जहाजरानी का इतिहास
नदियों और समुद्रों में नावों और जहाजों से यात्रा तथा व्यापार का प्रारंभ लिखित इतिहास से पूर्व हो गया था। प्राय: साधारण जहाज ऐसे बनाए जाते थे कि आवश्यकता पड़ने पर उनसे युद्ध का काम भी लिया जा सके, क्योंकि जलदस्युओं का भय बराबर बना रहता था और इनसे जहाज की रक्षा की क्षमता आवश्यक थी। ये जहाज डाँड़ों या पालों अथवा दोनों से चलाए जाते थे और वांछित दिशा में ले जाने के लिये इनमें किसी न किसी प्रकार के पतवार की भी व्यवस्था होती थी। स्थलमार्ग से जलमार्ग सरल और सस्ता होता है, इसलिये बहुत बड़ी या भारी वस्तुओं को बहुत दूर के स्थानों में पहुँचाने के लिये आज भी नावों अथवा जहाजों का उपयोग होता है। प्राचीन काल में सभ्यता का उद्भव नौगम्य नदियों या समुद्रतटों पर ही विशेष रूप से हुआ और ये ही वे स्थान थे जहाँ विविध संस्कृतियों की, जातियों के सम्मिलन से, परवर्ती प्रगति का बीजारोपण हुआ।
प्राक् ऐतिहासिक काल
कुछ विद्वानों का मत है कि भारत और शत्तेल अरब की खाड़ी तथा फरात (Euphrates) नदी पर बसे प्राचीन खल्द (Chaldea) देश के बीच ईसा से 3,000 वर्ष पूर्व जहाजों से आवागमन होता था। भारत के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में जहाज और समुद्रयात्रा के अनेक उल्लेख है (ऋक् 1। 25। 7, 1। 48। 3, 1। 56। 2, 7। 88। 3-4 इत्यादि)। प्रथम मंडल (1*116*3) की एक कथा में 100 डाँड़ोंवाले जहाज द्वारा समुद्र में गिरे कुछ लोगों की प्राणरक्षा का वर्णन है। इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि ऋग्वेद काल, अर्थात् लगभग 2,00-1,500 वर्ष ईसा पूर्व, में यथेष्ट बड़े जहाज बनते थे और भारतवासी समुद्र द्वारा दूर देशों की यात्रा करते थे। वाल्मीकीय रामायण के अयोध्याकांड में जहाजों पर चढ़कर जलयुद्ध करने का उल्लेख मिलता है तथा महाभारत के द्रोण पर्व में ऐसे वणिकों का उल्लेख है, जिनका जहाज टूट गया था और जिन्होंने एक द्वीप में पहुँचकर रक्षा पाई थी। मनुसंहिता में जहाज के यात्रियों से संबंधित नियमों का वर्णन है। याज्ञवल्क्य सहिता, मार्कंडेय तथा अन्य पुराणों में भी अनेक स्थलों पर जहाजों तथा समुद्रयात्रा संबंधित कथाएँ और वार्ताएँ हैं। धर्मग्रंथों के अतिरिक्त अनेक संस्कृत काव्य, नाटक आदि भी प्राचीन भारत के अर्णवपोतों की गौरवगाथाओं से भरे पड़े हैं। भारतवासी जहाजों पर चढ़कर जलयुद्ध करते थे, यह ज्ञात वैदिक साहित्य में तुग्र ऋषि के उपाख्यान से, रामायण में कैवर्तों की कथा से तथा लोकसाहित्य में रघु की दिग्विजय से स्पष्ट हो जाती है। पालि साहित्य के जातकों एवं प्राकृत में लिखित जैन पुराणों में भी जहाजों और समुद्रयात्रा के विवरण पाए जाते हैं। प्रसिद्ध विद्वान् टामस विलियम रीस डेविड्स के मतानुसार "प्राचीन काल में भारत का बाबुल और संभवत: मिस्र, फिनिशिया और अरब देशों के साथ समुद्र द्वारा वाणिज्य संबंध था। इन देशों के व्यापारी प्राय: वाराणसी या चंपा से जहाज पर सवार होते थे। इसका उल्लेख प्राय: मिलता है।"
