चित्तविभ्रम
चित्तविभ्रम अर्थात् डेलीरियम (Delirium) मानसिक संभ्रांति की उस अवस्था को कहते हैं जिसमें अचेतना, अकुलाहट और उत्तेजना पाई जाती है। इसमें असंबद्ध विचारों के साथ साधारण भ्रम और मतिभ्रम के मायाजाल मस्तिष्क की स्वाभाविक चेतना को धूमिल कर देते हैं।
चित्तविभ्रम का प्रमुख भाव एक प्रकार का भय होता हैं, जिसमें संशय और आशंका का पुट रहता है। इसके साथ मस्तिष्क की उत्तेजना और शारीरिक उथल पुथल एवं अंगों की विचित्र हलचल भी देखने को मिलती है। रोगी में आसपास के वातावरण के संबंध में जो निर्मूल अनुमान और भ्रामक धारणाएँ पाई जाती हैं, वे संदेहजनक सुरक्षात्मक ढंग की रहती हैं। इसका आधार हानि की कल्पनिक आशंका में निहित रहता है।
चित्तविभ्रम में दिन की अपेक्षा रात्रि में रोगी की अवस्था अधिक चिंताजनक हो जाती है।
कारण
सभी चित्तविभ्रम यथार्थ में मस्तिष्क की रासायनिक प्रक्रियाओं में दोष उत्पन्न हो जाने के कारण होते हैं। यह बाधा कई कारणों से हो सकती हैं :
(1) मादकता - निरंतर मदिरासेवन से, किसी रोग के फलस्वरूप दुर्घटनावश, आकस्मिक प्रहार, मदिराव्यसनी को मदिरा न मिलने पर;
(2) संक्रामक रोग से;
(3) स्वयं मस्तिष्क की व्याधियों के कारण;
(4) परिश्रांति और घोर श्रम से;
(5) रसायन के प्रयोग से।
उन्माद में यह आवश्यक नहीं है कि मस्तिष्क में कोई रचना संबंधी दोष परिलक्षित हो।
चित्तविभ्रम के प्रकार
मदिराविभ्रम - लगातार मदिरापान से;
समवसादीय - शारीरिक थकावट, या घोर अवसाद की स्थिति में;
कंपोन्माद - मदिरासक्त को मदिरा न मिलने पर;
आकार संबंधी विभम - इसमें व्यक्ति अपने आपको अत्यंत विशालकाय, या अति लघु आकार का, समझने लगता है।
भावनात्मक - मन की अवस्था जिसमें व्यक्ति किसी भी असत्य बात को सच मानकर बैठ जाता है;
चेतना संबंधी - शल्यक्रिया या मास्तिष्की रोग के बाद;
तीक्ष्ण उन्माद - गहरे आक्षेप और कभी कभी मृत्यु;
जराजनित - बुढ़ापे के कारण उत्पन्न चित्तभ्रम;
स्वप्नजनित - स्वप्नावस्था का उन्माद, जो जागने पर भी बहुधा चलता रहता है;
शांत विभ्रम - चुपचाप बुदबुदाना।
चिकित्सा और परिचर्या
उन्माद में सर्वप्रथम मूलभूत कारणों का निर्धारण अवश्य कर लेना चाहिए। यथोचित मात्रा में आवश्यक पोषक तत्वों का सेवन करना और रक्त का अनुकूल प्रवाह बनाए रखना चाहिए। रोगी का निरीक्षण ध्यान से करते रहना चाहिए, जिससे उसे उत्तेजना और आवेश के संकट से बचाया जा सके। विशिष्ट शमक (sedative) और संमोहक ओषधियों का प्रयोग आवश्यकता होने पर किया जा सकता है, लेकिन ऐसा किसी योग्य चिकित्सक की देखरेख में ही सावधानीपूर्वक करना चाहिए। परिवर्तनशील और अपरिचित वातावरण उन्माद के लक्षणों को बढ़ा देता है, अत: रोगी के आसपास अधिक से अधिक सुपरिचित, घरेलू, सरल और शांत वातावरण बनाए रखने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए।