चन्द्रगुप्त (नाटक)
शीर्षक : चंद्रगुप्त नाटक की कथावस्तु
जयशंकर प्रसाद कृत ‘चन्द्रगुप्त’ (नाटक)
जयशंकर प्रसाद का ‘चंद्र्गुप्न नाटक’ महत्वपूर्ण बिंदु समीक्षा और पात्र परिचय
· प्रसाद के सम्पूर्ण नाटकों में सबसे विस्तृत, प्रौढ़ नाट्यकृति चन्द्रगुप्त है।
· प्रसाद जी ने 1912 ई० में ‘कल्याणी परिचय’ शीर्षक एक लघु नाटिका लिखी थी
· चन्द्रगुप्त नाटक के चतुर्थ अंक में ‘कल्याणी परिचय’ नाटिका को कुछ परिवर्तन करके इसी नाटक में शामिल कर दिया था।
· चन्द्रगुप्त नाटक का प्रकाशन 1931 में हुआ था।
· इस नाटक में कुल चार (4) अंक और चौआलीस (44) दृश्य है। इनमे गीतों की संख्या तेरह (13) है।
· प्रथम अंक में ग्यारह दृश्य है, दूसरा अंक में दस दृश्य, तीसरा अंक में नौ दृश्य और चौथे अंक में चौदह दृश्य है
नाटक के पुरुष पात्र
नाटक के उन्नीस (19) पुरुष पात्र है।
चाणक्य (विष्णुगुप्त) मौर्य साम्राज्य का निर्माता। मुख्य पात्र।
चंद्रगुप- मौर्य-सम्राट नाटक का नायक जो निर्भीक, दृढ़ और आत्मविश्वास से परिपूर्ण है।
नन्द- मगध का सम्राट।
राक्षस- मगध का अमात्य।
वररुचि (कात्यायन)- मगध का अमात्य।
शकटार- मगध का मंत्री।
आम्भिक- तक्षशिला का राजकुमार।
पर्वतेश्वर- पंजाब का राजा (पोरस)।
सिंहरण- मालव गण-मुख्य का कुमार, जो गौण पात्र है।
सिकंदर- ग्रीक विजेता।
फिलिप्स- सिकंदर का क्षत्रप।
मौर्य सेनापति- चन्द्रगुप्त का पिता।
एनिसाक्रिटीज- सिकंदर का सहचर।
देवबल, नागदत्त, गण-मुख्य, मालवा- गणतंत्र के पदाधिकारी।
साईबर्तियस, मेगास्थनीज- यवन दूत।
गांधार-नरेश- आम्भिक का पिता।
सिल्यूकस- सिकंदर का सेनापति।
दण्डयायन- एक तपस्वी।
स्त्रीपात्र
अलका- तक्षशिला की राजकुमारी
कल्याणी- मगध-राजकुमारी
नीला, लीला- कल्याणी की सहेलियाँ
मालविका- सिन्दू-देश की कुमारी मुख्य नारी पात्र। एक संधर्षशील, स्वाभिमानी स्त्री, जो अशिक्षित भी है।
कार्नेलिया- सिल्यूकस की पुत्री
एलिस- कार्नेलिया की सहेली
चन्द्रगुप्त नाटक की कथा को चार भागों में विभक्त किया गया है-
1. सिकंदर का भारत पर आक्रमान और प्रत्यावर्तन।
2. मगध सम्राट नंद का विनाश और चन्द्रगुप्त को मगध का सिंहासन।
3. चन्द्रगुप्त की सुदूर दक्षिण भारत में विजय और मगध के षड्यंत्रों की समाप्ति।
4. आक्रमणकारी सेल्यूकस का पराजय और उसकी पुत्री के साथ चन्द्रगुप्त का विवाह।
चन्द्रगुप्त नाटक में चन्द्रगुप्त के राजनितिक कथा के साथ-साथ अन्य कई कथाओं को भी सम्मिलित किया गया हैं। जैसे- सिंहरण कल्याणी की कथा, चन्द्रगुप्त मालविका की कथा, चन्द्रगुप्त कल्याणी की कथा, चन्द्रगुप्त कार्नेलिया की कथा, शकटार नंद की कथा, पर्वतेश्वर और कल्याणी की कथा।
प्रथम अंक –
· चन्द्रगुप्त नाटक के प्रथम अंक में तक्षशिला के गुरुकुल के मठ का चित्रण है। जिसमे चाणक्य और सिंहरण का वार्तालाप है।
· इस अंक में अलक्षेन्द्र का आक्रमण होता है। नंदकुल का विनाश होता है, और सभी पात्रों को संधर्षरत दिखाया गया है।
प्रथम अंक में ग्यारह दृश्य और दो गीत हैं –
प्रथम दृश्य: स्थान तक्षशिला के गुरुकुल में पाँच प्रमुख पात्रों का दर्शन होता है। चाणक्य, चन्द्रगुप्त, सिंहरण, अलका, आम्भीक। इन पाँचों की चारित्रिक विशेषताएँ संकेत से प्राप्त हो जाती हैं। चाणक्य, चन्द्रगुप्त और सिंहरण के बीच बातचीत करके राष्ट्र के ऊपर आने वाली भावी संकटकालीन स्थिति की ओर संकेत करता है। इसी दृश्य में ब्राहमणों पर गर्व करने वाले चाणक्य की राजनैतिक दूरदर्शिता, उद्देश्य एवं बुद्धि की कुशलता के भी दर्शन होते है। इसके साथ ही साथ सिंहरण के प्रति अलका के प्रेम का आकर्षण, उसकी निष्कपटता और राष्ट्रीय भावना का संकेत मिलता है। आम्भीक के ये शब्द ‘बस-बस, दुर्धर्ष युवक! बता तेरा अभिप्राय क्या है? तुम सब कुचक्र में लिप्त हो; चुप रहो। अलका, ऐसी बात नही है, जो यों ही उड़ा दी जाए। सिंहरण और आम्भीक की झड़प, चाणक्य और आम्भीक की बातचीत, चन्द्रगुप्त का सिंहरण के प्रति मित्रता का व्यवहार, अलका और सिंहरण का स्निग्धातापूर्ण वार्तालाप मुख्य घटनाएँ हैं।
दृश्य: इस अंक में मगध और सम्राटों के विलासिता को दिखाया गया है। जिसमे विलासी युवक और युवतियों का विकार दिखाई देता है। वही नंद राक्षस व सुवासिनी हैं। यहीं पर सुवासिनी व राक्षस का एक गीत आता है।