यह नि:संदेह है कि प्राचीन काल में फिनिशिया निवासी बड़े साहसी समुद्रगामी थे। इन्होंने भूमध्यसागर के तटवर्ती अनेक स्थानों पर पत्तन और उपनिवेश स्थापित कर रखे थे और एशिया के विभिन्न देशों से माल इकट्ठा कर वे समस्त यूरोपीय देशों में पहुँचाते थे। यह व्यापार ही इस जाति की समृद्धि का मुख्य कारण था। ईसा पूर्व सातवीं या छठी शताब्दी तक भारत से मिस्र, खल्द तथा दजला (Tigris) नदी से होते हुए बाबुल (Babylon) तक समुद्रतटीय भागों द्वारा व्यापार का नियमित क्रम बँध गया था। पिछले काल में ग्रीस निवासियों का भी भूमध्यसागरीय व्यापार में हाथ हो गया था, किंतु रोम साम्राज्य के स्थापित होने पर जब निरंतर युद्ध तथा जलदस्युओं के अत्याचारों से शांति मिली तभी यूरोपीय समुद्रीय व्यापार पूर्ण उत्कर्ष पर पहुँच सका।
ऐतिहासिक काल
ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी में भारत अभियान से लौटते समय सिंकदर महान् के सेनापति निआर्कस (Nearchus) ने अपनी सेना को समुद्रमार्ग से स्वदेश भेजने के लिये भारतीय जहाजों का बेड़ा एकत्रित किया था। ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में निर्मित सांची स्तूप के पूर्व तथा पश्चिमी द्वारों पर अन्य मूर्तियों के मध्य जहाजों की प्रतिकृतियाँ भी हैं। ईसा की द्वितीय शताब्दी के इतिहासकार ऐरिऐन (Arrian) का कहना है कि पंजाब देश की एक जाति तीस डाँड़वाले जहाज बनाकर उन्हें किराए पर चलाया करती थी। इन्होंने पत्तनों का भी उल्लेख किया है। ग्रीक दूत मेगास्थिनीज के अनुसार मौर्ययुग में एक विशेष जाति के लोग राज्य की देखरेख में जहाज बनाने का कार्य करते थे। स्ट्रैबो (Strabo, ई. पू. 64 - 24 ई.) का कहना है कि ये जहाज व्यापारियों को किराए पर दिए जाते थे। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में (काल 321-296 ई. पू.) राज्य के एक स्वतंत्र विभाग की चर्चा की है, जिसके ऊपर नदी और समुद्रयात्रा विषयक सब प्रबंधों का भार रहता था। पत्तनों की व्यवस्था, कर की तथा वणिकों और यात्रियों से भाड़े की वसूली, नियमों का पालन कराना इत्यादि इस विभाग के कर्तव्य थे। भारत के समुद्रतटीय प्रदेशों में स्थित अनेक पत्तनों से समुद्र द्वारा आवागमन तथा व्यापार होता था।
बंबई से 25 मील दूर सालसेट द्वीप पर अवस्थित तथा ईसा की द्वितीय शताब्दी में निर्मित, कन्हेरी के गिरिमंदिर में उत्कीर्ण एक चित्र में भग्न जहाज और व्याकुल यात्रीगण प्रार्थना करते दिखाए गए हैं। अजंता की द्वितीय गुहा में जहाज संबंधी चित्र अंकित हैं। इनमें से एक में विजय की सिंहलयात्रा दिखाई है। चित्रों के अधिकांश जहाजों में लंबे लंबे मस्तूल और अनेक पाल हैं। इतिहासकार विंसेंट स्मिथ का मत है कि द्वितीय और तृतीय शताब्दी क आंध्र राजाओं की मुद्राओं में जहाजों की प्रतिलिपियों से अनुमान होता है कि इनका साम्राज्य समुद्र पार के देशों में भी था। पल्लव राजाओं के सिक्कों में भी जहाज के चित्र मिलते हैं। ईसा के 400 वर्ष पश्चात् चीनी यात्री फाहियान (फाशिईन, Fa-Hsien) ने ताम्रलिप्ति से एक जहाज पर चढ़कर स्वदेश की यात्रा की थी। ताम्रलिप्ति, पूर्व बंग के चटगाँव तथा भारत के अन्य पत्तनों से वणिकों और यात्रियों की समुद्रयात्राओं के उल्लेख मिलते हैं। प्राचीन भारत में जहाजों की निर्माण प्रणाली के सिद्धांतों और नियमों का ज्ञान भोज के "युक्तिकल्पतरु" नामक ग्रंथ से मिल सकता है।
