती है।

तराई

यह जाति तराईवाले स्थानों में, विशेषकर टनकपुर और रामनगर में, पाई जाती हैं। यह अधिकतर खुली रहकर जंगलों में अपना निर्वाह करती है। यह जाति तराई की जलवायु अच्छी तरह सह सकती है। भैंस 4-6 पाउंड दूध रोजाना देती है। भैंसा कठिन से कठिन काम कर सकता है।

नीली

ये पंजाब में रावी के पश्चिमी भाग में पाई जाती हैं। इनका कद तथा भार मुर्रा से अधिक होता है। इनका माथा सुडौल होता है। इस जाति के पशुओं के पैर एवं पूँछ अवश्य भूरी होती हैं। नीली भैंस मुर्रा से भी खूबसूरत और दुधा डिग्री होती है। इसका वजन 1,000 से 1,300 पाउंड तक होती है। 250 दिन के दुग्धकाल में यह औसत 3,500 पाउंड दूध देती है।

गाय की विदेशी नस्लें

इनमें से कुछ निम्नलिखित है:

जरसी

यह जाति इंग्लिश चैनल के जरसी नामक द्वीप से निकली है। फिलिप फाली ने 1734 ई0 में जरसी का उल्लेख किया था। रंग हल्का लाल होता है। शरीर पर बिखरे सफेद धब्बे जहाँ तहाँ होते हैं। कुछ का रंग काला या क्रीम का सा हो सकता है। शरीर मझोला एवं गठा हुआ होता है। पूँछ का भाग आगे से चौड़ा होता है। गर्दन नाटी एवं पतली होती है पूँछ और कान लंबे होते हैं। इसके दूध में मक्खन औसत 5.25 प्रतिशत होता है। अच्छी गाएँ एक दुग्धकाल में 10,752 से लेकर 23,677 पाउंड तक दूध देती हैं। दुग्धकाल 350-356 दिन तक का होता है।

आयरशायर

यह जाति सकॉटलैंड के आसपास पाई जाती है। यहाँ न अधिक ठंढ होती है और न अधिक गरमी। इस पशु के पैर छोटे होते हैं। यह लाल तथा सफेद रंग की चितकबरी होती है, या पूरे शरीर से लाल या सफेद होती है। इसको पालना बड़ा आसान होता है। साधारण आहार से इसका निर्वाह हो सकता है। अच्छी गाय एक ब्यान में 10,955 से 19,215 पाउंड तक दूध दे सकती है। इसका औसत वजन 1,015 से 1,400 पाउंड तक होता है। इसके दूध में मक्खन 4 प्रति शत के लगभग होता है। दुग्धकाल 305 दिन के लगभग होता है।

शॅर्टहॉर्न

यह जाति इंग्लैंड के यॉर्क, डूरहम आदि इलाकों में पाई जाती है। यॉर्कशायर में 1580 ई0 में इस जाति के पाए जाने का उल्लेख है। इस जाति के पशु बड़े डील डौल के हाते हैं। मादा पशु, मांसवाली नस्ल में, दूध देनेवाली गिनी जाति है तथा नर पशु मोंस इकट्ठा करने में निपुण होता है। 1,000-2.200 पाउंड तक होता है।

गर्नसी

गर्नसी द्वीप में इस नस्ल का जन्म हुआ। 17वीं शताब्दी के लगभग इस जाति के पशु इंग्लैंड में आए। अमरीका में इसकी बड़ी प्रतिष्ठा है। इसकी गायें 800 से 1,400 पाउंड तक भार की होती है। इस जाति का मस्तक बड़ा, गर्दन लंबी एवं पतली होती है। शरीर का रंग हलका पीला होता है। इसका दूध सुनहले रंग का होता है, जिसे उपभोक्ता बहुत पसंद करते हैं। गाय एक दुग्धकाल में 10,435 से 17,844 पाउंड तक दूध देती हैं। दूध में मक्खन औसतन 4.9 प्रतिशत तक होता है।

होल्सटाइन फ्रीज़ियन

यह हॉलैंड की जगत् प्रसिद्ध जाति है। इस जाति का प्राचीन उल्लेख कहीं नहीं मिलता। यह जाति अमरीका में बहुत पाली जाने लगी है। इसका रंग सफेद या काला होता है। सफेद एवं लाल रंग का पशु अमरीका में रजिस्टर नहीं होता। गया का औसत वजन 1,500 पाउंड तक तथा साँड़ का 2,200 से 2,400 पाउंड होता है। दूध में औसतन 3.45 प्रतिशत मक्खन होता है। इस जाति की गाय अधिक से अधिक 38, 607 पाउंड और कम से कम 15,004 पाउंड तक दूध देते रिकार्ड की गई हैं।

