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चर्मपत्र

सन् १६३८ में महीन चर्मपत्र पर लिखा एक अंग्रेजी संविदा

चर्मपत्र बकरी, बछड़ा, भेड़ आदि के चमड़े से निर्मित महीन पदार्थ है। इसका सबसे प्रचलित उपयोग लिखने के लिये हुआ करता था। चर्मपत्र, अन्य चमड़ों से इस मामले में अलग था कि इसको पकाया (टैनिंग) नहीं जाता था किन्तु इसका चूनाकरण अवश्य किया जाता था। इस कारण से यह आर्द्रता के प्रति बहुत संवेदनशील है।

इतिहास

ऐसा कहा जाता है कि परगामम (Pergamum) के यूमेनीज़ (Eumenes) द्वितीय ने, जो ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी में हुआ था, चर्मपत्र (Prchment) के व्यवहार की प्रथा चलाई, यद्यपि इसका ज्ञान इसके पहले से लोगों को था। वह ऐसा पुस्तकालय स्थापित करना चाहता था जो एलेग्ज़ैंड्रिया के उस समय के सुप्रसिद्ध पुस्तकालय सा बड़ा हो। इसके लिये उसे पापाइरस (एक प्रकार के पेड़ की, जो मिस्त्र की नील नदी के गीले तट पर उपजता था, मज्जा से बना कागज जो उस समय पुस्तक लिखने में व्यवहृत होता था) नहीं मिल रहा था। अत: उसने पापाइरस के स्थान पर चर्मपत्र का व्यवहार शुरू किया। यह चर्मपत्र बकरी, सुअर, बछड़ा या भेड़ के चमड़े से तैयार होता था। उस समय इसका नाम कार्टा परगामिना (charta pergamena) था। ऐसे चर्मपत्र के दोनों ओर लिखा जा सकता था, जिसमें वह पुस्तक के रूप में बाँधा जा सके।

निर्माण

बकरी के चर्म से निर्मित चर्मपत्र, लकड़ी के सांचे में ताना हुआ

चर्मपत्र तैयार करने की आधुनिक रीति वही है जो प्राचीन काल में थी। बछड़े, बकरी या भेड़ की उत्कृष्ट कोटि की खाल से यह तैयार होता है। खाल को चूने के गड्ढे में डुबाए रखने के बाद उसके बाल हटाकर धो देते हैं और फिर लकड़ी के फ्रेम में खींचकर बाँधकर सुखाते हैं। फिर खाल के दोनों ओर चाकू से छीलते हैं। मांसवाले तल पर खड़िया या बुझा चूना छिड़ककर झाँवे के पत्थर से रगड़ते हैं और तब पुन: फ्रेम पर सुखाते हैं। फिर खाल को एक दूसरे फ्रेम पर स्थानांतरित करते हैं जिसमें खाल पर पहले से कम तनाव रहता है। दानेदार तल को फिर चाकू से छीलकर उसे एक सी मोटाई का बना लेते हैं। यदि फिर भी खाल असमतल रहती है तो सूक्ष्म झाँवे से रगड़कर उसे समतल कर लेते हैं। ऐसा चर्मपत्र सींग सा कड़ा होता है, चमड़े सा नम्य नहीं। आर्द्र वायु में यह सड़कर दुर्गंध दे सकता है।

आजकल कृत्रिम चर्मपत्र भी बनता है। इसे "वानस्पतिक चर्मपत्र" भी कहते है। यह वस्तुत: एक विशेष प्रकार का कागज होता है, जो अचार और मुरब्बा रखने के घड़ों या मर्तबानों के मुख ठकने, मक्खन, मांस, र्सांसेज और अन्य भोज्य पदार्थ लपेटने में व्यवहृत होता है। इस पर वसा या ग्रीज़ का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और न ये इसमें से होकर भीतर प्रविष्ट ही होते हैं। जल भी इसमें प्रविष्ट नहीं होता।

कृत्रिम चर्मपट बनाने के दो तरीकें हैं। एक में असज्जीकृत कागज को कुछ सेकंड तक सांद्र सलफ्यूरिक अम्ल (विशिष्ट घनत्व 1.69) में डुबाकर, फिर तनु ऐमानिया से धोते हैं।

दूसरे में पल्प बनानेवाले रेशों को बहुत समय तक पानी की उपस्थिति में दबाते, कुचलते और रगड़ते है। इसमें सिवाय अल्प स्टार्च के अन्य कोई सज्जीकारक प्रयुक्त नहीं करते।

कृत्रिम चर्मपत्र का परीक्षण मोमबत्ती की छोटी ज्वाला में जलाकर करते हैं। ऐसी ज्वाला से कृत्रिम पत्र में छोटे छोटे बुलबुले निकल आते हैं। भाप के कारण ये बुलबुले बनते हैं, जो ऊपरी तल से बाहर न निकल सकने के कारण दिखाई पड़ते हैं। असली चर्मपत्र में बुलबुले नहीं बनते।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