प्राचीन काल में नौवहन सुव्यवस्थित व्यापार था। जहाज के स्वामी, माल भेजनेवाले वणिक् और यात्रियों के संबंध में स्पष्ट नियम निर्धारित थे। प्राय: वणिकों के अपने जहाज होते थे, किंतु वणिक् पूरा जहाज, या उसपर माल लादने योग्य स्थान, किराए पर भी लेते थे। कुछ यात्राओं के लिये कई वणिक् एकत्रित हो संघ भी स्थापित कर लेते थे। वणिक् प्रसिद्ध पत्तनों में अपने गुमाश्ते भी रखते थे। इन पत्तनों के विकास के लिये आवश्यक उपाय किए जाते थे। जहाज हजारों मील लंबी यात्राएँ करते थे। ईसा से 500 वर्ष पूर्व भी फिनीशियन नाविक मिस्र के पत्तनों से चलकर अफ्रीका के पश्चिम समुद्रतट तक जाते थे। रोमन काल में रोम और भारत के बीच मिस्र होते बहुत बड़ा व्यापार होता था। इसका प्रमाण ईसा की प्रथम शताब्दी में लिखित ग्रंथ "पेरिप्लस ऑव दि एरिथ्रीयन सी" (Periplus of the Erythrean Sea) में मिलता है।
250 टन भार तक के और कुछ इससे भी बड़े जहाज बनते थे। जब युद्धोपयोगी जहाज बनने लगे तो लंबे, सँकरे, डाँड़ों से चलने और सरलता से इधर-उधर घूमनेवाले जहाज बनाए गए। माल ढोनेवाले, या व्यापारी जहाज चौड़े, गहरे और पाल से यात्रा करनेवाले होते थे। इनकी चाल मंद होती थी और इनको घुमाने में देर लगती थी। इन जहाजों में डाँड़ों का उपयोग सहायताकारी होता था। साधारणत: जहाज भूमि से अधिक दूर नहीं जाते थे और मौसम खराब होने पर पास के किसी पत्तन की शरण लेते थे। सुरक्षा के लिये जहाजों को पत्तनों और अन्य रक्षित स्थानों में महीनों रुक जाना पड़ता था। भारत की यात्रा में मानसून से बड़ी सहायता मिलती थी और यह प्राय: बिना बीच में रुके संपन्न हो जाती थी। नौ-चालन-विज्ञान प्रारंभिक अवस्था में था। आधुनिक सहायता यंत्र तो दूर, दिशाओं को बतानेवाले साधारण चुंबकीय दिक्सूचक तक नहीं थे। इसलिये भूमि से बहुश: संपर्क बनाए रखना आवश्यक होता था और लंबी महासागरीय यात्राएँ अव्यावहारिक थीं।
फिर भी, साहसी मनुष्यों ने अज्ञात सागरों में हजारों मीलों की यात्राएँ कीं। भारतवासियों ने अपने देश से अति दूर, कितने ही समुद्रों को लाँघकर स्वर्णद्वीप (सुमात्रा), यवद्वीप (जावा), हिंद चीन इत्यादि में उपनिवेश तथा राज्य स्थापित किए और भारतीय संस्कृति फैलाई। सबसे आश्चर्यजनक बात तो प्रशांत महासागर स्थित सहस्रों द्वीपों में मनुष्यों का बसना है। ये अल्प विकसित सभ्यतावाले मनुष्य अवश्य एशिया, आस्ट्रेलिया या अमरीका महादेशों से ही इन छोटे-छोटे द्वीपों में पहुँचे होंगे। इनमें से अनेक की दूरी इन महादेशों अथवा अन्य द्वीपों से 1,000 मील से भी अधिक है और यह महानागर अचानक उठनेवाले भयंकर तूफानों के लिये प्रसिद्ध है। ये यात्राएँ बेड़ों डोंगों में ही पूरी की गई होंगी।
मध्य युग
14वीं और 15वीं शताब्दी में जहाज के शिल्प ने यूरोप में बहुत उन्नति की। नौचालन विद्या में भी बड़ा प्रगति हुई। दिक्सूचक का प्रयोग 12वीं शताब्दी में आरंभ हो गया था। गुनिया यंत्र (Cross staff) तथा ऐस्ट्रोलेब वेधयंत्र से अक्षांश की गणना संभव हो गई। इस प्रगति ने महासमुद्र की यात्राओं को साहस दिया। सन् 1469 में जॉन कैवट नामक अंग्रेज नाविक उत्तरी अमरीका के तट पर उतरा तथा सन् 1492 में पुर्तगाली वास्को-डी गामा उत्तमाशा अंतरीप होते हुए भारत में कालीकट के बंदरगाह पर पहुँच गया। ये यात्राएँ ऐसे समुद्रों की थीं जिनके कोई मानचित्र आदि उस समय तक नहीं बने थे। नौचालन विज्ञान का ज्ञान प्रारंभिक था, जिसके कारण देशांतर रेखा की गणना में 600 मील तक की भूल हो सकती थी। इस अवस्था में मैंगलैन (Magellan) ने सन् 1519-22 में जहाज द्वारा पृथ्वी की परिक्रमा पूरी की। इन यात्राओं ने तथा उपनिवेशीय और दासों के व्यापार ने बड़े जहाजों के निर्माण को प्रगति दी।