आश्रम

ढोरों को मकान में शरण देने का उद्देश्य उनकों धूप, वर्षा तथा खराब मौसम से सुरक्षित रखना है। इनके घर कच्चे और पक्के दोनों तरह के होते हैं और इन घरों के नाम भी पृथक्-पृथक् होते हैं। बछड़ों तथा कटरों के रहने के स्थान को चयनशाला, गाय बैल तथा भेंस के स्थान को गोशला, दूधवाले पशुओं की जगह को दुग्धशाला, साँड़ के स्थान को गोशाला, दूधवाले पशुओं की जगह को दुग्ध्शाला, साँड़ के निवासस्थान को साँड़घर, डेयरी को गव्यशाला, बीमार पशुओं के रहने के स्थान को रोगीगृह आदि कहते हैं। ढोर के रहने का स्थान को रोगीगृह आदि कहते हैं। ढोर के रहने का स्थान साफ सुथरा और हवादार होना चाहिए। ऊपरी छत धूप तथा वर्षा से रक्षा कर सके तथा साथ ही बहुत ठंडक या गरमी भी न उत्पन्न होने दे, ऐसी होनी चाहिए। पशुशाला का फर्श ऐसा ढालवाँ हो जो सारी गंदगी को नाली के रास्ते बाहर बहा सके। फर्श की सतह ऐसे पदार्थो से बनानी चाहिए जो मलमूत्र को सोखनेवाली न हो। हवा और धूप मकानों को स्वास्थ्यप्रद रखने में काफी मदद देती है। अत: मकान में सोच विचारकर खिड़की तथा रोशनी रखना अति आवश्यक है। पशु के लिये बाड़ा होना भी महत्वपूर्ण, जिसमें यह स्वच्छदतापूर्वक विचर सके। इससे पशुओं की आवश्यकतानुसार कसरत हो जाती है, जो स्वास्थ्य को बनाती है।

आहार

ढोर का आहार संतुलित, स्वादिष्ट और विविध प्रकार का होना चाहिए। पशु की खुराक ही शरीर को उचित ताप प्रदान करने, व्यर्थ वस्तुओं को शरीर से बाहर निकालने, परिश्रम में उत्साह रखने, विभिन्न अंगों में होनेवाली कमी बेशी को पूरा कर सकने, संतान धारण करने की शक्ति को बनाए रखने तथा चयन के बढ़ाव आदि में मदद करती है। मादा पशु को गर्भावस्था में तथा दूध देने के काल में संतुलित राशन तथा अतिरिक्त शक्ति उत्पन्न करने का राशन भी दिया जाता है। ढोर के भोजन में भी सभी प्रकार के पदार्थों का, जैसे पानी, प्रोटीन, चर्बी, शक्कर, खनिज द्रव्य, विटामिन और एंज़ाइम आदि का शरीर में विशेष महत्व है। इनका उचित मात्रा में होना बेहद जरूरी है। पशु के भोजन में ये आसानी से मिल सकें, इसका ध्यान रखना चाहिए। उत्तम घास के चारे से पशुओं को प्राय: वे सभी पोषक तत्व मिल जाते हैं जो शरीरनिर्वाह के लिये आवश्यक हैं। हरे चारे में इन पदार्थो का बाहुल्य रहता है। ज्यों ज्यों चारा पकता है त्यों-त्यों पोषण-गुण उसमें कम होते जाते हैं। पशु के भोजन में नमक, कैलसियम और फॉस्फोरस का होना परमावश्यक है। नमक खिनो से पहचानक्रिया ठीक रहती है तथा जो नमक पसीने के साथ निकलता है, पूरा हो जाता है। कैलसियम और फॉस्फोरस पशु की हड्डियों तथा सींग को मजबूत बनाते हैं। दुधा डिग्री पशु की कैलसियम और फॉस्फोरस की जो मात्रा दूध में चली जाती है, वह भी पूरी हो जाती है। ढोर के भोजन में धीरे धीरे परिवर्तन भी करना चाहिए। खुराक को अचानक बदल देने पर पशु की पाचनक्रिया में गड़बड़ी पैदा हो जाती है। पशु साधारणतया एक ही प्रकार के वातावरण के आदी होते हैं। थोड़ा सा भी परिवर्तन होने से उनपर बहुत जल्द प्रभाव पड़ता है।