तीसरा दृश्य: पाटलिपुत्र के एक भग्नकुटीर में चाणक्य को अकेला दिखाया जाता है। भावुक चाणक्य अपने जन्म स्थान को देखकर एवं अपने पिता तथा शकटार के वंश पर राजकीय विपत्तियों का संकेत पाकर विषय की दिशा का दृढ़ निश्चय करता है। राज्य उलट देने तक आवेश में उदासीन होकर जीवन व्यतीत करने का निश्चय करता है। ये दोनों प्रवृतियाँ उसके मानसिक द्वन्द्व का सूचक हैं। शैशव-काल की स्मृति उसकी हार्दिक भावना की ओर संकेत करती है। घरों को ‘पशु की खोह’ कहकर उसका संकोच, बौद्ध धर्मानुयायी उसकी प्रवृति, नन्द की ब्राह्मण-जाति के प्रति उपेक्षा, चाणक्य के हृदय में नन्द के प्रति विरोध एवं प्रतिकार की भावना का बिजारोपण करती है। इसी दृश्य में चाणक्य मगध को उलट देने का संकल्प लेता हुआ खम्भा खींचकर गिरा देता है और चला जाता है।
चौथा दृश्य: कुसुमपुर के सरस्वती-मंदिर के उपवन के पथ में राक्षस और सुवासिनी मिलते है। अपने जीवन के मधुमय भविष्य की रुपरेखा एक दूसरे के सामने रखते हैं। सुवासिनी अपना अविचल प्रेम राक्षस के प्रति प्रकट करती है। बाद में, प्रेम की बलिवेदी पर मर-मिटने के लिए दृढ़ निश्चयी होकर सुवासिनी के कथानुसार ही बौद्धमत का समर्थक बनने को तत्पर हो जाता है। तभी राजकुमारी कल्याणी अपनी सखी नीला के साथ आती है, जो उसे तक्षशिला से लौटे हुए स्नातकों की सूचना देती है। उसी उपवन में दो ब्रह्मचारियों का प्रवेश होता है।
पांचवा दृश्य: मगध में नंद की राजसभा का दृश्य है। यहाँ अमात्य राक्षस के साथ-साथ नन्द को तक्षशिला से लौटे हुए स्नातकों के शिक्षा पूर्ण करने की सूचना मिलती है। वरिष्ट मंत्री वररुचि की तक्षशिला विश्वविधालय के प्रति सम्मानपूर्ण भावना प्रकट होती है। उसी सभा में चाणक्य का प्रवेश होता है, जो राज्य पर आने वाले संकट की चेतावनी देता है वह ब्राहमण-धर्म की पुष्टि करता हुआ बौद्ध धर्म की शिक्षा मानव-व्यवहार और राष्ट्र-रक्षा के लिए अधूरी बतलाता है। उसने यह भी बतलाया कि उसने तक्षशिला विधालय में अध्यापक का कार्य करके मगध राज्य का सम्मान बढ़ाया है। अंत में चाणक्य के कथनों से नन्द उसे विद्रोही ब्राहमण कहकर निकालने की आज्ञा देता है। चंदगुप्त गुरु के सम्मान की रक्षा करना चाहता है। नन्द चाणक्य की चोटी खिंचवाकर सभा से निकलवा देता है। अंत में चाणक्य बंदी बना लिया जाता है।
छठा दृश्य: इस दृश्य में सिन्धु नदी के तट पर अलका, मालविका और सिंहरण मंच पर आते है। मालविका उद्भाण्ड का एक चित्र अलका को देती है। उसी चित्र को छिनने के लिए एक यवन गुप्तचर आता है। इसमें यवन, सिंहरण और सैनिक के बीच संवाद है। अंत में अलका को राजद्रोही सिद्ध करके बंदी बनाना चाहते हैं, पर अलका स्वतः ही बंदी होकर गांधार नरेश के पास जाती है।
सातवां दृश्य: स्थान मगध का बंदीगृह का दृश्य है। यहाँ राष्ट्र-कल्याण एवं सम्पूर्ण आर्यावर्त के गौरव की रक्षा में चिंतित बंदी चाणक्य दिखाया जाता है। इस अवस्था में उसका यह प्रण कि ‘दया न किसी से माँगूँगा और न अधिकार तथा अवसर मिलने पर किसी पर दया नहीं करूँगा।’ चाणक्य, राक्षस और वररुचि के मध्य संवाद है। इसी दृश्य में चन्द्रगुप्त चाणक्य को मुक्त करवाकर ले जाता है।
आठवां दृश्य: गंधार नरेश का प्रकोष्ठ है। राजा, अलका, आम्भीक तीनों ही मंच पर आते हैं और अपनी-अपनी मनोवृति की झलक दिखाते हैं। अलका-बंदी के रूप में राजा (अपने पिता) से न्याय कराने के लिए आती है। वह कहती है कि “मैं अपराधिनी हूँ, मुझे दण्ड मिलना चाहिए।” अंत में अलका राष्ट्र प्रेम की चिंगारी की अभिव्यक्ति करती हुई और अपने भाई को कुलद्रोही बतलाती हुई राष्ट्र रक्षा के लिए पिता से आज्ञा मांगकर घरबार छोड़कर चली जाती है। राजा अलका को खोजने जाता हूँ कहकर वेग से प्रस्थान हो जाता है।
नौवा दृश्य: इस दृश्य का स्थान पर्वतेश्वर की राजसभा है। जहाँ चाणक्य और पर्वतेश्वर के बीच संवाद होता है। चाणक्य बड़े बुद्धि-कौशल से पर्वतेश्वर को बता देता है कि आने वाली विपत्ति सम्पूर्ण आर्यावर्त के लिए हानिकारक है।
दसवां दृश्य: कानन पथ है। प्रारंभ में अलका और सिल्युकस की भेंट होती हैं। पुनः चाणक्य और चन्द्रगुप्त का प्रवेश होता है। व्याघ्र की घटना से चन्द्रगुप्त और सिल्युकश का साक्षात कराया गया है। व्याघ्र से अपनी रक्षा सिल्यूकस द्वारा हुई यह जानकार चन्द्रगुप्त उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता है। चाणक्य चन्द्रगुप्त को यवन सेनापति के साथ-साथ बातें करते हुए देखकर अलका के मन में संदेह होता और वह महात्मा दण्डयायन के आश्रम में चली जाती है।