रोमन साम्राज्य के पतन के पश्चात् यूरोपीय राष्ट्रों में इटली के नगर राज्य जेनोआ, पिसा और विशेषकर वेनिस का समुद्रीय व्यापार और यातायात पर प्रभुत्व हो गया था। यह प्रभुत्व मुख्यत: पूर्वी देशों से व्यापार पर आधारित था। इस प्रभुत्व को तोड़ने और पूर्वी व्यापार हथियाने के उद्देश्य से प्रेरित हो पुर्तगाल और स्पेन राज्यों ने बड़े जहाज बनाए और महासागरीय लंबी यात्राएँ कर भारत तक पहुँचने की चेष्टाएँ कीं। सन् 1581 में जब पुर्तगाल और स्पेन के राज्य एक हो गए, स्पेन की बराबरी करनेवाली अन्य सागरीय शक्ति नहीं रह गई। फिर भी विश्व का बहुत बड़ा व्यापार डच जहाजों द्वारा होता था। उत्तरी समुद्र के मत्स्य व्यापार में डच 15वीं शताब्दी में ही प्रमुख हो गए थे। 17वीं शताब्दी के प्रारंभ में इनके 1,500 से लेकर 2,000 जहाज तक समुद्र परिवहन में लगे हुए थे। भूमध्यसागरीय व्यापार के बहुत से भाग पर भी डच पोतों का अधिकार हो गया। इस शताब्दी में तीन दारुण युद्धों के फलस्वरूप अंग्रेजों की समुद्र पर प्रमुखता स्थापित हुई, किंतु सन् 1775 तक, ऐडैम स्मिथ के कथनानुसार, जहाजों द्वारा परिवहन व्यापार का सबसे अधिक भाग डच हाथों में था। 18वीं शताब्दी उपनिवेश-स्थापन का काल था। उपनिवेशों की आवश्यकताओं और बढ़ते हुए व्यापार ने अंग्रेजी जहाजरानी ने बड़ी उन्नति की। लंदन नाविक बीमे की सबसे बड़ी मंडी हो गया, जिससे सब प्रकार की जहाजी खबरें नियमित रूप से एकत्रित होने लगीं। सन् 1731 में षष्ठक (Sextant) तथा सन् 1735 में कालमापी (Chronometer) का आविष्कार होने से नौचालन अधिक विश्वसनीय हो गया तथा अनेक साहसिक सामुद्रिक अभियानों के फलस्वरूप समुद्रतटों, हवाओं और जलधाराओं संबंधी सूचनाएँ एकत्रित हुई। पहले से कहीं अधिक संख्या में तथा विश्वसनीय, सागरीय मानचित्र तथा नाविक निर्देश तैयार हुए। पूर्वोक्त कारणों से अंग्रेजी नौवहन से निरंतर वृद्धि होती रही तथ सन् 1814 तक ब्रिटिश साम्राज्य के जहाजों का रजिस्टर्ड टन भार 26,16,000 हो गया। इस समय 1,000 टन या इसके अधिक भारवाले सबसे बड़े जहाज ईस्ट इंडिया कंपनी के थे।
भारतीय जहाज
सन् 1344 में इब्न बतूता नामक प्रसिद्ध यात्री मलाबार से मालद्वीप होते हुए चटगाँव गए थे और वहाँ से जहाज पर चढ़कर चीन गए थे। उस समय चटगाँव और उसके दक्षिण में देशी शिल्पियों के जहाज-निर्माण के बहुत से कारखाने थे। इन कारखानों में से कुछ ने सन् 1775 तक अपने शिल्प की प्रसिद्धि अक्षुण्ण रखी थी। इसके कुछ वर्ष पूर्व यहाँ निर्मित तथा भारतीय नाविकों द्वारा परिचालित बकलैंड नामक एक जहाज ने उत्तमाशा अंतरीप होते हुए स्कॉटलैंड की ट्वीड नदी पर यात्रा की थी। अंग्रेज नाविक इस जहाज की बनावट और कार्यक्षमता देखकर आश्चर्यचकित हो गए थे। भारत में व्यापार के लिये स्थापित ईस्ट इंडिया कंपनी ने सन् 1613 में भारतीय नौसेना, इंडियन मैरीन, की स्थापना की, जिसने पुर्तगालियों और डचों के साथ अनेक युद्ध