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गणिका

१९वीं सदी में भारतीय गणिकाओं का चित्र।

अमरकोश में वारांगना, गणिका और वेश्या समानार्थी कहे गए हैं। किन्तु मेधातिथि ने वेश्या के दो रूप बताए हैं। एक तो ऐसी स्त्री जो संभोग की इच्छा से अनेक व्यक्तियों के प्रति अनुरक्त होती है। इसे उसने 'पुंश्चली' नाम दिया है। दूसरी वह जो सजधजकर युवकों को वशीभूत तो करती है किन्तु हृदय में संभोग की इच्छा नहीं रखती और धन प्राप्त होने पर ही संभोग के लिये तत्पर होती है। ऐसी स्त्री को उसने 'गणिका' कहा है। वस्तुतः ऐसी स्त्री वेश्या कही जाती थी, गणिका नहीं। यह अभिसारिका के वेश्याभिसारिका और गणिकाभिसारिका नामक दो भेदों से स्पष्ट है। वेश्या केवल रूपाजीवा और अंधक नायक को भी तन विक्रय करनेवाली थी। उसकी गणना नायिका में नहीं की गई है। गणिका, वेश्या और वारांगना की अपेक्षा श्रेष्ठ समझी जाती थी।

वस्तुतः कलावती (कला-रूप-गुणाविन्ता) स्त्री को गणिका कहते थे। वह प्राचीन काल में राज दरबार में नृत्य गायन करती थीं और उसे इस कार्य के लिये हजार पण वेतन प्राप्त होता था। वह राजा के सिंहासनासीन रहने पर अथवा पालकी में बैठने के समय उस पर पंखा झलती थी। इस प्रकार से गणिका राजसेविका थी। उसे राज दरबार में सम्मान प्राप्त था, ऐसा नाट्यशास्त्र के प्रचुर उल्लेखों से प्रकट होता है। भरत ने उसके गुणों का इस प्रकार उल्लेख किया है-

प्रियवादी प्रियकथा स्फुटा दक्षा जिनश्रमा।
एभिर्गुर्णस्तु संयुक्ता गणिका परिकीर्तिता॥

ललितविस्तर में एक राजकुमारी को गणिका के समान शास्त्रज्ञ कहा गया है। इससे प्रकट होता है कि गणिका काव्य-कला-शास्त्र की ज्ञाता होती थी। गणिकापुत्री को नागरपुत्रों के साथ बैठकर विद्याध्ययन करने का अधिकार प्राप्त था।

गणराज्यों में गणिका समस्त राष्ट्र किंवा गण की सम्पत्ति मानी जाती थी। बौद्ध साहित्य में उसका यही रूप प्राप्त होता है। संस्कृत नाटकों में उसे 'नगरश्री' कहा गया है। मृच्छकटिक की नायिका वसन्तसेना गणिका थी। उसमें उसके प्रति आदर व्यक्त किया गया है। वैशाली की अम्बपालि, वसन्तसेना की तरह ही नगर के अभिमान की वस्तु थी। गणराज्य का ह्रास होने पर साम्राज्य के प्रभावविस्तार से गणिका और वारंगना (वेश्या) का भेद जाता रहा। गणिका को वारांगना से हेय माना जाने लगा। मनु ने उसकी अन्न खाने का निषेध किया है।

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