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गंगोत्री की सभ्यता

अनंतकाल से ही गंगोत्री पूजा-अर्चना का एक धार्मिक स्थल है तथा सदियों से मुनियों, साधुओं तथा तीर्थयात्रियों ने दुर्गम क्षेत्र पार किया और मुक्ति पाने हेतु यहां पहुंचते रहे। 19वीं सदी के दौरान कई अंग्रेज अनुसंधानियों ने गंगा नदी के उद्गम स्थल का पता लगाना प्रारंभ किया। जे.बी. फ्रेजर ने वर्ष 1815 की गर्मी में अपने दौरे के बारे में लिखा है तथा इसके दो वर्ष पूर्व प्रथम युरोपिय युवा सैनिक-अधिकारी जेम्स हरबर्ट गंगा के श्रोत गोमुख तक पहुंचा। इसी कारण और मौसमी स्थल होने के कारण भी गंगोत्री बाहरी प्रभाव से अछूता नहीं है तथा संसार के सभी भागों से एवं सभी क्षेत्रों के लोग यहां की यात्रा करते हैं।

एक धार्मिक स्थल होने से ही यहां की संस्कृति का विकास हुआ है। तीर्थयात्रियों के पुरोहितों के पूर्वजों, पंडों का हमेशा ही इस स्थल पर नियंत्रण रहा है जो तीर्थयात्रियों के विभिन्न कर्मकांडों में सहायता करते रहे हैं। ये पंडे तीर्थयात्रियों के विभिन्न परिवारों से संबद्ध थे और अब भी है तथा तीर्थयात्रियों के परिवारों का इतिहास रखने के अलावा परिवार की पीढ़ियों को पूजा अर्चना में मार्गदर्शन देते रहे हैं।

बोली जाने वाली भाषा

हिन्दी, गढ़वाली, अंग्रेजी


वास्तुकला

ई.टी. एटकिंसन ने वर्ष 1882 में गंगोत्री मंदिर एवं इसके इर्द-गिर्द के भवनों का वर्णन इस प्रकार किया है, “मंदिर का निर्माण एक पवित्र शिला पर हुआ है जहां परंपरागत रूप से राजा भागीरथ, महादेव की पूजा किया करते थे। यह वर्गाकार एवं छोटा भवन 12 फीट ऊंचा है जो शीर्ष पर गोलाकार है जैसा कि पहाड़ियों के मंदिरों में सामान्यतः रहता है। यह बिल्कुल समतल, लाल धुमाव के साथ सफेद रंग का है जिसके ऊपर खरबूजे की शक्ल का एक तुर्की टोपी की तरह शीखर रखा है। वर्ग के पूर्वी सिरे से, जो पवित्र श्रोत के निकट मुड़ा है वहीं यह पत्थर की छत सहित थोड़ा आगे बढ़ा हुआ है जहां सामने प्रवेश द्वार है तथा ठीक इसके विपरीत इसी आकार का एक छोटा मंदिर भैरोजी का है जो इस धार्मिक स्थल के अभिभावक माने जाते हैं। बड़े मंदिरों में गंगा, भागीरथी एवं अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां है जिनका संबंध इस स्थल से है। संपूर्ण स्थल अनगढ़े पत्थरों के टुकड़ों से बनी एक दीवाल से घिरा है तथा इस जगह के आगे एक प्रशस्त सपाट पत्थर है। इस जगह भी वहां पुजारी ब्राह्मण के लिये एक छोटा पर आराम देह घर है। अहाते के बिना कुछ लकड़ी के छायादार निर्माण है तीर्थयात्रियों के लिये है जो ऊपर लटकते पत्थरों की गुफाओं में भी आश्रय पाते हैं, जो काफी हैं।”

अधिकांश लोग मंदिर के इस वर्णन से सहमत होगें क्योंकि तब से बहुत मामूली सा परिवर्तन ही हुआ है। फिर भी इसी प्रारंभ से ही शहर विकसित हुआ है खासकर जब से गाड़ियां चलने के लिये सड़कें बन गयी है, इस स्थान तक पहुंचना सहज हुआ है तथा अधिकाधिक तीर्थयात्री एवं सैलानी यहां आने लगे हैं। इससे आय बढ़ी है जिसे मंदिर एवं शहर के विकास पर खर्च किया गया है।