किए। इस सेना के लिये जहाज सूरत में सन् 1735 तक बनते थे। इसी वर्ष बंबई में गोदी बाड़े (dock yard) की स्थापना हुई और जहाज इसमें बनने लगे। सन् 1775 तक यह बाड़ा विश्व के किसी भी अन्य गोदी बाड़े की बराबर कर सकता था और यह बात सर्वमान्य थी कि बंबई में सागौन की लकड़ी के बने जहाज यूरोप में बने जहाजों से श्रेष्ठ होते थे। अंग्रेजी नौसेना के लिये यदि कोई जहाज यूनाइटेड किंग्डम के बाहर बनाना आवश्यक होता था तो वह बंबई में ही बनाया जाता था। सन् 1915 में चटगाँव के एक व्यापारी का भारतनिर्मित, "अमीना खातुम" नामक एक बड़े जहाज का सागर-अवतरण हुआ। तत्कालीन गवर्नमेंट के अंग्रेज मैरीन सवेंयर के मतानुसार "यह विलायती जहाज की अपेक्षा निर्माणकौशल में किसी प्रकार हीन नहीं था। गठन और सुंदरता भी तदनुरूप थी।"
वाष्प का उपयोग
19वीं शताब्दी के प्रांरभ में जहाजों को चलाने के लिये वाष्पशक्ति के उपयोग की ओर ध्यान गया। सन् 1802 में प्रथम सफल स्टीमर का उपयोग फर्थ और क्लाइड नहर पर हुआ। शनै: शनै: स्टीमरों का प्रयोग बढ़ता गया, पर दीर्घ काल तक ये नदियों में, या समुद्र में, छोटी यात्राओं के लिये प्रयुक्त होते रहे। महासागरीय यात्राओं में वाष्प के इंजिनों से केवल पालों के सहायक के रूप में काम लिया जाता था। इसका मुख्य कारण यह था कि वाष्प की सहायता से चलने वाले जहाजों में ईंधन का खर्च अधिक होता था। वाष्प इंजिन से डाँड़ों का काम करनेवाले, तख्ते लगे हुए चक्र (paddle wheel) घुमाए जाते थे और जहाज वैसे ही चलता था जैसा आज भी नदियों के अनेक स्टीमरों में होता है। सन् 1838 में सर्वप्रथम वाष्पचालित चार अंग्रेजी जहाजों ने अंधमहासागर पारकर अमरीका तक की यात्रा की और सन् 1840 से इंग्लैंड और उत्तरी अमरीका के बीच प्रत्येक पखवारे में डाक लाने और ले जाने का काम लगभग 1,150 टन भार के चार स्टीमर करने लगे।
अभी भी जहाज मुख्यत: पालवाले होते थे। अमरीका ने ऐसे जहाजों की निर्माणकला में बहुत उन्नति की। सन् 1843 में "रेनबो" नामक क्लिपर (Clipper) जाति का पाल से चलनेवाला विशेष तीव्रगामी जहाज अमरीका में तैयार किया गया। इस क्षेत्र में दीर्घ काल तक अमरीका सबसे आगे बना रहा। सन् 1856 तब अंग्रेज व्यापारी अपने व्यापार के लिये अमरीकी तीव्रगामी क्लिपर जहाज खरीदते रहे। किंतु पालवाले जहाजों के दिन पूरे हो चुके थे1 धीरे धीरे पाल का स्थान वाष्प इंजिनों ने ले लिया और पहले से कहीं अधिक बड़े जहाज बनने लगे। सन् 1858 में दीर्घकाय, वाष्प की सहायता से और ऐंठे हुए डैनों (screw propellers) से चलनेवाले 18,914 टन के "ग्रेट ईस्टन" नामक जहाज ने इंग्लैंड से अमरीका की यात्रा की। इस बीच इंजिनों की बनावट में सुधार हुआ, जिससे ईंधन का खर्च कम हो गया और लंबी यात्राओं में वाष्प का उपयोग व्यापारियों के लिये संभव हो गया। स्वेज नहर बन जाने पर भारत तथा अन्य दक्षिण एशियाई देशों की यात्रा के बीच के स्थानों में कोयले के संग्रहालय स्थापित किए गए और इस नहर के कारण यात्रा की दूरी भी कम हो गई। वाष्पचालित जहाज जल्दी भी पहुँचते थे। इन बातों के कारण धीरे धीरे पालवाले जहाजों का स्थान इंजिनवाले जहाजों ने ले लिया।
लकड़ी के स्थान पर लोहा
