झंझारपुर
झंझारपुर Jhanjharpur | |
---|---|
झंझारपुर रेलवे स्टेशन | |
झंझारपुर बिहार में स्थिति | |
निर्देशांक: 26°16′N 86°17′E / 26.27°N 86.28°Eनिर्देशांक: 26°16′N 86°17′E / 26.27°N 86.28°E | |
देश | भारत |
प्रान्त | बिहार |
ज़िला | मधुबनी ज़िला |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | 30,590 |
भाषाएँ | |
• प्रचलित | हिन्दी, मैथिली |
समय मण्डल | भामस (यूटीसी+5:30) |
पिनकोड | 847403 |
झंझारपुर (Jhanjharpur) भारत के बिहार राज्य के मधुबनी ज़िले में स्थित एक नगर व अनुमंडल है। यह लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा सीट भी है। बिहार के मुख्यमंत्री डॉक्टर जगन्नाथ मिश्र इसी सीट से विधायक चुने जाते थे। वर्तमान में जगन्नाथ मिश्र के बेटे नीतीश मिश्रा(बीजेपी) यहां के विधायक हैं। जबकि लोकसभा सांसद भाजपा के रामप्रीत मंडल है।[1][2][3]
प्राचीन इतिहास
मिथिला में झंझारपुर अनुमंडल के प्रक्षेत्र में यत्र-तत्र इतिहास अपने समुन्नत अतीत की गाथा जीर्ण-शीर्ण पड़े टीलों, खंडहरों, मूर्तियों एवं शिलालेखों के माध्यम से सुनाता प्रतीत होता है तो इसका कण-कण दर्शन की गुत्थियों को सुलझाने में अहर्निश रत मालूम पड़ता है
9वीं सदी में झंझारपुर अनुमंडल के अन्धराठाढ़ी प्रखंड को 'सर्वतंत्र', ‘षड्दर्शन वल्लभ’ वाचस्पति को अपनी गोद में खेलाने का गौरव प्राप्त है ,न्याय वर्त्तिक पर ‘न्याय वार्त्तिक तात्पर्य टीका’, शंकर भाष्य पर ‘भामती टीका’ सांख्य दर्शन पर ‘सांख्य तत्त्व कौमुदी’, मंडन मिश्र की ‘ब्रहमसिद्ध’ पर भाष्य उनकी प्रसिद्ध रचना है। अपनी पुत्रहीना पत्नी भामती के नाम पर उन्होंने जिस भामती टीका की रचना की वह दर्शन के क्षेत्र में कालजयी रचना है।
इसी भू-भाग अन्धराठाढ़ी के कमलादित्य स्थान को 11वीं सदी में मिथिला प्रक्षेत्र की राजधानी होने को गौरव प्राप्त है। यहाँ के ‘‘लक्ष्मी नारायण‘‘ की खंडित प्रतिमा की पाद पीठ पर प्राचीन मिथिलाक्षर में रचित ‘श्रीधर‘ का प्रसिद्ध शिलालेख उत्कीर्ण है-
- श्रीमन्नान्यपतिजैता गुणरत्न महार्णवः।
- यत्कीर्त्थाजनितो विश्वे द्वितय क्षीरसागरः॥
- मन्त्रिण तस्य नान्यस्य क्षत्र वंशाब्ज भनुना।
- तेनायं कारितो देवः श्रीधरः श्रीधरेण च॥
मिथिलाक्षर अथवा तिरहुता में उत्कीर्ण यह प्राचीनतम शिलालेख है। श्रीधर ने अपने राजा नान्यदेव की कीर्ति का बखान किया है। श्रीधर की कालजयी प्रतिभा के कारण पं. सहदेव झा ने उन्हें अपर चाणक्य कहा है। नान्यदेव ने 1097 ई. में मिथिला राज्य अपनी सामरिक शक्ति तथा श्रीधर की कूटनीति के बल पर प्राप्त किया था। आधुनिक काल में मिथिला ने उन्हीं के नेतृत्व में अपनी स्वतंत्र सत्ता का सुख भोगा था। कमलादित्य स्थान में अष्टदल कमल, मकरवाहिनी और कच्छयवाहिनी की मूर्तियाँ है। मंदिर के चौकठ पर उत्कीर्ण नर-नारियों की प्रतिमाएँ कर्णाट काल की कमनीयता की कहानी कहती प्रतीत होती है।