ग्यारहवा दृश्य: सिंधु तट पर महात्मा दण्डयायन का आश्रम है। भारतीय महान दार्शनिक दण्डयायन अपनी कुटिया के आगे बैठे हुए प्रकृति से बातें करता है। जहाँ एनिसाक्रिटीज, अलका, चन्द्रगुप्त, यवन, चाणक्य, सिकंदर और सिल्यूकस का प्रवेश होता है। इसी दृश्य में दाण्डयायन अलक्षेन्द्र से चन्द्रगुप्त को दिखाकर कहता है। देखो, यह भारत का भावी सम्राट तुम्हारे सामने बैठा है। यह सुनकर सभी स्तब्ध हो चन्द्रगुप्त को देखने लगते है और चंद्रगुप्त कार्नेलिया को देखने लगता है।
द्वितीय अंक
· पश्चिमोत्तर प्रान्त की राजनीतिक स्थिति को प्रस्तुत किया गया है।
· फिलिप्स के चंगुल से कार्नेलिया का चन्द्रगुप्त द्वारा उद्धार।
· इन सबके बाद कार्नेलिया का चन्द्रगुप्त का अपना बन जाना दिखाई देता है।
· विदेशी सेना की यथास्थिति चाणक्य को प्राप्त हो जाना।
· मगध का पुनः समस्त कार्य-व्यापारों का केंद्र बन जाना।
· चन्द्रगुप्त का दोनों गणतंत्रों का सेनापति बनना।
द्वितीय अंक में दस दृश्य और तीन गीत हैं
प्रथम दृश्य: इस दृश्य में फिलिप्स और कार्नेलिया, चन्द्रगुप्त और सिकंदर आदि कई विपक्षी हैं। जिसका परिचय प्रथम अंक के सभी दृश्यों से मील चूका है। सिंधु के किनारे ग्रीक-शिविर के पास वृक्ष के नीचे कार्नेलिया के बैठे होने का दृश्य है। उसका हृदय भारत की प्राकृतिक शोभा से विमुग्ध है। यहीं पर वह बड़ी तल्लीनता से भारत-भक्ति का एक गीत गाती है- ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’। उसी समय दुष्प्रवृति वाला फिलिप्स शिविर में प्रवेश करता।
दूसरा दृश्य: झेलम तट का वन पथ है। पहले चाणक्य, चन्द्रगुप्त और अलका का प्रवेश होता है। ये तीनों सिंहरण की प्रतीक्षा करते हुए बातें करते हैं। गांधार-राज, सिंहरण, कल्याणी, सेनापति और पर्वतेश्वर के बीच वार्तालाप चल रहा है।
तीसरा दृश्य: स्थान युद्धक्षेत्र है। पर्वतेश्वर सेनापति को कहता है कि “मैं स्वयं गज का संचालन करूँगा।” यह कहकर वह स्वयं गज सेना का संचालन करने के लिए तैयार हो जाते हैं। उसी समय वेश बदले हुए चन्द्रगुप्त और कल्याणी प्रवेश करते हैं। उनके वार्तालाप से यह प्रकट होता है कि कल्याणी चन्द्रगुप्त से प्रेम करती है। चन्द्रगुप्त को देश की दुर्दशा के प्रति चिंता है।
चौथा दृश्य: स्थान मालव में सिंहरण के उद्यान का एक अंश है। प्रारंभ में कोमल-कल्पनामयी मालविका और अतृप्त चन्द्रगुप्त के बीच बातचीत होती है। चन्द्रगुप्त स्निग्ध भावना से यह कहकर की “रण भेरी के पहले यदि मधुर मुरली की एक तान सुन लूँ तो कोई हानि नहीं होगी।” तभी चाणक्य का प्रवेश होता है। वह चन्द्रगुप्त को कोमल और असामयिक बातों से वर्जित करके यवन-सेना की गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करने चला जाता है।
पाँचवा दृश्य: स्थल- बंदीगृह का है। घायल सिंहरण और अलका का वार्तालाप होता है। अलका सिंहरण को यह बता देती है कि बंदी होना आचार्य चाणक्य को ज्ञात है। अंत में अलका पर्वतेश्वर के साथ, चाणक्य की आज्ञा से प्रणय का स्वांग रचकर उसे सिकंदर को भावी आक्रमण में सहायता नहीं देने के लिए बाध्य कर देती है और वह अपने इसी कपट पूर्ण प्रेम के बल पर सिंहरण को मुक्त करा देती है। इस दृश्य में अलका का गीत है- “प्रथम यौवन-मदिरा से मत, प्रेम करने की थी परवाह।”
छठा दृश्य: इस दृश्य में मालवों के स्कंधावार में युद्ध-परिषद का आयोजन होता है। मालव और क्षुद्रकों की सम्मिलित सेना का सेनापति प्रारम्भ में नागदत्त आदि के विरोध करने का भी सिंहरण की अभिलाषानुसार चन्द्रगुप्त बनाया जाता है। व्यासपीठ से चाणक्य का वक्रता और ओजपूर्ण व्याख्यान होता है। जिसमें यह भी संकेत मिल जाता है कि ‘यवन सहायता के लिए पर्वतेश्वर की सेना नहीं आयेगी’ यवन सेना में विद्रोह भी हो गया है।
सातवां दृश्य: यह दृश्य बहुत ही छोटा है। पर्वतेश्वर के प्रासाद में अलका और पर्वतेश्वर अपनी विषम समस्या अलका के सम्मुख रखता है। क्योंकि वह अपनी प्रेयसी अलका के सम्मुख मालव युद्ध में भाग लेने के लिए प्रतिश्रुत हो चूका है। उधर सिकंदर आठ सहस्त्र अश्वारोही मांगे हैं। ऐसी स्थिति में ही अलका समझा देती है कि सिकंदर के साथ संधि नहीं, पराधीनता को स्वीकार किया गया है। पर्वतेश्वर एक हजार अश्वारोहियों को लेकर सिकंदर की ओर जाने की योजना बनाता है- उसी समय अलका भी साथ में जाना चाहती है। यहाँ पर अलका को गीत गाने की इच्छा होती है, पर्वतेश्वर गीत सुनोगे? यह कहकर गीत गाती है- “बिखरी किरन अलक व्याकुल हो विरस वदन पर चिंता लेख।”
