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जुताई

ट्रैक्टर द्वारा गहरी जुताई

भूमि के उपरी परत को चीरकर, पलटकर या जोतकर उसे बुवाई या पौधा-रोपण के योग्य बनाना जुताई, भू-परिष्करण या कर्षण (tillage) कहलाती है। इस कृषिकार्य में भूमि को कुछ इंचों की गहराई तक खोदकर मिट्टी को पलट दिया जाता है, जिससे नीचे की मिट्टी ऊपर आ जाती है और वायु, पाला, वर्षा और सूर्य के प्रकाश तथा उष्मा आदि प्राकृतिक शक्तियों द्वारा प्रभावित होकर भुरभुरी हो जाती है।

परिचय

एकदम नई भूमि को जोतने के पहले पेड़ पौधे काटकर भूमि स्वच्छ कर ली जाती है। तत्पश्चात्‌ किसी भी भारी यंत्र से जुताई करते हैं जिससे मिट्टी कटती है और पलट भी जाती है। इस प्रकार कई बार जुताई करने से एक निश्चित गहराई तक मिट्टी फसल उपजाने योग्य बन जाती है। ऐसी उपजाऊ मिट्टी की गहराई साधारणत: एक फुट तक होती है। उसके नीचे की भूमि, जिसे गर्भतल कहते हैं, अनुपजाऊ रह जाती है। इस गर्भतल को भी गहरी जुताई करने वाले यंत्र से जोतकर मिट्टी को उपजाऊ बना सकते हैं। यदि यह गर्भतल जोता न जाए और हल सर्वदा एक निश्चित गहराई तक कार्य करता रहे तो उस गहराई पर स्थित गर्भतल की ऊपरी सतह अत्यंत कठोर हो जाती है। इस कठोर तह को अंग्रेजी में प्लाऊ पैन (Plough pan) कहते हैं। यह कठोर तह कृषि के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध होती है, क्योंकि वर्षा या सिंचाई से खेत में अधिक जल हो जाने पर वह इस कठोर तह को भेदकर नीचे नहीं जा पाता। अत: मिट्टी में अधिक समय तक जल भरा रहता है और अनेक प्रकार की हानियाँ उत्पन्न हो जाती हें। उन हानियों से बचने के लिए उस कठोर तह (प्लाऊ पैन) को प्रत्येक वर्ष तोड़ना अत्यंत आवश्यक हो जाता है। मिट्टी के कणों के परिमाण पर मिट्टी की बनावट (texturc) और उनके क्रम पर मिट्टी का विन्यास (structure) निर्भर है। जुताई से बनावट तथा विन्यास में परिवर्तन करके हम मिट्टी को इच्छानुसार शस्य उत्पन्न करने योग्य बना सकते हैं।

बीज बोने के लिए उच्च कोटि की मिट्टी प्राप्त करने के निमित्त सर्वप्रथम मिट्टी पलटनेवाले किसी भारी हल का उपयोग किया जाता है। तत्पश्चात्‌ हलके हल से जुताई की जाती है जिसमें बड़े ढेले न रह जाएँ और मिट्टी भुरभुरी हो जाए। यदि बड़े-बड़े ढेले हों तो बेलन (रोलर) या पाटा का उपयोग किया जाता है, जिससे ढेले फूट जाते हैं। जुताई के किसी यंत्र का उपयोग मुख्यत: मिट्टी की प्रकृति तथा ऋतु की दशा पर निर्भर है। बीज बोने के पहले अंतिम जुताई अत्यंत सावधानी से करनी चाहिए, क्योंकि मिट्टी में आर्द्रता का संरक्षण इसी अंतिम जुताई पर निर्भर है और बीज के जमने की सफलता इसी आर्द्रता पर निर्भर है। यह आर्द्रता मिट्टी की केशिका नलियों द्वारा ऊपरी तह तक पहुँचती है। ये केशिका नलियाँ कणांतरिक छिद्रों से बनती हैं। ये छिद्र जितने छोटे होंगे, केशिका नलियाँ उतनी ही पतली और सँकरी होंगी और कणांतरिक जल मिट्टी में उतना ही ऊपर तक चढ़ेगा। इन छिद्रों और इसलिए केशिका नलियों के आकर का उपयुक्त या अनुपयुक्त होना जुताई पर निर्भर है।

उद्देश्य

हल से खेत को जोतना ही जुताई नहीं कही जा सकती। हल चलाने के अतिरिक्त गुड़ाई, निराई, फावड़े से खोदना, पाटा या बेलन (रोलर) चलाना इत्यादि कार्य जुताई मे सम्मिलित हैं। इन सब क्रियाओं का मुख्य अभिप्राय यही है कि मिट्टी भुरभुरी और नरम हो जाए तथा पौधे के सफल जीवन के लिए मिट्टी में उपयुक्त परिस्थिति प्रस्तुत हो जाए। पौधों के लिए जल, वायु, उचित ताप, भाज्य पदार्थ, हानिकारक वस्तुओं की अनुपस्थिति तथा जड़ों के लिए सहायक आधार की आवश्यकता पड़ती है। ये सारी वस्तुएँ कर्षण द्वारा प्राप्त की जाती हैं और शस्य की सफलता इसी बात पर निर्भर रहती हैं कि ये उपयुक्त दशाएँ किस सीमा तक मिट्टी में संरक्षित की जा सकती हैं। अस्तु, कर्षण के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं :

