चालीस मुक्त
गुरू गोविन्द सिंह जी ने मुगलों के विरूद्ध 1705 ई. में आखिरी लड़ाई मुक्तसर में लडी थी। इस लड़ाई के दौरान गुरू जी के चालीस शिष्य शहीद हो गए थे। गुरू जी के इन चालीस शिष्यों को चालीस मुक्तों के नाम से भी जाना जाता है। इन्हीं के नाम पर उस जगह का नाम मुक्तसर रखा गया था।
माना जाता है कि अपने चालीस शिष्यों के आग्रह पर ही गुरू जी ने आनंदपुर साहिब किले को छोड़ा था। कुछ समय बाद इस जगह को मुगल सैनिकों द्वारा घेर लिया गया था। गुरू जी ने अपने शिष्यों से कहा था कि अगर वह चाहे तो उन्हें छोड़कर जा सकते हैं लेकिन उन्हें यह बात लिख कर देनी होगी। उन्हें यह लिखना होगा कि वह अब गुरू के साथ रहना नहीं चाहते हैं और अब वह उनके शिष्य नहीं है। जब सभी शिष्य वापस लौट कर अपने-अपने घर में गए तो उनके परिवार के सदस्यों ने उनका स्वागत नहीं किया और कहा कि वह मुसीबत के समय में गुरू जी को अकेले छोड़कर आ गए है। शिष्यों को अपने ऊपर शर्म आने लगी और उनकी इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह दुबारा से गुरू गोविन्द सिंह का सामना कर सकें। कुछ समय बाद समय बाद मुगल सैनिकों ने गुरू जी को ढूंढ लिया। इस जगह के समीप ही एक तालाब था जिसे खिदराने दी ढाब कहा जाता था, गुरू जी के चालीस सिक्खों ने मुगल सैनिकों से यहीं पर युद्ध किया था और इस लड़ाई में वह सफल भी हुए थे। तभी से गुरू जी इन चालीस शिष्यों को चालीस मुक्तों के नाम से, मुक्ति का "सर" (सरोवर) जाना जाता है।
गुरुद्वारों में रोज़ाना पढ़ी जाने वाली अरदास में जिन बलिदानियों को याद किया जाता है, उनमें इन चालीस मुक्तों का भी नाम है।