आठवां दृश्य: रावी के तट पर सैनिकों के साथ मालविका और चन्द्रगुप्त का प्रवेश होता है। बातचीत में युद्ध के अनुकूलता के वातावरण की शीघ्रता प्रकट होती है। उसी समय सिंहरण का प्रवेश होता है। चन्द्रगुप्त उससे यवनों की जलसेना पर आक्रमण करने को इसलिए कहता है कि जिससे उसकी सामग्री नष्ट हो जाए। उसी समय मालविका अलका को आकर यह सूचना देती है कि पर्वतेश्वर प्रतिज्ञा-भंग कर सिकंदर की सहायता के लिए आया है। सिकंदर के दूत को निरादर करके सिंहरण लौटा देता है। अंत में, सिंहरण और चन्द्रगुप्त के वार्तालाप से भारतीय राजनीति की यवन राजनीति से श्रेष्ठता सिद्ध होती है और इस समय चन्द्रगुप्त सिंहरण को यवन राजनीति से लड़ने के लिए सलाह देता है।
नौवां दृश्य: शिविर के समीप कल्याणी आर्य चाणक्य से मगध लौटने की आज्ञा माँगती है, पर मनोविज्ञान का पण्डित चाणक्य उसे चन्द्रगुप्त के प्रेमपूर्ण हृदय को ठेस लगाने का भय दिखाकर रोक लेता है। उसी समय राक्षस का प्रवेश होता है। उसे वह भावी भय की आशंका दिखाकर उसकी राज्य-भक्ति अथवा मगध के प्रति प्रेम को उतेजित करते हुए एवं आशंका उत्पन्न करके रोक लेता है। इन दोनों के यहाँ रहने में ही उसे लाभ होने की सम्भावना है।
दसवां दृश्य: यह दूसरे अंक का अंतिम दृश्य है। मंच पर मालव मालवा-दुर्ग का भीतरी दरवाजा दिखाया जाता है। अलका और मालविका का वार्तालाप होता है। दोनों स्त्रियों की बातचीत से स्त्री सुलभ प्रवृतियाँ प्रकट होती है। अलका में पुरुषोचित पौरुष विद्यमान है, तभी वह आयुध रखने के लिए आग्रह करती है। मालविका का हृदय कोमलता और दया से परिपूर्ण है तभी वह कहती है- “मैं डरती हूँ, रक्त की प्यासी छुरी अलग करो अलका, मैंने सेवा-व्रत लिया है!” उसी समय शीघ्रता से सिकंदर और सिंहरण एक दूसरे पर वार करते हुए प्रवेश करते हैं। यवनराज सिंहरण के भयानक प्रत्याघात से घायल होकर गिरता है। सिंहरण सिकंदर को प्राणदान देकर छोड़ देता है। पीछे से यवन सेना दुर्ग-द्वार तोडती हुई भीतर प्रवेश करती है। सिंहरण वीरता एवं उत्साहपूर्वक मालवों को विश्वस्त कराता है। उसी समय चन्द्रगुप्त और सिल्यूकस का प्रत्याघात करते हुए प्रवेश होता है। अंत में कृतज्ञता का बोझ हल्का करने के लिए चन्द्रगुप्त उसे भी छोड़ देता है।
तृतीय अंक
· चाणक्य के ज्ञान और बुद्धि से चन्द्रगुप्त को शक्तिशाली बनना और नंद का विनाश करना।
· चंदगुप्त को समस्त प्रजा के द्वारा राजा के रूप में स्वीकारना।
तृतीय में नौ दृश्य और एक गीत है –
पहला दृश्य: स्थान पश्चिमी सीमा-तट है। उसी समय एक चर प्रवेश करता है, जो चाणक्य की योजना के अनुसार बतलाता है कि नन्द ने आपसे मिलकर कुचक्र रचने के कारण सुवासिनी को अभियुक्त बनाकर कारागार में डाल दिया है और विद्रोह के अपराध में राक्षस को बंदी बनाकर लाने वाले को पुरस्कार की घोषणा कर दिया है। राक्षस चाणक्य के विलक्षण बुद्धि से पराभूत होता है।
दूसरा दृश्य: रावी-तट पर उत्सव शिविर का है। पर्वतेश्वर अकेले टहलते हुए अलका द्वारा किये गए अपमान पर खीझता है और आत्महत्या करने का प्रयास करता है। उसी समय चाणक्य उसे रोकता है। यहीं पर्वतेश्वर चन्द्रगुप्त की महत्ता स्वीकार करता है। राक्षस और चाणक्य के बीच बातचीत होती है और वह राक्षस के कोमल अंग पर प्रहार करके वाक् चातुर्य से उसकी अंगुली से मुद्रा ले लेता है। कल्याणी मगध की ओर प्रस्थान कर जाती है।
तीसरा दृश्य: रावी नदी के तट पर यवन सेनापति सिकंदर को विदा करने के लिए चाणक्य पर्वतेश्वर सिंहरण, अलका, मालविका, आम्भीक आदि उपस्थित हैं। सिकंदर चन्द्रगुप्त को सम्राट होने से पहले ही बधाई देता है। अंत में चाणक्य को धन्यवाद देता हुआ सिकंदर कहता है, मैं तलवार खींचे भारत में आया और हृदय देकर जाता हूँ।
चौथा दृश्य: पथ में राक्षस को यथातथ्य वस्तुस्थिति का भान होता है। चाणक्य का रचा हुआ सब षड्यंत्र वह समझ लेता है। सिंहरण और अलका का प्रवेश भी मगध शासन की चिंता में होता है। पर्वतेश्वर स्वप्रतिज्ञानुसार मगध जाने के लिए तैयार होता है। दूर की सूझ रखने वाला चाणक्य चन्द्रगुप्त को मगध जाने से रोक देता है। अंत में चाणक्य सभी को आश्वस्त कर देता है।
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पंचम दृश्य: स्थान मगध में नंद की रंगशाला। नन्द और सुवासिनी का वार्तालाप होता है नन्द का हृदय भी आशंकित हो रहा है इसलिए दुःखी है। उसके कथन से यह सूचना मिलती है कि उसने सेनापति मौर्य को आजीवन अंधकूप का दण्ड दिया है। सुवासिनी प्रत्यक्ष रूप से राक्षस को प्रेम करती है। नन्द के घृणित विचारों की सीमा में वह नहीं आ सकती। संकट के समय में उसका प्रेमी अमात्य राक्षस ही सुवासिनी की रक्षा करता है। यहीं सुवासिनी गीत गाती है- “आज इस यौवन के माधवी कुञ्ज में कोकिल बोल रहा!”