  • (1) खेती वाले क्षेत्र में खरपतवार सब नष्ट हो जाने चाहिए।
  • (2) मिट्टी भुरभुरी हो जाए जिससे उसमें जल, वायु, ताप और प्रकाश का आवागमन और संचालन सफलतापूर्वक हो सके।
  • (3) लाभदायक जीवाणु भली भाँति अपना कार्य प्रतिपादन कर सकें।
  • (4) मिट्टी भली प्रकार वर्षा का जल सोख और धारण कर सके।
  • (5) पौधों की जड़ें सुगमतापूर्वक फैलकर पौधे के लिए भोजन प्राप्त कर सकें।
  • (6) हानिकारक कीड़ों के अंडे, बच्चे ऊपर आकर नष्ट हो जाएँ।
  • (7) खेत में डाली हुई खाद मिट्टी में भली भाँति मिल जाए।
  • (6) विलाय (घोलक) शक्तियाँ अपना कार्य भली प्रकार कर सकें जिससे पौधों को प्राप्त होने योग्य विलेय तत्व अधिक मात्रा में उपलब्ध हों।

जल, वायु और ताप में अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। यदि मिट्टी मिट्टी में जल की मात्रा अधिक होगी तो वायु की मात्रा कम हो जाएगी, तदनुसार ताप कम हो जाएगा। इसके विपरीत यदि मिट्टी अधिक शुष्क है तो ताप अधिक हो जाएगा। ये तीनों आवश्यक दशाएँ मिट्टी की जोत (टिल्थ, द्यत्थ्द्यण्) पर निर्भर हैं। यदि जोत उत्तम है, तो मिट्टी में जल, वायु तथा ताप भी उचित रूप में हैं। यदि मिट्टी में जल अधिक या न्यून मात्रा में हो, तो उत्तम जोत प्राप्त नहीं हो सकती। अधिक जल के कारण मिट्टी चिपकने लगती है और ऐसी मिट्टी की जुताई करने से जोत नष्ट हो जाती है। जब मिट्टी सूखने लगती है तब एक ऐसी अवस्था आ जाती है कि यदि उस समय जुताई की जाए तो उत्तम जोत प्राप्त होती है। मटियार मिट्टी जब सूख जाती है तब उसमें ढेले बन जाते हैं जिनकों तोड़ना कठिन हो जाता है।

प्रकार

जुताई कई प्रकार की होती है, जैसे गहरी जुताई, छिछली जुताई, अधिक समय तक जुताई, ग्रीष्म ऋतु की जुताई, हलाई या हराई की जुताई, मध्य से बाहर की ओर या किनारे से मध्य की ओर तथा एक किनारे से दूसरे किनारे की ओर जुताई। हर प्रकार की जुताई में कुछ न कुछ विशेषता होती है। गहरी जुताई से मिट्टी अधिक गहराई तक उपजाऊ हो जाती है और यह गहरी जानेवाली जड़ों के लिए अत्यंत उपयुक्त होती है। छिछली जुताई झकड़ा जड़वाले और कम गहरी जानेवाली जड़ के पौधों के लिए उत्तम होती है। अधिक समय तक तथा ग्रीष्म ऋतु की जुताई से मिट्टी में प्रस्तुत हानिकारक कीड़े तथा उनके अंडे नष्ट हो जाते हैं। खरपतवार भी समूह नष्ट हो जाते हैं और मिट्टी की जलशोषण या जलधारण शक्ति अधिक हो जाती है। यदि खेत बहुत बड़ा है तो उसे हलाई या हराई नियम से कई भागों में बाँटकर जुताई करते हैं (हराई उतने भाग को कहते हैं जितना एक बार में सुगमता से जोता जा सकता है)। खेत यदि समतल न हो और मध्य भाग नीचा हो, तो मध्य से बाहर की ओर और यदि मध्य ऊँचा ढालुआ हो तो नीचे की ओर से ढाल के लंबवत्‌ जुताई आरंभ करके ऊँचाई की ओर समाप्त करना चाहिए। ऐसा करने से खेत धीरे-धीरे समतल हो जाता है तथा मिट्टी भी भली प्रकार जुत जाती है। परंतु यह कार्य देशी हल से नहीं किया जा सता। इसके लिए मिट्टी पलटनेवाला हल होना चाहिए। इसमें मिट्टी पलटने के लिए पंख लगा रहता है। यही कारण है कि देशी हल को वास्तव में हल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि हल की परिभाषा है वह यंत्र जो मिट्टी को काटे और उसे खोदकर पलट दे। देशी हल से मिट्टी कटती है, परंतु पलटती नहीं। इसको हल की अल्टिवेटर (Cultivater) कहना उचित है।

