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जलालुद्दीन रूमी

रूमी
रूमी की प्रतिमा बूका
उपाधिमेव्लाना, मवलाना, [1] मेवलावी, मौलवी
जन्म30 सितम्बर 1207
बल्ख,[2] या वख्श,[3][4] Khwarezmian Empire
मृत्यु17 दिसम्बर 1273 (आयु 66)
कोन्या, रूमी सल्तनत
कब्र स्थलमौलाना रूमी का मक़बरा, मौलाना म्यूजियम, कोन्या, तुर्की
जातीयतापर्शियन
युगइस्लामी स्वर्ण युग
क्षेत्रKhwarezmian Empire (बल्ख: 1207–1212, 1213–1217; Samarkand: 1212–1213)[5][6]
Sultanate of Rum (Malatya: 1217–1219; Akşehir: 1219–1222; Larende: 1222–1228; Konya: 1228–1273)[5]
धर्मइस्लाम
सम्प्रदायसुन्नी
न्यायशास्रहनफ़ी
मुख्य रूचिसूफ़ी कविता, हनफ़ी न्यायशास्त्र
उल्लेखनीय कार्यसूफ़ी नृत्य, मराक़बा
उल्लेखनीय कार्यमसनवी-ए मनावी, दीवान-ए शम्स-ए तबरीज़ी, Fīhi mā fīhi
सुफी क्रममौलवी

मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी (३० सितम्बर, १२०७) फारसी साहित्य के महत्वपूर्ण लेखक थे जिन्होंने मसनवी में महत्वपूर्ण योगदान किया। इन्होंने सूफ़ी परंपरा में नर्तक साधुओंं (गिर्दानी दरवेशों) की परंपरा का संवर्धन किया। रूमी अफ़ग़ानिस्तान के मूल निवासी थे पर मध्य तुर्की के सल्जूक दरबार में इन्होंने अपना जीवन बिताया और कई महत्वपूर्ण रचनाएँ रचीं। कोन्या (मध्य तुर्की) में ही इनका देहांत हुआ जिसके बाद आपकी कब्र एक मज़ार का रूप लेती गई जहाँ आपकी याद में सालाना आयोजन सैकड़ों सालों से होते आते रहे हैं।

रूमी के जीवन में शम्स तबरीज़ी का महत्वपूर्ण स्थान है जिनसे मिलने के बाद इनकी शायरी में मस्ताना रंग भर आया था। इनकी रचनाओं के एक संग्रह (दीवान) को दीवान-ए-शम्स कहते हैं।

जीवनी

इनका जन्म फारस देश के प्रसिद्ध नगर बल्ख़ में सन् 604 हिजरी में हुआ था। रूमी के पिता शेख बहाउद्दीन अपने समय के अद्वितीय पंडित थे जिनके उपदेश सुनने और फतवे लेने फारस के बड़े-बड़े अमीर और विद्वान् आया करते थे। एक बार किसी मामले में सम्राट् से मतभेद होने के कारण उन्होंने बलख नगर छोड़ दिया। तीन सौ विद्वान मुरीदों के साथ वे बलख से रवाना हुए। जहां कहीं वे गए, लोगों ने उसका हृदय से स्वागत किया और उनके उपदेशों से लाभ उठाया। यात्रा करते हुए सन् 610 हिजरी में वे नेशांपुर नामक नगर में पहुंचे। वहां के प्रसिद्ध विद्वान् ख्वाजा फरीदउद्दीन अत्तार उनसे मिलने आए। उस समय बालक जलालुद्दीन की उम्र ६ वर्ष की थी। ख्वाजा अत्तार ने जब उन्हें देखा तो बहुत खुश हुए और उसके पिता से कहा, "यह बालक एक दिन अवश्य महान पुरुष होगा। इसकी शिक्षा और देख-रेख में कमी न करना।" ख्वाजा अत्तार ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ मसनवी अत्तार की एक प्रति भी बालक रूमी को भेंट की।