षष्ठं दृश्य: इस दृश्य में कुसुमपुर का प्रान्त है। मगध के शासन के परिवर्तन का परोक्ष प्रयत्न दिखाई देता है। चाणक्य को मगध पर विजय करने में पूर्ण विश्वास है। कुसुमपुर को देखकर उसकी बाल-स्मृतियाँ सजग हो उठती है वह एक लंबा स्वागत कथन कहता है। वहीँ पर एक सुरंग तोड़कर अंधकूप से शकटार का निष्कासन होता है। शकटार की वेदना-भरी अभिव्यक्ति के बाद शकटार और चाणक्य मगध शासन को उलट देने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ होते है।
सांतवा दृश्य: नंद के राज-मंदिर के प्रकोष्ट में विचारमग्न नंद को एकांकी दिखाया गया है। उसी समय वररुचि के साथ चन्द्रगुप्त की माता अपने पति और पुत्र के प्रति न्याय की याचना नन्द से करने आती है। पर वह उसकी नहीं सुनता है। रोष-भरी सेनापति मौर्य की पत्नी नन्द को ‘जारज पुत्र’ और रक्त रंगे हाथों महापदम नन्द को हत्यारा कहती है। नन्द उसे अपमानित करना चाहता है। वररुचि उसकी रक्षा करना चाहता है। तभी नन्द उन दोनों को षड्यंत्रकारी समझकर बंदी करवा देता है। इसी आरोप में मालविका भी बंदी की जाती है। अंत में नन्द विचलित भाव से सोचता हुआ मंच पर रह जाता है।
आठवां दृश्य: कुसुमपुर के प्रान्त भाग के पथ में पर्वतेश्वर सीमा प्रान्त की सूचना चाणक्य, को देता है द्वन्द्व युद्ध में फिलिप्स मारा गया। सिकंदर के मरने की सूचना भी मिलती है। उसी समाय अलका आकर नन्द के प्रकोष्ट में हुई घटनाओं की सूचना चाणक्य को देती है। उसी समय घटना स्थल पर चन्द्रगुप्त भी आ जाता है। शकटार के रक्षा का भार चन्द्रगुप्त लेता है। दृश्य के अंत में वररुचि और चाणक्य की प्रस्थितिजन्य बातें होती हैं।
नवम दृश्य: नंद की रंगशाला सुवासिनी और राक्षस बंदी वेश में प्रवेश करते हैं। पात्र के संबंध में राक्षस नन्द को विश्वास दिलाता है कि यह पात्र उसका लिखा हुआ नहीं है। नंद के ऊपर अनेक अपराधों के प्रबल आरोप लगाए जाते हैं। चाणक्य आकर अपनी खुली हुई शिखा दिखलाता है अंत में नन्द अपनी बेटी कल्याणी को सामने देखकर क्षमा माँगता है पर इतने में ही शकटार उसका बध कर देता है। उसी समय सर्वसम्मति से चन्द्रगुप्त को सिहासन पर मुर्धाभिशिक्त किया जाता है। इस दृश्य में सम्राट की जय का घोष करते है।
चतुर्थ अंक
· पर्वतेश्वर के मृत्यु के पश्चात कल्याणी का आत्महत्या कर लेना।
· सभी आतंरिक विद्रोह को चाणक्य समाप्त कर देता है।
· राक्षस एवं सुवासिनी और चन्द्रगुप्त एवं कार्नेलिया विवाह कर लेते हैं।
· उसके बाद चाणक्य राजनीति से विश्राम ले लेता है यह कहकर कि वे चिर विश्राम के लिए संसार से अलग होना चाहते हैं।
चतुर्थ अंक में चौदह दृश्य औए सात गीत हैं:
पहला दृश्य: मगध का राजकीय उपवन में विचार-विमग्न कल्याणी प्रवेश करती है। पर्वतेश्वर, चाणक्य और चन्द्रगुप्त। चाणक्य महत्वाकांक्षा का मोती निष्ठुरता की सीपी में रहता है! इस दृश्य में कल्याणी का एक गीत है- “सुधा-सीकर से नहला दो! लहरे डूब रही हो रस में, रह न जायँ वे अपने वश में, रूप-राशि इस व्यथित हृदय-सागर को बहला दो।”
दूसरा दृश्य: पथ में राक्षस और सुवासिनी का वार्तालाप होता है। पिता की प्राप्ति होने पर सुवासिनी पुनः उसकी संरक्षता में जाने के लिए उत्सुक दिखाई देती है। इस पर राक्षस को चाणक्य के प्रति उसकी शंका होती है। यहाँ नेपथ्य से गीत की आवाज आती है- ‘कैसी कड़ी रूप की ज्वाला? पड़ता है पतंग-सा इसमें मन होकर मतवाला।’
तीसरा दृश्य: यह मगध की आयोजित परिषद गृह का दृश्य है। राक्षस चाणक्य के द्वारा विजयोत्सव नहीं मनाने की आज्ञा का विरोध कलापूर्ण ढंग से परिषद् के सदस्यों में उकसाता है और तटस्थ बने रहने की परवरी अपनाता है। मौर्या सेनापति और उसकी पत्नी प्रत्यक्ष ही उत्सव नाहीं मनाने का कारण चाणक्य से पूछते हैं। चाणक्य और सुवासिनी का वार्तालाप होता है जो चाणक्य के हृदय पक्ष का द्योतक करता है। चर के आगमन से सल्यूकस के पुनः आक्रमण की सूचना मिलती है। साथ ही यह भी पता चलता है कि सुदूर दक्षिण में जाने के लिए उसे चाणक्य की आज्ञा नहीं थी।