नान्य के बाद उनके पुत्रों मल्ल और गंगदेव में राज्य का बँटवारा हो गया। झंझारपुर अनुमंडल के मधेपुर प्रखंड का भीठ भगवानपुर मल्लदेव की राजधानी रही। भीठ भगवानपुर में मूर्तिकला का अभिनव उदाहरण आज भी दर्शनीय है। इन मूत्तियों में लक्ष्मी नारायण, गणेश तथा सूर्य की मूत्तियाँ उत्कृष्ट कोटि की हैं। लक्ष्मी नारायण मूर्त्ति की आधार पीठिका पर 'ॐ श्री मल्लदेवस्य.......... उत्कीर्ण है यहाँ की नर-नारी की युग्म प्रितमा दर्शनीय है।
गंगदेव की मृत्यु के बाद नरसिंह देव मिथिला पति हुए। उनके मंत्री रामदन्त ने 'दानपद्धति' नामक पुस्तक लिखी। नरसिंह देव के बाद उनके पुत्र रामसिंह मिथिलापति हुए तथा उनके बाद शक्ति सिंह देव। इनके समय चण्डेश्वर मंत्री थे। शक्ति सिंह के बाद हरिसिंह देव राजा हुए। हरिसिंह देव के विद्वान मंत्री चण्डेश्वर ने ‘कृत्य रत्नाकर’ नामक सुप्रसिद्ध ग्रंथ का प्रणयन किया, जो आज भी राज्य की शासन-व्यवस्था और कानून की आधार शिला मानी जाती है। हरिसिंह देव के ही समय मिथिला की प्रसिद्ध 'पंजी प्रथा' आरंभ हुई। झंझारपुर अनुमंडल के अन्धराठाढ़ी प्रखंड के मुक्तेश्वरनाथ महादेव मंदिर में शतधारा निवासी हरिनाथ की पत्नी के कथित रूप से चांडाल से संसर्ग पर अग्नि परीक्षा हुई थी। ‘नाइं चाण्डालगमिनी’ की घोषणा पर उसका हाथ जलने लगा था तथा दुबारा ‘नाइंस्वपतिव्यतिरिक्त चाण्डालगामिनी’ की घोषणा पर हाथ नही जला। इसी घटना के बाद अनाधिकार विवाह पर रोक लगाने के लिए पंजी व्यवस्था आरंभ हुई जो यात्किंचित्परिवद्धर्न के साथ मैथिल ब्राहमणों में तथा मूल रूप में कर्ण कायस्थों में आज भी प्रचलित है।
अन्धराठाढ़ी प्रखंड का पस्टन बौद्ध टीलों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ से अनेक बौद्ध मूर्त्तियाँ मिली है। तिब्बती संत धर्मस्वामिन् ने लगभग 1233-34 में तिरहुत की यात्रा की थी। उसने अपने यात्रा वृतान्त में पद अथवा पहला नामक नगर की सुन्दरता का विस्तृत वर्णन किया है। कतिपय विद्वानों ने इस पद को सिमराँवगढ़ माना है किन्तु बहुत से विद्वान इसे पस्टन के रूप में ही मानते हैं। बगल का मुशहरनियाडीह अपने गर्भ में अतीत को समेटे हुए है।
लखनोर प्रखंड के मिथिला दीप गाँव में माँ दुर्गा की प्राचीन मन्दिर हैं। अंराठाढ़ी प्रखंड के रखवाड़ी ग्राम में सूर्य की मूर्त्ति है। सूर्य की ही एक और मूर्त्ति झंझारपुर प्रखडं के परसा गाँव में है। इस मूर्त्ति के सिर पर पर्सियन शैली का टोप और पैरों में कुशाण शैली का जूता है। आधुनिक काल में भी झंझारपुर अनुमंडल अपने वैदुष्य से विश्व-वाङ्मय को प्रभावित करता रहा।
नव्य न्याय के अप्रतिम विद्वान् धर्मदत्त झा, प्रसिद्ध बच्चा झा (1860-1918) को सर्व तंत्र स्वतंत्र की उपाधि मिली थी। वे झंझारपुर अनुमंडल के नवानी ग्राम के रत्न थे। इनके पौत्र पं. रतीश झा ने भी नैयायिक के रूप में राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठा अरजित की थी। ठाढ़ी के ही महामीमां सक पं. रविनाथ झा, महावैयाकरण सहोदर भ्राता द्वय- पं. शिवशंकर झा और हरिशंकर झा, वे दान्ती पं. विश्वम्भर झा व विद्वान पं. जनार्दन झा (पाठशाला गुरू), पं. मुरलीधर झा ने अपनी सारस्वत-साधना के प्रकाश से विश्व को आलोकित किया। महरैल के पं. गंगानाथ झा व पं. महावीर झा अग्रणी विद्वान् थे। हरिणा के पं. बाबूजी मिश्र सुप्रसिद्ध नैयायिक हुए। पं. चन्दा झा (अन्धराठाढ़ी) और लाल दास का राम काव्य परम्परा में अप्रतिम स्थान है। इसी अनुमंडल के दीप ग्राम की विद्वत् परम्परा पं. शशिनाथ झा को पाकर और आलोकित हुई है। सिद्ध सन्त लक्ष्मीनाथ गोसाईं का महाप्रयाण मधेपुर प्रखंड के फटकी ग्राम में हुआ। यहीं उनकी समाधि पर बने भवन को मंदिर का रूप दिया जा रहा है। ठाढ़ी के ही पं. नन्दीश्वर झा उच्च कोटि के संत व विद्वान थे।