जुताई के सिद्धान्त

जुताई के कुछ सिद्धांत हैं जिनका उपरिलिखित नियमों की अपेक्षा प्रत्येक दशा में पालन करना कृषक का कर्तव्य है। उपयोग से पले हल का भली भाँति निरीक्षण कर लेना चाहिए। उसका कोई भाग ढीला न हो। जूए में उसको आवश्यक ऊँचाई पर लगाएँ। यह ऊँचाई बैलों की ऊँचाई पर निर्भर है। जुताई करते समय हल की मुठिया दृढ़तापूर्वक पकड़नी चाहिए ताकि हल सीधा और आवश्यक गहराई तक जाए। कूँड़ों (हल रेखाओं) को सीधी और पास-पास काटना चाहिए अन्यथा कूँड़ों के बीच बिना जुती भूमि (अँतरा) छूँट जाती है। देशी हल से जुताई करने में अँतरा अवश्य छूटता है, जिसको समाप्त करने के लिए कई बार खेत जोतना पड़ता है। खेत की मिट्टी अधिक गीली या सूखी न हो। अधिक गीली मिट्टी से कई टुकड़े कड़े-कड़े ढोंके के हो जाते हैं और सूखी मिट्टी पर हल मिट्टी को काट नहीं पाता। उसमें इतनी आर्द्रता हो कि वह भुरभुरी हो जाए। हल चलाते समय कटी हुई मिट्टी भली भाँति उलटती जाए और पास का, पहले बना, खुला हुआ कूँड़ उस मिट्टी से भरता जाए। जोतने के पश्चात्‌ खेत समतल दिखाई पड़े और खरपतवार नष्ट हो जाएँ। जुताई करते समय हल का फार मिट्टी के ऊपर न आए। पहली जुताई के बाद प्रत्येक बार खेत को इस प्रकार जोतना चाहिए कि दूसरी जुताई द्वारा कूँड़ लंबवत्‌ कटे। सफल कर्षण के लिए इन सिद्धांतों का पालन आवश्यक है।

जुताई के लिए कोई विशेष समय निश्चित नहीं किया जा सकता। यह कार्यकाल स्थान की जलवायु तथा फसल की किस्म पर निर्भर है। जलवायु के अनुसार वर्ष को खरीफ, रबी और जायद में विभक्त किया जाता है तथा इन्हीं के अनुसार फसलें भी विभाजित होती हैं। खरीफ की फसल वर्षा ऋतु में, रबी की फसल जाड़े में तथा जायद की फसल ग्रीष्म ऋतु में होती है। प्रत्येक ऋतु की फसल बोने के पहले और काटने के बाद खेत को जोतना अत्यंत आवश्यक है। यदि कोई फसल न भी उगानी हो तो खेत को बिना जुते नहीं छोड़ना चाहिए। फसल काटने के बाद खेत को तुरंत जोतना चाहिए। रबी की फसल काटने के बाद यदि जायद फसल न बोनी हो, तो खेत को मार्च के अंत या अप्रैल के आरंभ से खरीफ की फसल बोने तक कई बार जोतना चाहिए। यह कर्षण क्रिया अधिकांश ग्रीष्म ऋतु में होनी चाहिए, जिससे मिट्टी भली प्रकार जुत जाए। इस प्रकर उसमें वर्षा के जल को धारण करने की अधिक क्षमता आ जाएगी। इसी तरह खरीफ की फसल कटने और रबी की फसल बोने के बीच के लगभग दो महीनों में खेत को आठ या दस बार भली भाँति जोतना आवश्यक है। खेत में आर्द्रता की कमी होने पर बोने से पूर्व पलेवा करना (ढेलों को चूर करना) आवश्यक है (पलेवा करने में मिट्टी को तसले में उठाकर फेंका जाता है जिससे ढेले गिरने की चोट से चूर हो जाते हैं)।

जुताई यंत्र

कार्य और प्रयोग के अनुसार जुताई के यंत्र, चार भागों में विभाजित किए गए हैं :

  • (1) हल,
  • (2) हैरो (harrow) और कल्टिवेटर (Cultivater),
  • (3) पाटा और बेलन,
  • (4) अन्य छोटे-छोटे यंत्र, जैसे खुरपी, रेक (rake), हैंड हो (hand hoe) इत्यादि।

इनका उपयोग आवश्यकतानुसार समय-समय पर करना चाहिए। इन चारों विभागों के यंत्रों के उपयोग का मुख्य अभिप्राय यही है कि कर्षण के नियमों तथा सिद्धांतों का पालन करके खेत की जोत अत्युत्तम कर ली जाए और फसल की सफलता के लिए सारे उपयुक्त साधन और वातावरण उपस्थित रहें।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