चौथा दृश्य: आज-प्रकोष्ट में चन्द्रगुप्त और कुमारी मालविका का वार्तालाप होता है। उन दोनों की बातों से उनके हार्दिक पक्षों का अभिव्यक्तिकरण होता है। माल्विका के इस कथन से कि ‘आज शयन में घातक आएंगे।’ उसके जीवन के प्रति पाठक व्यथित होने लगते हैं। मालविका गीत गाती है- “बज रही वंशी आठों धाम की। अब तक गूंज रही है बोली प्यारे मुख अभिराम की।” इस दृश्य में एक और गीत है।
पाँचवा दृश्य: प्रभात राज- राजमंदिर के प्रान्त भाग में विचार मग्न चन्द्रगुप्त दिखाई देता है। चाणक्य से चन्द्रगुप्त अपने माता-पिता के निर्वासित होने का कारण पूछता है। तब चन्द्रगुप्त यह कहता है कि – “यह अक्षुण्ण अधिकार आप कैसे भोग रहे हैं?” तभी चाणक्य का ब्राह्मणत्व जाग उठता है और वह अपने वास्तविक स्थिति का अनुभव करते हुए वहाँ से चला जाता है। उसी समय सिंहरण मालविका की हत्या की सूचना चन्द्रगुप्त को देता है और चाणक्य के चले जाने की सूचना पाकर वह भी वहाँ से चल देता है।
छठा दृश्य: सिंधु-तट पर एक पर्णकुटीर में चाणक्य, कात्यायन में स्थिति-विषयक वार्तालाप होता है। चाणक्य कात्यायन को मगध जाने की सलाह देता है। कात्यायन यह भी सूचना देता है कि यवन बाला कार्नेलिया पूर्ण रूप से आर्य संस्कृति में निष्णात है। चाणक्य और आम्भीक के वार्तालाप से यह ज्ञात होता है कि आम्भीक अपने दोष की कालिमा पश्चाताप के जल से प्रक्षालित करते हुए प्रतिशोध लेने की सामर्थ्य समेटे हुए है। उसी समय देशद्रोह की मसि से कलंकित आम्भीक की राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अग्नि अलका, नागरिको की भीड़ में प्रसिद्ध राष्ट्रीय गान (समवेत स्वर से गायन) “हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रभुत्व शुद्ध भारती, स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती” गाती हुई आती है। सजल नेत्रों से अपने हृदय के एक कोने को आज अंतिम बार चाणक्य अपने उद्देश्यपूर्ति के लिए कर्तव्य की बलि चढ़ा देता है।
सांतवा दृश्य: कपिशा में एलेक्जेंड्रिया का राजमंदिर में कार्नेलिया और राक्षस की बातचीत होती है। कार्नेलिया राक्षस को देशद्रोही बताती है। उसी समय राक्षस के चले जाने पर कार्नेलिया सिल्यूकस से देशद्रोही एवं राक्षस-तुल्य राक्षस से पढ़ने से स्पष्ट इनकार कर देती है।
आठवां दृश्य: पथ में चन्द्रगुप्त और सैनिक का प्रवेश होता है। वह स्वयं ही सम्राट से सैनिक बनना स्वीकार करता है, क्योंकि सिंहरण ने बलाधिकृत का पद सम्भालने से मना कर दिया है। अतः वह पद भी चन्द्रगुप्त लेकर और शकटार के नाम एक पत्र लिखकर एक सैनिक को मगध भेज देता है।
नौवा दृश्य: ग्रीक शिविर कार्नेलिया की सहायता से उसकी सखी एलिस का वार्तालाप-तत्पश्चात बंदी रूप में आई सुवासिनी कार्नेलिया की सहायता से उसकी सखी बन जाती है। सुवासिनी स्मृति को प्रेम के क्षेत्र में उसकी अनुमति-जन्य भावना काव्य के साथ दार्शनिकता लेकर प्रकट हुई है। सुवासिनी स्मृति को प्रेम का प्राण और कार्नेलिया निष्ठुर मानती है। अपने पिता के मुख से चन्द्रगुप्त की सेना पर आक्रमण की बात सुनाकर कार्नेलिया उसका विरोध करती है। अंत में सुवासिनी का एक गीत है- “सखे! वह प्रेममयी रजनी। आँखों में स्वप्न बनी।” इसी के साथ दृश्य समाप्त होता है।
दसवां दृश्य: प्रारम्भ में युद्ध-क्षेत्र के समीप चाणक्य और सिंहरण का वार्तालाप होता है। सिंहरण के द्वारा यह सूचना मिलती है कि चन्द्रगुप्त ने प्रचंड आक्रमण किया है, जिससे यवन सेना थर्रा उठी है। वीर सिंहरण अपने आपको युद्ध में सम्मिलित होने से नहीं रोक पाता है। इसलिए वह चाणक्य से आज्ञा माँगता है। इस समय चाणक्य भविष्य की सभी घटनाओं की सूचना देकर सिंहरण को विदा कर देता है। प्रतिशोध लेते हुए सिल्यूकस के आघातों से आम्भीक की मृत्यु होती है। इस अवसर पर सिंहरण चन्द्रगुप्त की सहायता करता है।
ग्यारहवां दृश्य: शिविर के भाग में राक्षस और सुवासिनी का वार्तालाप होता है। भयभीत सुवासिनी को लेकर राक्षस वहाँ से भाग निकलता है। कार्नेलिया को पता चलता है कि विजेता सिल्यूकस भी चन्द्रगुप्त के हाथों पराजित हो गया है। चन्द्रगुप्त सिल्यूकस को सुरक्षित स्थान में पहुँचाकर बंधन-मुक्ति की घोषणा करते हुए प्रस्थान करता है।