उत्पादन

गाय तथा भेंस दोनों से दूध ब्याने के बाद प्राप्त होता हैं। दूध का मानव के जीवन में अधिक महत्व है। गोदुग्ध अत्यंत ही लाभकारी बताया गया है। बालकों के लिये तो विशेष रूप से गाय के दूध की व्यवस्था की जाती है। आहारों में दूध का आहार पूर्ण आहार माना जाता है, क्योंकि यह स्वादिष्ट, बलवर्धक वं जल्दी पचनेवाला होता है।

डेनमार्क, इंग्लैंड, ऑस्टेलिया, न्यूज़ीलैंड, अमरीका आदि देशों में दूध और मक्खन के धंधे का अत्यधिक विकास हुआ है। न्यूज़ीलैंड में दूध का उत्पादन प्रति मनुष्य 244 औंस, डेनमार्क में 148 औंस, ऑस्ट्रिया में 244 औंस, ऑस्ट्रिया में 79 औंस, कैनाडा में 66 औंस और भारत में 6 औंस है।

दूध से क्रीम, मक्खन, चीज़, (cheese) घी, खोआं, मलाई, रबड़ी, छेना आदि तैयार करते हैं। 100 पौंड दूध में से 6 पौंड घी, या 7 पौंड मक्खन या 85 पौंड दहीं, या 25 पौंड खोआ, या 20 पौंड छेना, या 20 पौंड मलाई, या 40 पौंड रबड़ी तैयार की जा सकती है।

पशु शव बहुत उपयोगी और मूल्यवान् होता है। इससे खाल, मांस, हड्डी, चरबी, अँतड़ी, खुर और सींग प्राप्त होता है। खाल साफ करके औद्योगिक वा खेती बारी के काम की वस्तुओं को तैयार करते हैं। मांस से खाद बनाई जा सकती है। यदि गैस यंत्रों के लिये इसका उपयोग किया जाय तो इससे रोशनी और खाना पकाने के लिये गैस मिल सकती है। हड्डी से खाद तैयार होती है। चरबी का इस्तेमाल साबुन बनाने में किया जाता है। चिकनाने के अनेक योग भी तैयार होते हैं। अँतड़ियों से टेनिस एवं बैडमिंटन के लिण् गट (ताँत) बनाया जा सकता है। सींग और खुर से खिलौने, कंघी, चश्में का फ्रेम तथा बटन आदि बनाते हैं।

रोग

मानव की भाँति पशुओं में भी नाना प्रकार की बीमारियाँ होती हैं, जो गोलालक को बहुत हानि पहुँचा सकती हैं। ये रोग साधरणतया दो भागों में बाँटे जा सकते हैं -
(1) साधारण रोग
(2) संक्रामक या छूतवाले रोग।

पशुपालक को छूतवाली बीमारियों से पशु की रक्षा करनी चाहिए। आवश्यकतानुसार यथासमय टीका लगवाना चाहिए। भिन्न भिन्न बीमारियों के लिये पृथक्-पृथक् सुरक्षात्मक टीके होते हैं।

अन्य बातें

बैल, गाय एवं भैंस प्रत्येक मिनट में 12-16 बार साँस लेते हैं तथा इनकी नाड़ी प्रति मिनट में 45.50 बार चलती है। इनका औसत ताप 101.4 फारेनहाइट होता है।

कलोर या ओसर ढाई-तीन साल की अवस्था में साँड़ से मिलने योग्य हो जाती है और करीब करीब इसी आयु में साँड़ भी प्रजनन के योग्य हो जाता है। गाय और भैंस प्राकृतिक रूप से हर 21 वें दिन गरम होती रहती है। गर्भ स्थापित हो जाने पर क्रम बंद हो जाता है। इनमें गरम अवस्था 12 से 18 घंटे तक रूकती है। गर्भाधान कृतिम रूप से पिचकारी द्वारा कराते हैं, या प्राकृतिक रूप से साँड़ द्वारा मिलाकर कराते हैं। गाय की गर्भावस्था औसत 285 दिन और भेंस की 310 दिन की है।

सन्दर्भ

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