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गाजर घास

गाजर घास

गाजर घास या 'चटक चांदनी' (Parthenium hysterophorus) एक घास है जो बड़े आक्रामक तरीके से फैलती है। यह एकवर्षीय शाकीय पौधा है जो हर तरह के वातावरण में तेजी से उगकर फसलों के साथ-साथ मनुष्य और पशुओं के लिए भी गंभीर समस्या बन जाता है। इस विनाशकारी खरपतवार को समय रहते नियंत्रण में किया जाना चाहिए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस घास को चिड़िया बाड़ी के नाम से भी पुकारते है।

गाजर घास का उपयोग अनेक प्रकार के कीटनाशक, जीवाणुनाशक और खरपतवार नाशक दवाइयों के र्निमाण में किया सकता है। इसकी लुग्दी से विभिन्न प्रकार के कागज तैयार किये जा सकते हैं। बायोगैस उत्पादन में भी इसको गोबर के साथ मिलाया जा सकता है।

परिचय

इस खरपतवार की बीस प्रजातियां पूरे विश्व में पाई जाती हैं। अमेरिका, मैक्सिको, वेस्टइंडीज, भारत, चीन, नेपाल, वियतनाम और आस्ट्रेलिया के विभिन्न भागों में फैली खरपतवार का भारत में प्रवेश तीन दशक र्पूव अमेरिका या कनाडा से आयात किये गये गेहूं के साथ हुआ। अल्पकाल में ही लगभग पांच मिलियन हैक्टेयर क्षेत्र में इसका भीषण प्रकोप हो गया। यह खरपतवार जम्मू-कश्मीर, हिमाचल, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर-प्रदेश, मध्यप्रदेश, उडीसा, पश्चिमी बंगाल, आन्ध्रप्रदेश, र्कनाटक, तमिलनाडु, अरुणाचल प्रदेश और नागालैण्ड के विभिन्न भागों में फैली हुई है।

एक से डेढ मीटर तक लम्बी गाजर घास के पौधे का तना रोयेदार अत्यधिक शाखा युक्त होता है। इसकी पत्तियां असामान्य रूप से गाजर की पत्ती की तरह होती हैं। इसके फलों का रंग सफेद होता है। प्रत्येक पौधा 1000 से 50000 अत्यंत सूक्ष्म बीज पैदा करता है, जो शीघ्र ही जमीन पर गिरने के बाद प्रकाश और अंधकार में नमी पाकर अंकुरित हो जाते हैं। यह पौधा 3-4 माह में ही अपना जीवन चक्र पूरा कर लेता है और वर्ष भर उगता और फलता फूलता है। यह हर प्रकार के वातावरण में तेजी से वृद्धि करता है। इसका प्रकोप खाद्यान्न, फसलों जैसे धान, ज्वार, मक्का, सोयाबीन, मटर तिल, अरंडी, गन्ना, बाजरा, मूंगफली, सब्जियों एवं उद्यान फसलों में भी देखा गया है। इसके बीज अत्यधिक सूक्ष्म होते हैं, जो अपनी दो स्पंजी गद्दि्यों की मदद से हवा तथा पानी द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से पहुंच जाते हैं।

गाजर घास मनुष्य और पशुओं के लिए भी एक गंभीर समस्या है। इससे खाद्यान्न फसल की पैदावार में लगभग 40 प्रतिशत तक की कमी आंकी गई है। इस पौधे में पाये जाने वाले एक विषाक्त पर्दाथ के कारण फसलों के अंकुरण एवं वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। दलहनी फसलों में यह खतरपतवार जड ग्रंथियों के विकास को प्रभावित करता है तथा नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं की क्रियाशीलता को भी कम कर देता है। इसके परागकण बैंगन, र्मिच, टमाटर आदि सब्जियों के पौधे पर एकत्रित होकर उनके परागण अंकुरण एवं फल विन्यास को प्रभावित करते हैं तथा पत्तियों में क्लोरोफिल की कमी एवं पुष्प र्शीषों में असामान्यता पैदा कर देते हैं।

अचानकमार टाईगर रिजर्व, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में गाजरघास का प्रकोप

इस खरपतवार के लगातार संर्पक में आने से मनुष्यों में डरमेटाइटिस, एक्जिमा, एर्लजी, बुखार, दमा आदि की बीमारियां हो जाती हैं। पशुओं के लिए भी यह खतरनाक है। इससे उनमें कई प्रकार के रोग हो जाते हैं एवं दुधारू पशुओं के दूध में कडवाहट आने लगती है। पशुओं द्वारा अधिक मात्रा में इसे चर लेने से उनकी मृत्यु भी हो सकती है।

इसकी रोकथाम के लिए वैधानिक, यांत्रिक, रासायनिक एवं जैविक विधियों का उपयोग किया जाता है। गैरकृषि क्षेत्रों में इसके नियंत्रण के लिए शाकनाशी रसायन एट्राजिन का प्रयोग फूल आने से र्पूव 1.5 किग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हैक्टेयर पर उपयोग किया जाना चाहिए। ग्लायफोसेट 2 किग्रा सक्रिय तत्व प्रति हैक्टेयर और मैट्रीब्यूजिन 2 किग्रा. तत्व प्रति हैक्टेयर का प्रयोग फूल आने से र्पूव किया जाना चाहिए। मक्का, ज्वार, बाजरा की फसलों से एट्रीजिन 1 से 1.5 किग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हैक्टेयर बुवाई के तुरंत बाद (अंकुरण से पूर्व) प्रयोग किया जाना चाहिए।

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