1753 ई. में मिथिलेश नरेन्द्र सिंह और अलीवर्दी की सेना के बीच कन्दर्पीघाट में महासंग्राम हुआ था। इस युद्ध में मिथिला को विजयश्री मिली थी। युद्ध के बाद रक्त और धूल से सने 74 सेर जनेउ तौले गए थे। हाल तक मिथिला में गोपनीय पत्रों पर 74 लिखा जाता था, जिसका अभिप्राय था कि जिसके नाम का पत्र है उसके अतिरिक्त यदि कोई इस पत्र को पढ़ेगा तो उसे उतने ब्राह्मणों की हत्या का पाप लगेगा जितने जनेउधारी कन्दर्पी के युद्ध में मारे गए थे। हरिणा और महरैल के बीच अवस्थित कन्दर्पीघाट पर मिथिला विजय स्तंभ का निर्माण कराया जा रहा है।
झंझारपुर के अन्य दर्शनीय स्थलों में हरड़ी मे विद्या पति के पितामहभ्राता चण्डेश्वर द्वारा स्थापित शिवलिंग, विदेश्वर स्थान का महादेव मंदिर, झंझारपुर का रक्तमाला स्थान, मदनेश्वर स्थान, अन्धरा का कबीर मठ, मधेपुर की फटकी कुटी और चामुण्डा स्थान, की बडी प्रतिष्ठा है। मिथिला के इतिहास व दर्शन को अपनी खोजपूर्ण दृष्टि से अभिनव आलोक देने में पं. सहदेव झा (ठाढ़ी) अग्रगण्य रहें हैं। शंकर मंडन विषयक ऐतिहासिक भ्रान्ति जिस प्रकार से उन्होने परिहार किया है, उससे समस्त मिथिला उनका ऋणी हो चुकी है।
झंझारपुर के नामकरण के विषय में ऐसा माना जाता है कि मोहम्मद गोरी के हाथों पृथ्वीराज की पराजय के बाद बिखरे चंदैल राजपूत सरदारों ने यत्र-तत्र अपना ठिकाना ढूँढ लिया। ऐसे ही महोबा के चंदेल राजपूत सरदार जुझार सिंह ने निर्जन जगह पाकर झंझारपुर में अपना पड़ाव रखा। उनके यहीं बस जाने से उनके नाम पर ही इस जगह का नाम जुझारपुर हो गया जो धीरे-धीरे झंझारपुर के रूप में उच्चरित होने लगा। इसे मिथिलेश की राजधानी होने का गौरव भी प्राप्त हुआ। नरेन्द्र सिंह (1743-70) के समय यहाँ फौजी छावनी थी। झंझारपुर थाना की वर्त्तमान जगह तथा सामने का औधोगिक क्षेत्र सैनिक छावनी के रूप में था। नरेन्द्र सिंह के पुत्र प्रताप सिंह (1778-85) ने अपनी राजधानी भौआड़ा से हटाकर झंझारपुर स्थानान्तरित कर ली। झंझारपुर कांस्य बरतन बनाने के लिए काफी प्रसिद्ध था, फलतः व्यावसायिक दृष्टिकोण से भी इसका प्रारंभ से ही विशेष महत्व रहा है।
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ "Tourism and Its Prospects in Bihar and Jharkhand Archived 2013-04-11 at the वेबैक मशीन," Kamal Shankar Srivastava, Sangeeta Prakashan, 2003
- ↑ "Bihar Tourism: Retrospect and Prospect Archived 2017-01-18 at the वेबैक मशीन," Udai Prakash Sinha and Swargesh Kumar, Concept Publishing Company, 2012, ISBN 9788180697999
- ↑ "Revenue Administration in India: A Case Study of Bihar," G. P. Singh, Mittal Publications, 1993, ISBN 9788170993810