वहां से भ्रमण करते हुए वे बगदाद पहुंचे और कुछ दिन वहां रहे। फिर वहां से हजाज़ और शाम होते हुए लाइन्दा पहुंचे। १८ वर्ष की उम्र में रूमी का विवाह एक प्रतिष्ठित कुल की कन्या से हुआ। इसी दौरान बादशाह ख्व़ाजरज़मशाह का देहान्त हो गया और शाह अलाउद्दीन कैकबाद राजसिंहासन पर बैठे। उन्होंने अपने कर्मचारी भेजकर शेख बहाउद्दीन से वापस आने की प्रार्थना की। सन् ६२४ हिजरी में वह अपने पुत्र सहित क़ौनिया गए और चार वर्ष तक यहां रहे। सन ६२८ हिजरी में उनका देहान्त हो गया।

कोन्या में मौलाना रूमी की मज़ार के अंदर का दृश्य

रूमी अपने पिता के जीवनकाल से उनके विद्वान शिष्य सैयद बरहानउद्दीन से पढ़ा करते थे। पिता की मृत्यु के बाद वह दमिश्क और हलब के विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए चले गये और लगभग १५ वर्ष बाद वापस लौटे। उस समय उनकी उम्र चालीस वर्ष की हो गयी थी। तब तक रूमी की विद्वत्ता और सदाचार की इतनी प्रसिद्ध हो गयी थी कि देश-देशान्तरों से लोग उनके दर्शन करने और उपदेश सुनने आया करते थे। रूमी भी रात-दिन लोगों को सन्मार्ग दिखाने और उपदेश देने में लगे रहते। इसी अर्से में उनकी भेंट विख्यात साधू शम्स तबरेज़ से हुई जिन्होंने रूमी को अध्यात्म-विद्या की शिक्षा दी और उसके गुप्त रहस्य बतलाये। रूमी पर उनकी शिक्षाओं का ऐसा प्रभाव पड़ा कि रात-दिन आत्मचिन्तन और साधना में संलग्न रहने लगे। उपदेश, फतवे ओर पढ़ने-पढ़ाने का सब काम बन्द कर दिया। जब उनके भक्तों और शिष्यों ने यह हालत देखी तो उन्हें सन्देह हुआ कि शम्स तबरेज़ ने रूमी पर जादू कर दिया है। इसलिए वे शम्स तबरेज़ के विरुद्ध हो गये और उनका वध कर डाला। इस दुष्कृत्य में रूमी के छोटे बेटे इलाउद्दीन मुहम्मद का भी हाथ था। इस हत्या से सारे देश में शोक छा गया और हत्यारों के प्रति रोष और घृणा प्रकट की गयी। रूमी को इस दुर्घटना से ऐसा दु:ख हुआ कि वे संसार से विरक्त हो गये और एकान्तवास करने लगे। इसी समय उन्होंने अपने प्रिय शिष्य मौलाना हसामउद्दीन चिश्ती के आग्रह पर 'मसनवी' की रचना शुरू की। कुछ दिन बाद वह बीमार हो गये और फिर स्वस्थ नहीं हो सके। ६७२ हिजरी में उनका देहान्त हो गया। उस समय वे ६८ वर्ष के थे। उनकी मज़ार क़ौनिया में बनी हुई है।

कविता

रूमी की कविताओं में प्रेम और ईश्वर भक्ति का सुंदर समिश्रण है। इनको हुस्न और ख़ुदा के बारे में लिखने के लिए जाना जाता है।

माशूके चूँ आफ़्ताब ताबां गरदद।
आशक़ बे मिसाल-ए-ज़र्र-ए-गरदान गरदद।
चूँ बाद-ए-बहार-ए-इश्क़ जुंबाँ गरदद।
हर शाख़ के ख़ुश्क नीस्त, रक़सां गरदद।