पिछले दो दशकों में शहर के लकड़ी एवं टीन के एकल भवन निर्माण की जगह ईटों एवं पत्थरों के निर्माण ने ले लिया हैं। मूल स्थान-घाट के बालुई किनारे पर अब एक स्थायी निर्माण कराया गया है। नदी की दूसरी ओर लंबवत पहाड़ियों पर भवन-निर्माण हुआ है। इनमें से कई भवन बहुत लंबे एवं पतले खंभों पर आधारित हैं जो इस भूकंप संभावित क्षेत्र के विकास पर प्रश्नचिह्न लगाता है। नये भवन बड़े हैं और ऊंचे तथा बहुमंजिले हैं।


सभ्यता

यहां कई कुंड या तालाब हैं जिनके नाम, ब्रह्मकुंड, विष्णु तथा अन्य मिलते जुलते कुंड हैं। इनमें तीर्थयात्रियों के लिये, डुबकी लगाना कर्मकांडों का एक महत्वपूर्ण अंश होता है जो यहां आते हैं। डुबकी के साथ पुजारियों को दिया गया दान सभी पाप कर्मों से मुक्ति दिलाता है।

गंगोत्री के पुजारी ब्राह्मण गंगोत्री इतिहास से जुड़े हैं। गंगोत्री के कार्यकारी पंडा मुखबा गांव के सेमवाल ब्राह्मण हैं तथा उनकी नियुक्ति अमर सिंह थापा ने की थी। वे गढ़वाल ब्राह्मणों के सरोला सब-डिविजन के होते हैं। गढ़वाल के सभी ब्राह्मण सामान्य रूप से गंगारी श्रेणी के होते है (वे लोग जो गंगा एवं इसकी सहायक नदियों के साथ रहते हैं) पर बेहतर वर्ग अपने को सरोला श्रेणी का मानते हैं, वे जो गढ़वाल के राजाओं के रसोईयों के पूर्वजों के वंशज होते है और इसीलिये यह नाम है। दूसरा यह कि जब सैनिक रखना आवश्यक हो गया तो राजा अभय पाल द्वारा उन्हें युद्ध स्थलों में सैनिकों के लिये भोजन बनाने के लिये नियुक्त किया गया और फिर यह आदेश जारी किया गया कि राजा द्वारा नियुक्त ब्राह्मणों की रसोई के एक ही बर्त्तन से सभी भोजन करें - जिस रिवाज जो आज भी कायम है।

यात्रा के मौसम के समय गंगोत्री में रहने वाले ब्राह्मणों-पुजारियों के अलावा गंगोत्री में देश के विभिन्न भागों से तीर्थयात्रियों का तांता लगा होता है तथा सदियों से यहां की आबाजाही आबादी को बढ़ाता रहा है और आज भी है। गंगोत्री शहर तक सड़क बनने से पहले लोगों के लिये यहां घर बसाना प्रायः असंभव सा होता था तथा इस निर्जन स्थान तक पहुंचने में भारी कठिनाईयां आती थी। इसके बाद पर्यटन एवं यात्रा मौसम से संबद्ध छोटे व्यापारी एवं देश के विभिन्न भागों से साधु यहां आकर बस गये। इन व्यापारियों में से कुछ ब्राह्मण परिवार हैं पर इनके कई राजपूत भी है। पारिवारिक बंधन यहां बहुत गहरे है तथा अपेक्षाकृत थोड़े से लोग ही इस स्थल का नियंत्रण करते हैं। गंगोत्री की अर्थव्यवस्था मौसमी है क्योंकि लोग अप्रैल से अक्टूबर तक ही तीर्थयात्रा करते हैं और जाड़े में कम ऊंचाई की जगहों पर चले जाते हैं।

गंगोत्री में धर्म तथा अर्थशास्त्र अभिन्न रूप से जुड़े हैं जैसा कि सभी हिंदु तीर्थस्थलों में है। पंडों का अपने यजमानों के साथ परिवार जैसा ही संबंध होता है। पंड़े अपने यजमानों के भोजन, आवास, परिवहन एवं कर्मकांड़ों का पूरा ख्याल रखते हैं जबकि यजमान इसके बदले पारिश्रमिक तथा उपहार देते हैं। इस नमूने को गंगोत्री के विकास ने बदल दिया है और पंड़ों का स्थान गौण हो गया है क्योंकि लोगों के लिये आवासीय विकल्प उपलब्ध हो गये हैं अब कई पंडा-परिवार दूकानें या होटल खोलकर व्यवसाय में लग गये हैं पर मोटे तौर पर उनकी आर्थिक अवस्था बदल गई है।