साथ ही साथ जहाज-निर्माण में लकड़ी का स्थान लोहे ने लिया। लकड़ी के साथ लोहे का अधिकाधिक प्रयोग तो बहुत पहले से आरंभ हो गया था, किंतु सन् 1837 में लोहे का सर्वप्रथम अंग्रेजी जहाज तैयार हुआ। इसके पश्चात् भी लकड़ी और लोहा के मिले खुले जहाज बनते रहे, पर सन् 1870 में अंग्रेजी जहाजों के छ: में से पाँच अंश लोहे के तथा तीन चौथाई भाग स्टीम के जहाजों का था। इस वर्ष तक विश्व के सब जहाजों के भार का 16 प्रति शत स्टीमर थे। सन् 1890 तक यह अनुपात 56 प्रति शत हो गया और सन् 1900 तक 62 प्रति शत। यह ध्यान में रखना चाहिए कि बराबर भारवाला स्टीमर पालवाले जहाज से तिगुना या चौगुना माल ढो सकता है। पालवाले जहाजों में क्षति की आंशका अधिक होती है। इसके अतिरिक्त वे वायु पर आश्रित होते हैं तथा यात्रा में उनका समय अनिश्चित और स्टीमरों से अधिक होता है। स्टीमरों के प्रयोग में विशेष उपयोगी बात यह है कि निर्दिष्ट स्थान पर उनके पहुँचने का समय लगभग ठीक ठीक बताया जा सकत है। स्टीमरों की श्रेष्ठता इसी से स्पष्ट है कि यद्यपि सन् 1850 से सन् 1900 की अर्धशताब्दी में इनका कुल भार डेढ़ गुना ही बढ़ा, पर परिवहनशक्ति सात गुनी बढ़ गई।
जहाजों से सभ्यता का विस्तार
परिवहनशक्ति में वृद्धि तथा निश्चित समय पर जहाजों के पहुँच जाने ने महत्व के परिवर्तनों को जन्म दिया। व्यापार की वृद्धि के साथ साथ प्रवासियों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई। उद्योगों में भी उन्नति हुई, क्योंकि कारखानों के लिये कच्चा माल तथा बस्तियों और नगरों के जनपुंजों की आवश्यकता की वस्तुओं का निश्चित समय पर पहुँचना संभव हुआ। अधिक व्यापार तथा यात्रा की सुविधाओं के कारण सब देशों में जीवन का स्तर पहले से अधिक ऊँचा हो गया और सभ्यता का विस्तार हुआ। स्टीमरों के विकास के साथ जहाज उद्योग के संगठन में भी परिवर्तन हुए। स्टीमरों के आगमन के पूर्व निश्चित मार्गों पर चलनेवाले बड़े जहाजों के स्वामी विशेष व्यापारों में लगे धनी वणिक् हुआ करते थे, किंतु अधिकतर जहाजों में अनेक आदमियों का हिस्सा हुआ करता था। इन मालिकों में से योग्य और अनुभवी को चुनकर सब प्रबंध उसके हाथ में सौं दिया जाता था। स्टीमरों का चलन होने पर इनका मूल्य अधिक होने के कारण इस पद्धति का स्थान सम्मिलित पूँजीवाली कंपनियों ने ले लिया। ये कंपनियों ने ले लिया। ये कंपनियाँ कुछ पत्तनों के बीच नियमित रूप से यात्रा करनेवाले बड़े जहाज, जो लाइनर (liner) कहलाते हैं, चलाती है। ये लाइनर निश्चित समय में निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच जाते हैं तथा बीच के स्थानों पर उनके रुकने का समय भी बँधा रहता है। इन जहाजों को नियमित रीति से चलने के लिये विस्तृत तथा व्ययसाध्य संगठन आवश्यक होता है। इसलिये लाइनरोंवाली कंपनियाँ क्रमश: बड़ी व्यापारिक संस्थाएँ हो गई। अलेमीपोन (tramps) या साधारण जहाज किसी बँधे हुए क्षेत्र में काम नहीं करते। वे कुछ समय के लिये, या एक निश्चित यात्रा के लिये, किराए पर किराएदार के इच्छानुसार एक बंदरगाह से दूसरे को माल या यात्री पहुँचाते हैं। इसका मालिक कोई व्यापारी या व्यक्ति होता है। बहुत से ऐसे जहाजों का मालिक कोई कंपनी भी हो सकती है।