इन्हें भी देखें

दृश्य मालिका

संबंधित कड़ियाँ

सन्दर्भ

  1. Ritter, H.; Bausani, A. "ḎJ̲alāl al-Dīn Rūmī b. Bahāʾ al-Dīn Sulṭān al-ʿulamāʾ Walad b. Ḥusayn b. Aḥmad Ḵh̲aṭībī." Encyclopaedia of Islam. Edited by: P. Bearman, Th. Bianquis, C.E. Bosworth, E. van Donzel and W.P. Heinrichs. Brill, 2007. Brill Online. Excerpt: "known by the sobriquet Mewlānā, persian poet and founder of the Mewlewiyya order of dervishes"
  2. "UNESCO: 800th Anniversary of the Birth of Mawlana Jalal-ud-Din Balkhi-Rumi". UNESCO. 6 September 2007. मूल से 29 June 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 June 2014. The prominent Persian language poet, thinker and spiritual master, Mevlana Celaleddin Belhi-Rumi was born in 1207 in Balkh, presently Afghanistan.
  3. William Harmless, Mystics, (Oxford University Press, 2008), 167.
  4. Annemarie Schimmel, "I Am Wind, You Are Fire," p. 11. She refers to a 1989 article by Fritz Meier:
    Tajiks and Persian admirers still prefer to call Jalaluddin 'Balkhi' because his family lived in Balkh, current day in Afghanistan before migrating westward. However, their home was not in the actual city of Balkh, since the mid-eighth century a center of Muslim culture in (Greater) Khorasan (Iran and Central Asia). Rather, as Meier has shown, it was in the small town of Wakhsh north of the Oxus that Baha'uddin Walad, Jalaluddin's father, lived and worked as a jurist and preacher with mystical inclinations. Franklin Lewis, Rumi : Past and Present, East and West: The Life, Teachings, and Poetry of Jalâl al-Din Rumi, 2000, pp. 47–49.
    Lewis has devoted two pages of his book to the topic of Wakhsh, which he states has been identified with the medieval town of Lêwkand (or Lâvakand) or Sangtude, which is about 65 kilometers southeast of Dushanbe, the capital of present-day Tajikistan. He says it is on the east bank of the Vakhshâb river, a major tributary that joins the Amu Daryâ river (also called Jayhun, and named the Oxus by the Greeks). He further states: "Bahâ al-Din may have been born in Balkh, but at least between June 1204 and 1210 (Shavvâl 600 and 607), during which time Rumi was born, Bahâ al-Din resided in a house in Vakhsh (Bah 2:143 [= Bahâ' uddîn Walad's] book, "Ma`ârif."). Vakhsh, rather than Balkh was the permanent base of Bahâ al-Din and his family until Rumi was around five years old (mei 16–35) [= from a book in German by the scholar Fritz Meier—note inserted here]. At that time, in about the year 1212 (A.H. 608–609), the Valads moved to Samarqand (Fih 333; Mei 29–30, 36) [= reference to Rumi's "Discourses" and to Fritz Meier's book—note inserted here], leaving behind Baâ al-Din's mother, who must have been at least seventy-five years old."
  5. H. Ritter, 1991, DJALĀL al-DĪN RŪMĪ, The Encyclopaedia of Islam (Volume II: C–G), 393.
  6. C. E. Bosworth, 1988, BALḴ, city and province in northern Afghanistan, Encyclopaedia Iranica: Later, suzerainty over it passed to the Qarā Ḵetāy of Transoxania, until in 594/1198 the Ghurid Bahāʾ-al-Dīn Sām b. Moḥammad of Bāmīān occupied it when its Turkish governor, a vassal of the Qarā Ḵetāy, had died, and incorporated it briefly into the Ghurid empire. Yet within a decade, Balḵ and Termeḏ passed to the Ghurids’ rival, the Ḵᵛārazmšāh ʿAlāʾ-al-Dīn Moḥammad, who seized it in 602/1205-06 and appointed as governor there a Turkish commander, Čaḡri or Jaʿfar. In summer of 617/1220 the Mongols first appeared at Balḵ.

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