सामग्री पर जाएँ

जयानक

जयानक पृथ्वीराज चौहान के राजकवि थे। ये पृथ्वीराजविजयमहाकाव्यम् के रचयिता थे।

जयानक को कहीं 'जयनक' और कहीं 'जगनक' भी लिखा गया है। वह कश्मीरी चरित-लेखकों में से एक थे। वह कश्मीर मे जन्मे शासनिक कुल के राव भट थे। वह स्वयं अपने को ऋषि उपमन्यु के कुल का बतलाते हैं। उनका पालन-पोषण देवी शारदा ने किया था जिसको लोग ज्ञान की देवी भी कहते हैं। इससे पता चलता है कि उनकी माता (और पिता भी) का स्वर्गवास उनके बाल्यकाल में हो गया था। कश्मीर से चलकर चाहमान दरबार में वह तराइन के प्रथम युद्ध के पूर्व आये थे, जहाँ चाहमान नरेश, राजकवि पृथ्वीभट्ट तथा अन्य अधिकारियों ने उनका जोरदार स्वागत किया था। जयानक ज्योतिष, तर्क, व्याकरण तथा आगमिक एवं वैदिक परम्पराओं के ज्ञाता थे। वह एक विद्वान् कवि थे। कादम्बरी, किरातार्जुनीय तथा रघुवंश के साथ ही वाल्मीकि के रामायण से वे अधिक प्रभावित एवं प्रेरित थे। उन्होंने भास, व्यास, वाल्मीकि की वन्दना भी की है जिससे उक्त बात स्वतः सिद्ध हो जाती है।

जयानक ने ग्रन्थ-रचना के गुण अपने पूर्ववर्ती-काल से प्रचलित विजय-काव्य परम्परा से ग्रहण किया था। प्राचीन विजेता के चरित-वंश और विजयों के विवरण से भी प्रेरित हुए थे। इस क्षेत्र में वे अपने को वाल्मीकि का अवतार कहते और मानते थे। वाल्मीकि पर ब्रह्मा की और अपने पर शारदा देवी की कृपा मानते थे। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'पृथ्वीराज-विजय' सम्भवतः 1192-1193 के बीच लिखी गयी थी। यह इतिहासविदित तथ्य है कि तराइन के मैदान मे गोरी के साथ पृथ्वीराज का संघर्ष दो बार हुआ था - 1191 ई. में मुहम्मद गोरी पराजित हुआ था, जबकि 1192 में पृथ्वीराज पराजित हो गए। अतएव यह ग्रन्थ इन्हीं वर्षों के बीच में लिखा गया होगा। डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने जयानक की रचना 1200 ई. के आसपास कश्मीर में हुई माना है और कहा है कि उसमें पृथ्वीराज-विजय के कुछ पद हैं, जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि उसकी रचना 1200 ई. के पूर्व ही हुई थी।

इस पुस्तक में उत्तरी राजस्थान (सपादलक्ष देश) के चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय के शौर्य का वर्णन है। इसकी मूल कथा वाल्मीकि रामायण पर आधृत हैं। इसमें पृथ्वीराज को विष्णु का अवतार और राम के समान सूर्यवंशी बतलाया गया है और कहा गया है कि वे ज्येष्ठ सुदी द्वादशी को माता कर्पूर देवी के गर्भ से जन्मे थे। कदम्बवास, भुवनइकमल्ल - ये दोनों (हनुमान् और गरुड़ की तरह) उनके मन्त्री थे। सीतासदृश परी तिलोत्तमा गाहड़वाल राजा जयचन्द की पुत्री संयोगिता के रूप में जन्मी थी और मुहम्मद गोरी को हराकर पृथ्वीराज ने उसे प्राप्त किया था। यहीं कथा का अन्त हो जाता है। पुस्तक के प्रथम भाग में अलौकिक तत्वों का समावेश है, जबकि द्वितीय भाग में ऐतिहासिक साक्ष्यों और अभिलेखों पर अधिक बल दिया गया है।

इस समय इसके अनेक भिन्न-भिन्न पाठान्तर मिलते हैं, परन्तु इन भिन्न-भिन्न स्तरों के विश्लेषण हेतु थोड़ा-सा तो क्या, कुछ भी आलोचनात्मक संशोधन का कार्य अभी तक नहीं किया गया, ऐसा प्रतीत होता है। फिर भी जितना प्राप्य है उसी के आधार पर उसकी ऐतिहासिक समीक्षा की जाती है तो वह पुस्तक हमें 'भारतीय परम्परा का इतिहास' दृष्टिगोचर होती है। उसमें भारतीय इतिहास-दर्शन की स्पष्ट झालक दिखलायी देती है; यद्यपि वह आधुनिक इतिहास-रचना के गुणों से युक्त नहीं है। आगे, हमने उसके इतिहास-दर्शन का अवलोकन प्रस्तुत किया है।[1]

सन्दर्भ

  1. इतिहास दर्शन ; पृष्ठ ७८ Archived 2015-12-08 at the वेबैक मशीन (लेखक - परमानद सिंह)

इन्हें भी देखें