नौसेना के लड़ाकू जहाजों के अतिरिक्त साधारण व्यापारी जहाजों ने पिछले दोनों विश्वयुद्धों में महत्व के काम किए। सामान पहुँचाने का काम तो इन्होंने किया ही, प्रहरी के कार्य, मार्गरक्षण तथा अन्य नौसैनिक सहायताओं के लिये व्यक्ति तथा जहाज इन्हीं से प्राप्त हुए। इन युद्धों में अनेक व्यापारी जहाज नष्ट हुए, किन्तु आवश्यकतानुसार जहाजों के निर्माण में भी अतीव वृद्धि हुई। फल यह हुआ कि प्रत्येक युद्ध के पश्चात् कुल जहाजों की परिवहन शक्ति पहले से अधिक हो रही। द्वितीय विश्वयुद्ध में
46,00,000 टन के 700 से अधिक जहाजों के नष्ट हो जाने पर भी युद्ध के अंत में संयुक्त राज्य अमरीका के व्यापारी जहाजों का बेड़ा अन्य सब देशों के संयुक्त व्यापारी बेड़ों से बड़ा था। युद्ध के पश्चात् सन् 1946 में संयुक्त राज्य का कुल निर्यात व्यापार युद्धपूर्व के निर्यात का केवल 14 प्रति शत था, परंतु युद्ध के पश्चात् यह 30 प्रतिशत हो गया। सन् 1947 में संयुक्त राज्य, अमरीका, को छोड़ अन्य सब देशों का निर्यात युद्धपूर्व का 75 प्रति शत, सन् 1948 में 25 प्रति शत तथा सन् 1949 में लगभग वही हो गया था जो युद्धपूर्व था। जून, सन् 1949 तक युद्धोत्तर व्यापार के लिये मालवाहक जहाजों का भार सन् 1936 के भार से 14,00,000 कुल (gross) टन बढ़कर 5,60,000 कुल टन झ्र्संयुक्त राज्य के आरक्षित (reserved) बेड़े को छोड़करट हो गया था। युद्धपूर्व बने जहाजों की तुलना में युद्धोत्तर जहाज साधारणतया अधिक बड़े और तीव्रगामी निर्मित हुए।
भारतीय जहाज उद्योग
विदेशी शासन के पश्चात् भारत के जहाज उद्योग को भारी धक्का लगा। सन् 1860 से 1925 के बीच के समय में जहाजों के निर्माण के लिये 102 कंपनियों की रजिस्ट्री हुई, किंतु विदेशी जहाजी कंपनियों के कठिन विरोध और अंग्रेजी सरकार की नीति के कारण इनमें से अधिकांश का कामकाज बंद हो गया। 20वीं शताब्दी के आरंभ में भारतीय बेड़े के विकास के लिये उद्योग आरंभ हुए और सन् 1919 में सिंधिया स्टीम नेविगेशन कंपनी के स्थापित होने से भारतीय जहाजरानी का एक नया अध्याय आरंभ हुआ, किंतु विदेशी सरकार की उपेक्षा के कारण दीर्घ काल तक विशेष उन्नति न हो सकी। दूसरे विश्वयुद्ध के आरंभ में कुल 15,000 टन के भारतीय जहाज थे1 सन् 1947 में जब देश स्वत्रंत्र हुआ इनका भार 2,50,000 टन हो गया था। स्वाधीनना के पश्चात् देश का व्यापार बढ़ाने तथा रक्षा के लिये भी भारत सरकार ने निश्चय किया कि भारत का तटवर्ती व्यापार, अर्थात् प्रति वर्ष लगभग 25 से 30 लाख टन माल ढोने का काम, भारतीय जहाजों से ही हो तथा पाँच सात वर्षो से भारतीय जहाजों की टन भार-क्षमता 20 लाख टन कर दी जाए। इस कार्यक्रम को पूरा करने के लिये सन् 1950 से पूर्वी जहाजरानी निगम (Eastern shipping Corporation) तथा सन् 1961 में दोनों सम्मिलित होकर भारतीय जहाजरानी निगम हो गए। सन् 1963 के मध्य तक इस निगम के पास 2,01,869 टन भार के 27 जहाज थे, जो तटीय व्यापार के सिवाय आस्ट्रेलिया, जापान, मलाया, पूवी अफ्रीका, कालासागर के देश, ब्रिटेन, अमरीका आदि को आते जाते थे।
