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ग्रहण चक्र

केंद्र में पृथ्वी को रखते हुए एक प्रतीकात्मक चित्र, जिसमें दो चन्द्रपात दिखाई दे रहे हैं जहाँ ग्रहण हो सकते हैं।

ग्रहण बार-बार हो सकते हैं, इनमे कुछ निश्चित समय अंतराल होता हैं और एक विशेष क्रम होता । कोई भी एक समय अंतराल जिसमे ग्रहणों की पुनरावृत्ति लगभग उसी क्रम में होती है , ग्रहण चक्र कहलाता है। ग्रहण ऋतु , ग्रहण वर्ष , ग्रहण युग ये सभी ग्रहण चक्र के उदाहरण हैं ।[1]

ग्रहण के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ

सूर्य ग्रहण का आरेख (पैमाने पर नहीं)

वस्तुतः जिस तल पर पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती , पृथ्वी से देखने वाले के लिए सूर्य उसी तल पर पृथ्वी का चक्कर लगता प्रतीत होता है। इसको क्रांतिवृत्त का नाम दिया गया है। यदि चन्द्रमा की कक्षा का तल भी पृथ्वी की कक्षा के तल पर ही होता तो चन्द्रमा की कक्षा भी क्रांतिवृत्त या सूर्यपथ पर ही दिखाई देती। यदि चन्द्रमा की कक्षा का तल भी पृथ्वी की कक्षा के तल पर ही होता तब हर चंद्रमास में दो ग्रहण होते , हर अमावस्या को सूर्य ग्रहण और हर पूर्णिमा को चन्द्रग्रहण। सभी सूर्य ग्रहण भी एक जैसे ही होते और सभी चंद्र ग्रहण भी एक जैसे ही होते। लेकिन चन्द्रमा और पृथ्वी की कक्षाएँ एक तल में नहीं हैं ,इसलिए चन्द्रमा की कक्षा खगोलीय गोले पर क्रांतिवृत्त से अलग दिखाई देती है, और क्रांतिवृत्त को केवल दो बिन्दुओ पर ही काटती है। इन बिंदुओं को चन्द्रपात कहते हैं। ग्रहण उन्ही बिन्दुओ पर सम्भव जहाँ पर क्रान्तिवृत्त और चन्द्रमा की कक्षाएँ एक दूसरे को काटती हैं, अर्थात चन्द्रपातों पर । चंद्र ग्रहण तभी हो सकता है जब पूर्णिमा का चंद्रमा किसी एक चंद्रपात के पास हो (11° 38' के भीतर) , जबकि सूर्य ग्रहण तभी हो सकता है जब अमावस्या का चन्द्रमा किसी एक चंद्रपात के पास हो (17° 25' के भीतर)। चन्द्रमा तो हर माह दोनों चन्द्रपातों से होकर गुजरता ही है , लेकिन सूर्य केवल वर्ष में दो बार ही चन्द्रपातों से होकर गुजरता है। इसलिए जब सूर्य चन्द्रपात के निकटतम हो ऐसे लगभग 35 दिनों को अवधि में ही ग्रहण हो सकते हैं।


ग्रहणों की पुनरावृत्ति

ग्रहण होने के लिए चन्द्रपातों का पृथ्वी और सूर्य को मिलाने वाली रेखा पर के निकट आवश्यक है और ऐसा वर्ष में केवल दो हो बार हो पाता है जब सूर्य चन्द्रपातों के आसपास हो । ग्रहण ऋतु ही ऐसा समय होता है जब सूर्य (पृथ्वी के देखने पर ) किसी एक चन्द्रपात के इतना निकट होता है कि ग्रहण हो सके। ग्रहण ऋतु के दौरान, जब भी पूर्णिमा होगी, चंद्र ग्रहण होगा और जब भी अमावस्या होगी तो सूर्य ग्रहण होगा। यदि सूर्य एक चन्द्रपात के काफी करीब है, तो पूर्ण ग्रहण होगा। प्रत्येक ग्रहण ऋतु 31 से 37 दिनों तक चलती है, और ग्रहण ऋतुएँ लगभग हर 6 महीने में दोहराई जाती हैं। प्रत्येक ग्रहण ऋतु में कम से कम दो ग्रहण होते हैं (एक सूर्य ग्रहण और एक चंद्र ग्रहण , किसी भी क्रम में), और अधिकतम तीन ग्रहण होते हैं । ऐसा इसलिए है क्योंकि पूर्णिमा और अमावस्या के बीच लगभग 15 दिन (एक पखवाड़ा ) है । यदि ग्रहण ऋतु की शुरुआत में ही कोई ग्रहण होता है, तो दो और ग्रहणों के लिए पर्याप्त समय (30 दिन) होता है।

ग्रहण युग (अंग्रेजी: saros ) ठीक 223 चंद्रमास की अवधि है। दूसरे शब्दों में लगभग 6585.3211 दिन, या 18 साल और 10 और 8 घंटे ( इस बीच आए अधिवर्षों की संख्या के आधार पर ये 11, या 12 दिन भी हो सकता है) । ग्रहण युग का उपयोग ग्रहणों की भविष्यवाणी करने के लिए किया जा सकता है । किसी ग्रहण होने के एक ग्रहण युग के समयांतराल के बाद , सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा लगभग वैसी ही सापेक्ष ज्यामितिय स्थिति में पुनः आ जाते हैं और लगभग वैसा ही ग्रहण होता है, जिसे ग्रहण चक्र के रूप में जाना जाता है।


136 सूर्य ग्रहणों के चक्र में अलग अलग प्रकार के ग्रहणों की श्रंखलाों (आंशिक, वलयाकार, संकर, पूर्ण ) के पथ दिखाए गए हैं । हर श्रंखला के दो ग्रहणों के बीच का समय एक ग्रहण युग है, लगभग 18 वर्ष।

सन्दर्भ

  1. NASA. "PERIODICITY OF SOLAR ECLIPSE". eclipse.gsfc.nasa.gov.