बारहवां दृश्य: साइंवर्टियस और मेगास्थनीज के वार्तालाप से पता चलता है कि समस्त ग्रीक शिविर बंदी है। मालव और तक्षशिला की सेना घेरा डाले हुए है। उधर सिल्यूकस के “सीरिया पर मैंटिगोनस ने आक्रमण किया है। इस परिस्थिति में सिल्यूकस को चन्द्रगुप्त के साथ संधि के लिए बाध्य किया जाता है। भारत के लिए कन्या का दान सिल्यूकस के लिए असंभव है। फिर भी चन्द्रगुप्त और कार्नेलिया का पूर्व-परिचय सम्भावना प्रदान करता है। साथ ही सिल्यूकस यह बताता है कि कार्नेलिया ने इस युद्ध में अनेक बाधाएं उपस्थित की है। किन्तु जब अंत में जब सिल्यूकस उसी के मुख से यह सुन लेता है कि “मैं स्वयं पराजित हूँ” तब उसे कार्नेलिया के प्रेम का परिचय हो जाता है और वह अपनी बेटी से कह देता है कि तू ही भारत की सम्राज्ञी होगी।’
तेरहवां दृश्य: दण्डयायन के तपोवन में ध्यानस्त चाणक्य के निकट राक्षस और सुवासिनी का वार्तालाप होता है। सुवासिनी सत्य परामर्श एवं तपोवन के पवित्र वातावरण के प्रभाव से राक्षस चाणक्य से अपने अपराधों की क्षमा माँगने को तैयार हो जाता है। चाणक्य का स्वागत-कथन प्रकृति के संस्पर्श से आनंद सागर में डूबा हुआ-सा प्रतीत होता है। उसी समय सेनापति मौर्य अपने प्रतिशोध और चन्द्रगुप्त के निष्कंटक राज्य के लिए चाणक्य की हत्या करना ही चाहता था कि सुवासिनी ने इस प्रकार का घृणित कार्य करते हए उसका हाथ पकड़ लिया। सम्राट चन्द्रगुप्त अपने गुरु के सम्मान में अपने पिता को अपराध का दण्ड देना चाहता है, पर विशाल हृदय वाला चाणक्य उसको क्षमा करा देता है। इसी समय वह मंत्री पद राक्षस को प्रदान करता है। चाणक्य को छोड़कर सबका राजप्रसाद की ओर प्रस्थान हो जाता है।
चौदहवां दृश्य: इस अंतिम दृश्य में नाटक के फल को भोगने वाले चन्द्रगुप्त को सिंहासनारूढ़ दिखाया है और संधि की शर्तों में सिल्युकस सहर्ष अपनी पुत्री कार्नेलिया को भारत-सम्राज्ञी बनाने के लिए सम्मति प्रदान करता है। जैसे ही बुद्धिसागर आर्य साम्राज्य के महामंत्री चाणक्य को सिल्युकस देखने की इच्छा प्रकट करता है, वैसे ही चाणक्य प्रवेश करता है और मंगल कामना करता हुआ ग्रीक गौरव लक्ष्मी कार्नेलिये को भारत की कल्याणी बनाने के लिए प्रार्थना करता है। सिल्यूकस सहर्ष स्वीकार करता है। चन्द्रगुप्त और कार्नेलिया का पाणिग्रहण होने के पश्चात मुंदित हुए चाणक्य का प्रस्थान होता है।
चन्द्रगुप्त नाटक मौर्य साम्राज्य के उत्थान और मगध के राजा घनानंद के पतन की कहानी है। चन्द्रगुप्त नाटक चाणक्य के प्रतिशोध की कहानी है। इस नाटक में प्रेम के लिए त्याग भाव को दिखाया गया है।
निष्कर्ष
नाटक का प्रस्तुतीकरण एवं उसमे प्रयोग की गयी सरल हिंदी भाषा इस नाटक को पठनीय बनाती है। वहीँ नाटक के बीच-बीच में कई गीत ऐसे हैं जो आपके दिल में सदा के लिए बस जाने इच्छुक होते हैं। प्रत्येक पात्र का सौंदर्य एवं चरित्र चित्रण करने में वे सफल रहे हैं। साथ ही घटनाओं को एक ही धागे में पिरोने से यह नाटक पढने में रोमांचक हो चला है। मेरी इच्छा है की कभी भविष्य में मैं इसका नाट्य-मंचन भी देख सकूँ ताकि इसे पूरी तरह से जी सकूँ।
इस नाटक और भूमिका में सीखने के लिए बहुत कुछ है। भूमिका आपके दिमाग के ऊपर जमी सभी प्रकार के धुल को हटाने में मदद करती है जो ‘चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य’ के ऊपर आधारित कई पुस्तकों को पढने से आ गए थे। भूमिका एक प्रकार से इस विषय पर बनाया गया वह मिश्रण है जिसे पीने के बाद या यूँ कहूँ पढने के बाद होश में आ जाते हैं। वहीँ नाटक में मनुष्य के विभिन्न रूपों को देखकर हम बहुत कुछ सीख जाते हैं। चाणक्य के कई नीतियों को हम आसानी से नाटक में देख सकते हैं और शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। जय शंकर प्रसाद की यह रचना सही मायने में एक ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक पुस्तक है जिसे सभी वर्ग के पाठकों को जरूर पढना चाहिए।
सन्दर्भ सूची
चन्द्रगुप्त (सन् 1931 में रचित) हिन्दी के प्रसिद्ध नाटककार जयशंकर प्रसाद का प्रमुख नाटक है। इसमें विदेशियों से भारत का संघर्ष और उस संघर्ष में भारत की विजय की थीम उठायी गयी है।