सन् 1952 में विशाखपत्तनम् का हिंदुस्तानी शिप यार्ड सरकारी कारखाना बना दिया गया ओर इसने जहाज-निर्माण कार्य में यथेष्ट प्रगति की। भारत सरकार ने देशी जहाजरानी कंपनियों को जहाज खरीदने के लिये प्रथम पंचवर्षीय योजना में 24 करोड़ रुपए और दूसरी योजना में 15 करोड़ का ऋण दिया। योजना आयोग ने तृतीय पंचवर्षीय के अंतर्गत भारतीय जहाजों का कुल टन भार के जहाज तटवर्ती व्यापार और शेष देशांतर व्यापार में काम आते थे। तटवर्ती देशों को तेल ढोने में कुल 24 सहस्र टन भार के तीन देशी जहाज लगे हुए थे। विदेशों से तेल लाने का कार्य 20,400 टन का एक जहाज कर रहा था। आशा है, सन् 1964 के अंत तक इस प्रकार के जहाजों में 87 हजार टन भार की वृद्धि हो जाएगी। दिसंबर, 1963 तक भारतीय जहाजों का कुल भार 13 लाख टन हो गया। चतुर्थ पंचवर्षीय योजना में भारतीय जहाजों का कुल भार 35 लाख टन करने का लक्ष्य रखा गया है। भारतीय जहाज अब निम्नलिखित समुद्रमार्गो पर चल रहे हैं : भारत-यूरोप-ब्रिटेन, भारत-रूस, भारत-पौलैंड, भारत-दक्षिणी अमरीका, भारत-उत्तरी-अमरीका, भारत पूर्वी अफ्रीका, भारत-लाल सागर, भारत ईरान की खाड़ी, भारत-आस्ट्रेलिया, भारत-जापान, भारत-सिंगापुर इत्यादि। मर्चेंट शिपिंग ऐक्ट, नैशनल शिपिंग बोर्ड तथा शिपिंग डेवलेपमेंट फंड द्वारा भारत की वर्तमान सरकार जहाजरानी उद्योग की प्रगति के लिये यथेष्ट चेष्टा कर रही है।
सरकारी सहायता
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् प्रत्येक देश व्यापारी जहाजी बेड़ों पर अधिक ध्यान देने लगा तथा उनके कार्यो पर पहले से अधिक नियंत्रण रखने लगा। प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्वं विविध देशों की सरकारें अपने जहाजी बेड़ों को प्रचुर सहायता नहीं देती थीं, किंतु दो विश्वयुद्धों में राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये व्यापारी जहाजी बेड़ों के महत्व का अनुभव होने पर अनेक देशों ने इनके विस्तार तथा विकास का काम हाथ में लिया और विविध प्रकार से इन्हें सहायता देना आरंभ किया। जहाजी बेड़ों के स्वामियों के सम्ंमुख उपस्थित प्राविधिक तथा अन्य समस्याओं के हल खोजने के लिये अनेक समितियों और परिषदों की भी स्थापना हुई। विविध देशों की सरकारों ने समुद्र पर सुरक्षा, जहाजों पर काम करनेवाले श्रमिकों के कल्याण, एक समान समुद्र नौवहन नियम, जहाज संबंधो कागज पत्रों के समन्वय तथा जलमार्गो की उन्नति के लिये आवश्यक उपाय किए।
संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nations) ने भी अंतर राज्य नाविक संघों द्वारा प्रविधिक उलझनों को सुलझाने का काम द्वितीयय विश्वयुद्ध के पश्चात्, संकटकालीन नौवहन के निर्देशन हेतु स्थापित "संयुक्त नौवहन परामर्शदायिनी समिति (The United Maritime Consultative Council) को सौंपा। सब देशों की सरकारें और जनता आर्थिक लाभ और सुरक्षा के लिये व्यापारी जहाजों के महत्व को अब समझ गई हैं और इस कारण उनकी सर्वांगपीण उन्नति के लिये परम उत्सुक हैं।"
बाहरी कड़ियाँ
- International Commission for Maritime History
- Society for Nautical Research
- Canadian Society for Nautical Research
- North American Society for Oceanic History
- Sociéte française d'histoire maritime
- Nederlandse Vereniging voor Zeegeschiedenis
- The Australian Association for Maritime History
- National Museum of the U.S. Navy
- The Institute of Maritime History , a non-profit institute focused on research, preservation and education in maritime history.