प्रसाद जी के मन में भारत की गुलामी को लेकर गहरी व्यथा थी। इस ऐतिहासिक प्रसंग के माध्यम से उन्होंने अपने इसी विश्वास को वाणी दी है। शिल्प की दृष्टि से इसकी गति अपेक्षाकृत शिथिल है। इसकी कथा में वह संगठन, संतुलन और एकतानता नहीं है, जो ‘स्कंदगुप्त’ में है। अंक और दृश्यों का विभाजन भी असंगत है। चरित्रों का विकास भी ठीक तरह से नहीं हो पाया है। फिर भी ‘चंद्रगुप्त’ हिंदी की एक श्रेष्ठ नाट्यकृति है, प्रसाद जी की प्रतिभा ने इसकी त्रुटियों को ढंक दिया है। ‘चन्द्रगुप्त’, जय शंकर प्रसाद जी द्वारा लिखित नाटक है जो हिंदी-साहित्य के क्षेत्र में बहुत ही नामी-गिरामी पुस्तक है। यह नाटक मौर्य साम्राज्य के संस्थापक ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ के उत्थान की कथा नाट्य रूप में कहता है। यह नाटक ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ के उत्थान के साथ-साथ उस समय के महाशक्तिशाली राज्य ‘मगध’ के राजा ‘धनानंद’ के पतन की कहानी भी कहता है। यह नाटक ‘चाणक्य’ के प्रतिशोध और विश्वास की कहानी भी कहता है। यह नाटक राजनीति, कूटनीति, षड़यंत्र, घात-आघात-प्रतिघात, द्वेष, घृणा, महत्वाकांक्षा, बलिदान और राष्ट्र-प्रेम की कहानी भी कहता है। यह नाटक ग्रीक के विश्वविजेता सिकंदर या अलेक्सेंडर या अलक्षेन्द्र के लालच, कूटनीति एवं डर की कहानी भी कहता है। यह नाटक प्रेम और प्रेम के लिए दिए गए बलिदान की कहानी भी कहता है। यह नाटक त्याग और त्याग से सिद्ध हुए राष्ट्रीय एकता की कहानी भी कहता है।
‘चन्द्रगुप्त’ और ‘चाणक्य’ के ऊपर कई विदेशी और देशी लेखकों ने बहुत कुछ लिखा है। अलग-अलग प्रकार की कहानियां और उनसे निकलने वाला अलग-अलग प्रकार का निचोड़ मन में भ्रम पैदा करने के लिए काफी है। लेकिन, यह नाटक सभी पुस्तकों से कुछ भिन्न है। जो पाठक इस नाटक को पढना चाहते हैं उनके लिए महत्वपूर्ण सलाह यह की नाटक से पहले इसकी भूमिका जरूर पढ़ें। जय शंकर प्रसाद जी ने इस नाटक की भूमिका लिखने के लिए जिस प्रकार का शोध किया है वह काबिलेतारीफ है जबकि मुझे लगता है की तारीफ के लिए शब्द ही नहीं है। लगभग सभी देशी और विदेशी लेखकों के पुस्तकों से महतवपूर्ण बिन्दुओं को उठाकर उन्होंने चन्द्रगुप्त के जन्म से लेकर उसके राज्याभिषेक तक की गतिविधियों को अलग-अलग रूप से प्रस्तुत किया है। इस नाटक की भूमिका ही अपने आप में शोध-पत्र से कम नहीं है। जो इतिहास का पोस्टमॉर्टेम उन्होंने अपनी इस भूमिका में सभी देशी-विदेशी इतिहासकार द्वारा लिखित पुस्तकों का अध्ययन करके, सभी का रिफरेन्स देकर तुलना करते हुए ‘चन्द्रगुप्त’ से सम्बंधित हर प्रकार की घटना को उल्लेखित किया है, वह कहीं और आपको देखने को नहीं मिलेगा।
नाटक का प्रस्तुतीकरण एवं उसमे प्रयोग की गयी सरल हिंदी भाषा इस नाटक को पठनीय बनाती है। वहीँ नाटक के बीच-बीच में कई गीत ऐसे हैं जो आपके दिल में सदा के लिए बस जाने इच्छुक होते हैं। प्रत्येक पात्र का सौंदर्य एवं चरित्र चित्रण करने में वे सफल रहे हैं। साथ ही घटनाओं को एक ही धागे में पिरोने से यह नाटक पढने में रोमांचक हो चला है। मेरी इच्छा है की कभी भविष्य में मैं इसका नाट्य-मंचन भी देख सकूँ ताकि इसे पूरी तरह से जी सकूँ।
इस नाटक और भूमिका में सीखने के लिए बहुत कुछ है। भूमिका आपके दिमाग के ऊपर जमी सभी प्रकार के धुल को हटाने में मदद करती है जो ‘चन्द्रगुप्त एवं चाणक्य’ के ऊपर आधारित कई पुस्तकों को पढने से आ गए थे। भूमिका एक प्रकार से इस विषय पर बनाया गया वह मिश्रण है जिसे पीने के बाद या यूँ कहूँ पढने के बाद होश में आ जाते हैं। वहीँ नाटक में मनुष्य के विभिन्न रूपों को देखकर हम बहुत कुछ सीख जाते हैं। चाणक्य के कई नीतियों को हम आसानी से नाटक में देख सकते हैं और शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। जय शंकर प्रसाद की यह रचना सही मायने में एक ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक पुस्तक है जिसे सभी वर्ग के पाठकों को जरूर पढना चाहिए।